राजस्थान के अजमेर शहर से
१४ किमी. दूर उत्तर- पश्चिम में अरावली पहाड़ियों की
गोद में बसा 'पुष्कर' नाम का छोटा सा शहर भारत के
प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। पर्यटकों का
स्वर्ग 'तीर्थराज' पुष्कर, पद्म-पुराण के अनुसार सभी
तीर्थो में श्रेष्ठ माना गया है। आज देश विदेश में
अपनी विविध थाती परक आस्थाओं, मंदिरों, सरोवर और
ग्राम्यांचल की सोंधी महक के लिये तो चर्चित यह नगर
दुनिया में अकेला ऐसा स्थान है जहाँ ब्रह्मा की पूजा
की जाती है।
रचना और महत्तव
पुष्कर की रचना कैसे हुई इस विषय में अनेक कहानियाँ
सुनी जाती हैं। पुष्कर का अर्थ है एक ऐसा सरोवर जिसकी
रचना पुष्प से हुई हो। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने
अपने यज्ञ के लिए एक उचित स्थान चुनने की इच्छा से
यहाँ एक कमल गिराया था। पुष्कर उसी से बना। एक अन्य
कथा के अनुसार समुद्रमंथन से निकले अमृतघट को छीनकर जब
एक राक्षस भाग रहा था तब उसमें से कुछ बूँदें इसी तरह
सरोवर में गिर गईं तभी से यहाँ की पवित्र झील का पानी
अमृत के समान स्वास्थ्यवर्धक हो गया जिसकी महिमा एवं
रोगनाशक शक्ति के बारे में इतिहास में अनेकों उदाहरण
भरे पड़े है। ऐसा कहा जाता है कि क्रोधित सरस्वती ने एक
बार ब्रह्मा को श्राप दे दिया कि जिस सृष्टि की रचना
उन्होंने की है, उसी सृष्टि के लोग उन्हें भुला देंगे
और उनकी कहीं पूजा नहीं होगी। लेकिन बाद में देवों की
विनती पर देवी सरस्वती पिघलीं और उन्होंने कहा कि
पुष्कर में उनकी पूजा होती रहेगी। इसीलिए विश्व में
ब्रह्मा का केवल एक ही मंदिर है जो यहाँ स्थित है। इस
सरोवर की लंबाई और चौड़ाई समान है। डेढ़ किलोमीटर लंबे
और इतने ही चौड़े पुष्कर सरोवर को पास की पहाड़ी से
देखें तो यह वर्गाकार स्फटिक मणि समान प्रदीप्त लगता
है। इसके चारों तरफ बने हुए बावन घाट इसके सौंदर्य
दुगना कर देते हैं।
यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता, धार्मिक वातावरण एवं मेले
की चहल-पहल धार्मिक श्रद्धालुओं के लिए स्वर्ग के समान
है और बार बार अपनी ओर आकर्षित करती है। यहाँ आने वाला
हर सैलानी इस दिव्य, अलौकिक स्थान में रहकर अपने आप को
गौरान्वित महसूस करता है। इसे वेदमाता गायत्री की
जन्मभूमि भी माना जाता है। भगवान् शिव सहित अन्य
देवताओं की शक्ति पीठ भी यही है। यह भी माना जाता है
कि कार्तिक शुक्ल पक्ष के अंतिम पाँच दिनों में जो कोई
पुष्कर तीर्थ में स्नान- पूजा करता है उसे अवश्य ही
मोक्ष प्राप्त होता है। इसीलिए चारों धामों की यात्रा
करके भी यदि कोई पुष्कर झील में डुबकी नहीं लगाता है
तो उसके सारे पुण्य निष्फल हो जाते है। प्राचीन धारणा
के अनुसार यह कहा जाता है कि 'सारे तीर्थ बार बार,
पुष्कर तीर्थ एक बार', इसीलिए इसे तीर्थों का गुरु,
पाँचवाँ धाम एवं पृथ्वी का तीसरा नेत्र कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त पुष्कर नगरी व्यावसायिक और पर्यटन की
दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
मेले का आकर्षण
यहाँ प्रतिवर्ष दो विशाल मेलों का आयोजन किया जाता है।
पहला मेला कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक तथा
दूसरा मेला वैशाख शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक लगता
है। पुरोहित संघ ट्रस्ट की ओर से पुष्कर झील के
बीचों-बीच बनी छतरी पर झंडारोहण व महा आरती के साथ
कार्तिक मेले की शुरुआत होती है।
मेले के दिनों में ऊंटों व घोडों की दौड खूब पसंद की
जाती है। सबसे सुंदर ऊँट व ऊँटनी को पुरस्कृत किया
जाता है। दिन में लोग जहाँ पशुओं के कारनामे देखते
रहते हैं, तो वहीं शाम का समय राजस्थान के लोक नर्तकों
व लोक संगीत का होता है। तेरहताली, भपंवादन, कालबेलिया
नाच और चकरी नृत्य का ऐसा समां बँधता है कि लोग झूमने
लगते हैं। दूर तक फैले पर्वतों के बीच विस्तृत मैदान
पर आए सैकड़ों ग्रामीणों का कुनबा मेले में अस्थायी
आवास बना लेता है। पशुओं की तरह तरह की नस्लें उनका
चारा औजार कृषि के यंत्र और उनके तंबू डेरे विविधता का
सुंदर समा बाँध देते हैं।
भारत के सबसे बडे पशु मेलों में से एक यह मेला रेत के
विशाल मैदान में लगाया जाता है। आम मेलों की ही तरह
ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने की
गुमटियाँ, करतब, झूले और मेलों में देखी जाने वाली सभी
वस्तुओं की जमावट यहाँ देखी जाती है। ऊँट तो होते ही
हैं इसके अतिरिक्तो घोडे, हाथी, और बाकी पशुओं का भी
यहाँ व्यापार होता है। सैलानियों को इनपर सवारी का
आनंद मिलता है सो अलग। लोक संस्कृति व लोक संगीत का
सौंदर्य हर जगह देखने को मिलता है। बड़े मैदान में
कतार में लगी दुकाने, झूले, रंग बिरंगे पोशाकों में
आये लोग मेले की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते है।
तीर्थ का सौंदर्य:
अजमेर से नाग पर्वत पार करके पुष्कर पहुँचना होता है।
इस पर्वत पर एक पंचकुंड है और अगस्त्य मुनि की गुफा भी
बताई जाती है। यह भी माना जाता है कि महाकवि कालिदास
ने इसी स्थान को अपने महाकाव्य अभिज्ञान शाकुंतलम के
रचनास्थल के रूप में चुना था। पुष्कर में एक तरफ तो
विशाल सरोवर से सटी पुष्कर नगरी है तो दूसरी तरफ
रेगिस्तान का मुहाना।
मेले के दिनों में पूरे पुष्कर को रोशनी से सजाया जाता
है। राजस्थान के पारंपरिक एवं सांस्कृतिक नृत्य-गीत के
अतिरिक्त देशी एवं विदेशी कलाकार भी अपनी कला का
प्रदर्शन करते है। मेला स्थल से परे पुष्कर नगरी का
माहौल एक तीर्थनगरी सरीखा होता है। कार्तिक में स्नान
का महत्व भारतीय मान्यताओं में वैसे भी काफी ज्यादा
है। इसलिए यहाँ साधु भी बडी संख्या में नजर आते हैं।
सुबह का वातावरण बहुत ही स्वच्छ होता है। संध्या के
समय मंदिरों के आँगन से आने वाली आरतियों की गूँज पूरे
वातावरण को आस्था एवं शान्ति में डुबो देती है। इस
छोटे से अंचल में ही पाँच सौ के आसपास मंदिर हैं, और
जब किसी भी मंदिर की टालियाँ झालर शंख खड़ावल घंटियाँ
बज उठती हैं तो उनका अनहत वाद्य हर नास्तिक के लिये
चुनौती और हर आस्तिक के लिये गहन श्रद्धा का विषय बन
जाता है। मंदिरों में आरती के समय विरेचित सुगंध
प्रधान धूम्रों से सारा वातावरण सुरभित हो उठता है।
सैलानियों की इतनी बडी संख्या के बावजूद यहां के
स्वरूप में खास परिवर्तन नहीं आया है। इसलिये इसका
प्राकृतिक रुप अभी भी आकर्षक बना हुआ है। सफेद
संगमरमरी सीढियों से चलकर पुराने साँचे में निर्मित
ब्रह्मा मंदिर के पास ही ऊँचे टीले पर दिन ढ़लने से
कुछ पहले कैमरामैन सूर्यास्त को कैद करने मुस्तैद
मिलते हैं। और शाम से पहले की लाली में धूल उड़ाते
ढोरों की लंबाती परछाइयाँ कुदरती चित्रकारी छायांकन का
नायाब नमूना दिखलाती है।
अंतर्राष्ट्रीय रौनक
मेले में देशी विदेशी सभ्यता और संस्कृति का संगम
अत्यंक आकर्षक लगता है। एक ओर जहाँ हजारों की संख्या
में विदेशी सैलानी आते है तो दूसरी ओर आसपास के तमाम
राज्यों के आदिवासी और ग्रामीण भी इसमें भाग लेते हैं।
रंग बिरंगे परिधानों- कुर्ती, काँचली, लहँगा, आँगी,
डेवटा, पल्ला, चुनड़ी, पोमचा, बेस और जरी के कपड़े
पहने ग्रामीण महिलाएँ अपनी भाषा के गीत गाती है तो
लगता है निश्छलता कंठों में स्वर बनकर छलक पड़ी है।
पुष्कर
मेले में विभिन्न धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय के लाखों
लोग एक होकर अपनी भावांजलि अर्पित करते है और पुष्कर
सरोवर में डुबकी लगाकर, मंदिरों में पूजा- अर्चना कर
परमानन्द की अनुभूति करते है। पुष्कर सरोवर के चारो ओर
बने ५२ घाटों पर अनेकता एकता में बदल ज़ाती है| पुष्कर
के कण-कण में श्रद्धा एवं आध्यात्मिकता रमती है, यही
कारण है कि यहाँ पर आने वाले विदेशी सैलानी यही पर
महीनों तक बस जाते है
अपनी अद्वितीय पहचान रखने वाला पुष्कर मेला, जो देश की
सनातन संस्कृति से पूरे विश्व को परिचित करता है,
भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर है।
मंदिरों का नगर
यों तो पुष्कर की छोटी सी नगरी में 500 से अधिक मंदिर
है लेकिन प्रमुख मंदिरों से ब्रह्मा का 14वीं सदी में
बनाया गया मंदिर प्रमुख है। संगरमरमर की बनी सीढ़ियों
से ऊपर पहुँचकर मंदिर के गर्भगृह के ठीक सामने चांदी
का कछुआ बना हुआ है। कछुए के चारों तरफ संगमरमर के
फर्श पर सैकडों सिक्के जड़े हैं जिनपर दानदाताओं के
नाम खुदे हुए हैं। इसके अतिरिक्त दूसरा प्रमुख मंदिर
रंगजी मंदिर है। रंगजी को विष्णु का रूप माना जाता है।
मंदिर के दो भाग हैं- एक नया और दूसरा पुराना। नया
मंदिर हैदराबाद के सेठ पूरणमल गनेरीवाल ने 1823 में
बनवाया था। इस मंदिर का सौंदर्य द्रविड, राजपूत व मुगल
शैली के अद्भुत समागम के कारण है। एक और प्रसिद्ध
मंदिर सावित्री देवी का है। यह ब्रह्मा मंदिर के पीछे
एक पहाडी पर स्थित है। मंदिर तक पहुँचने के लिए कई
सीढियाँ चढनी होती हैं। मंदिर से नीचे पुष्कर सरोवर और
आसपास के गाँवों का मनमोहक दृश्य देखने को मिलता है।
ज्ञान अर्जना का भी केंद्र पुष्कर में एक प्रसिद्ध
मंदिर विद्या की देवी सरस्वती का भी है। वे नदी भी हैं
और उन्हें उर्वरता व शुद्धता का प्रतीक भी माना जाता
है। यही कारण है कि सदियों से लेखक, कलाकार अपनी-अपनी
कलाओं को निखारने के लिए पुष्कर आते रहे हैं। इनके
अलावा यहाँ बालाजी मंदिर, मन मंदिर, वराह मंदिर,
आत्मेश्वर महादेव मंदिर आदि भी श्रद्धा के प्रमुख
केंद्रों में से हैं। सरोवर के ही किनारे आमेर के राजा
मान सिंह का पूर्व निवास मन महल भी है। हालांकि अब इसे
राजस्थान पर्यटन विकास निगम के होटल के रूप में
परिवर्तित कर दिया गया है।
यहाँ आने वाले लोग कहते हैं कि पुष्कर नगरी में एक
जादू है जो लोगों को खींचता है। खास तौर पर मेले के
समय यहाँ आना एक यादगार अनुभव है। एक ऐसा अनुभव जो अगर
मौका मिले तो किसी हाल में चूकना नहीं चाहिए।
१५
नवंबर २०१० |