झीलों की नगरी उदयपुर से
मात्र अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर है- जगप्रसिद्ध एकलिंग
जी का मंदिर। इस मंदिर से थोड़ा पहले, कच्चे रास्ते पर
खड़े हैं वास्तुकला के बेजोड़ नमूने- सास-बहू के मंदिर।
इन्ही मंदिरों के आसपास कभी मेवाड़ राजवंश की स्थापना हुई
थी। इनकी पहली राजधानी थी- नागदा। नागदा के वैभव की याद
दिलाने में ये सास-बहू के मंदिर आज भी सक्षम हैं। मेवाड़
राज्य के संस्थापक बप्पा रावल ने अपना प्रारंभिक जीवन यहीं
नागदा में व्यतीत किया था।
मेवाड़ की यह प्राचीन
राजधानी नागदा तो आज ध्वस्त हो चुकी है, लेकिन किसी तरह से
यहाँ सास-बहू मंदिर बचे रह गए हैं। इन मंदिरों और नागदा के
ध्वंसावशेष के आधार पर यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा
कि यहाँ कभी उत्कृष्ट कला का विकास हुआ।
मेवाड़ राज्य अपने जन्म
से ही दिल्ली की आँख में चुभता रहा। दिल्ली के तत्कालीन
सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश ने तो इस पर आक्रमण कर इसे
ध्वस्त कर डाला।
मंदिर
सहस्रबाहु का
विक्रमी संवत ग्यारहवीं
शताब्दी के आसपास बने सास-बहु के इन मंदिरों के बारे में
अनुमान है कि मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने विष्णु का
मंदिर तथा बहू ने शेष नाग के मंदिर का निर्माण कराया।
सास-बहू के द्वारा निर्माण कराए जाने से इन मंदिरों को
सास-बहू के मंदिर के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन, एक
अन्य किंवदंती के अनुसार यहाँ पहले भगवान सहस्रबाहु का
मंदिर था, जिसका नाम सहस्रबाहु से बिगड़कर सास-बहू हो गया।
कारण जो भी रहा हो, आज ये मंदिर उस प्राचीन कला-संस्कृति
के उत्कृष्ट नमूने हैं, जो कभी यहाँ फली-फूली थी।
वास्तुकला के बेजोड़
नमूने ये दोनों मंदिर एक ही परिसर में स्थित हैं। आज दोनों
ही मंदिरों के गर्भगृहों में से देव प्रतिमाएँ गायब हैं।
मंदिर बनानेवाले कलाकारों ने तत्कालीन परंपरा के अनुसार
अपनी बारीक छैनी से समसामयिक जीवन व संस्कृति के अमर
तत्वों को इन मंदिरों में उकेरा है। दोनों ही मंदिरों के
बरामदों, तोरण-द्वारों व मंडपों को शिल्पकला के उत्कृष्ट
नमूनों से सजाया है।
मंदिर की बाहरी दीवारों
पर लगी सुर-सुंदरियों की प्रतिमाएँ नारी सौंदर्य का सजीव
वर्णन करती-सी प्रतीत होती हैं। नर-नारी जीवन-जगत की
गतिविधियों में शृंगार, नृत्य, क्रीड़ा और प्रेम आदि की
अभिव्यक्ति बड़े सुंदर ढंग से अंकित की गई हैं।
मिथुन-युगलों के बीच के प्यार-व्यापार को इतने सुंदर ढंग
से दर्शाया गया है कि नर-नारी मूर्तियाँ शारीरिक सौंदर्य
की पराकाष्ठा बन गई हैं।
कारीगरी, अद्भुत सूक्ष्म
नक्काशी व भव्यता की दृष्टि से इन दोनों मंदिरों की समानता
आबू पर्वत के जगप्रसिद्ध देलवाड़ा के मंदिरों व रणकपुर के
जैन मंदिर से की जा सकती है। लेकिन प्राचीनता की दृष्टि से
सास-बहू के मंदिर के प्रवेश-द्वार पर बने छज्जों पर
महाभारत की पूरी कथा अंकित है। इन छज्जों से लगे बायें
स्तंभ पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएँ हैं, जो खजुराहो की
मिथुन मूर्तियों से होड़ लेती-सी प्रतीत होती हैं। तोरणों
का अलंकरण तो देखते ही बनता है।
मंदिर
बहू का
बहू के मंदिर का सभामंडप
तो अपने आप में अनूठा है। प्रत्येक स्तंभ पर लगभग चार फुट
ऊँची, एक ही पत्थर से निर्मित प्रतिमाएँ लगी हुई हैं। ये
नारी प्रतिमाएँ उत्कष्ट कलात्मक रूप में नारी सौंदर्य को
दर्शाने के लिए उल्लेखनीय हैं। मंदिर के सामने एक ही भारी
पत्थर से बना तोरण है, जिसमें तीन द्वार हैं। सास-बहू के
दोनों मंदिरों के बीच में ब्रह्मा जी का मंदिर है। ब्रह्मा
जी का मंदिर दोनों से छोटा है, फिर भी वह दोनों से कम नहीं
है। इसके गुंबद को देखकर ऐसा लगता है मानो उसे बारीक जाली
से ढक दिया गया हो।
हालाँकि, सास-बहू के ये
मंदिर अपने समकालीन अन्य मंदिरों की तुलना में कहीं अच्छी
दशा में हैं, फिर भी उचित साज-सँभाल के अभाव में ये
धीरे-धीरे क्षरण का शिकार होने लगे हैं। समय के थपेड़ों ने
मंदिर की दीवारों व मूर्तियों पर कालेपन की परछायीं डालना
शुरू कर दी है। गर्भगृहों से आराध्य देवों की मूर्तियाँ
गायब हैं। जब आराध्य देवों की मूर्तियाँ ही गायब हों, तो
फिर मंदिर कैसा? राज्य पुरतत्व विभाग ने यहाँ एक नीला
सूचना-पट्ट लगाकर उन्हें संरक्षित स्मारक घोषित कर अपने
फ़र्ज़ से भी छुट्टी पा ली है। पर्यटन विभाग द्वारा ऐसे
दुर्लभ स्मारकों की ख़ैर-ख़बर रख पाना तो और भी दूर की बात
है। हालात, तो यहाँ तक बिगड़े हुए हैं कि उदयपुर स्थित
राज्य सरकार के पर्यटन अधिकारी पूछने पर भी इन मंदिरों के
बारे में किसी भी तरह की कोई जानकारी नहीं दे पाते। इन
हालातों में तो ऐसे लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जब कि
इन मंदिरों के खंडहर ढूँढ़े न मिलेंगे। |