गौरीकुंड से १४ किलोमीटर दूर मंदाकिनी के तट पर
स्थित पवित्र केदारनाथ धाम तक के दुर्गम मार्ग का कोई भी
यात्री यही वर्णन कर सकता है। चरम सुख को मृत्यु के भय के साथ
देखना हो, बर्फ़ीली हवाओं का आनंद लेना हो, तो इस जोखिमभरी
यात्रा का अनुभव आवश्यक है। केदारनाथ की ओर चलें तो
प्रकृति और वातावरण, दोनों में भारी अंतर है। नीचे मंदाकिनी
नदी बेताबी से बहती चली जाती है अलकनंदा से रुद्रप्रयाग में
मिलने। तीर्थयात्रियों के लिए यह यात्रा कौतूकतापूर्ण होती
है, परंतु यहाँ के निवासियों के लिए जीवन एक कठोर संघर्ष है।
एक ऐसा संघर्ष जो दिन-रात चलता रहता है, लेकिन फिर भी माथे
पर कोई शिकन नहीं।
पुण्यभूमिः
उत्तराखंड
उत्तराखंड धर्म के हिसाब से
चार धाम, पंचप्रयाग, पंचकेदार, पंचबदरी की पुण्यभूमि के रूप
में जाना जाता है। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ
चार धाम हैं। देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, सोनप्रयाग
एवं विष्णुप्रयाग नामक पाँच प्रयाग हैं। इनके अतिरिक्त भी
गंगा और व्यास गंगा का संगम व्यास प्रयाग, भागीरथी का संगम
गणेश प्रयाग नाम से प्रसिद्ध है। देवप्रयाग में अलकनंदा और
भागीरथी नदियाँ मिलती हैं। देवप्रयाग में इन दो नदियों के
संगम के बाद जो जलधारा हरिद्वार की ओर बहती है, वही गंगा है।
देवप्रयाग से पहले गंगा नाम का कहीं अस्तित्व नहीं है।
यात्रा दुर्गम भी है और रोचक भी। देवप्रयाग से ६८ किलोमीटर दूर दो पहाड़ियों के मध्य में
स्थित है रुद्रप्रयाग। रुद्रप्रयाग दो तीर्थयात्राओं का संगम
भी है। यहाँ से मंदाकिनी नदी के साथ चलकर केदारनाथ पहुँचते
हैं और अलकनंदा के किनारे चलकर बद्रीनाथ। पौराणिक मान्यता के
अनुसार पहले केदारनाथ की यात्रा करना चाहिए, उसके बाद
बदरीनाथ की। अगर दुर्गम पहाड़ियों को काटकर बनाए सर्पिल
रास्तों से न जाकर सीधे नाक की सीध में जाया जाए, तो वह दूरी
बीस कि.मी. से ज़्यादा नहीं।
गौरीकुंडः
जहाँ दो कुंड हैं
रुद्रप्रयाग से मंदाकिनी के
साथ-साथ गौरीकुंड का रास्ता है। कुल दूरी ६७ कि.मी. काफी
कठिन चढ़ाई है। एक ओर आकाश छूते पहाड़ हैं, तो दूसरी ओर तंग
घाटी। चढ़ाई प्रारंभ होने से पहले 'अगस्त्य मुनि' नामक कस्बा
है। इस रास्ते में प्रसिद्ध असुर राजा वाणासुर की राजधानी
शोणितपुर के चिन्ह भी मिलते हैं। फिर आता है गुप्तकाशी।
'काशी' यानी भगवान शंकर की नगरी। गुप्तकाशी मंदिर में
'अर्द्धनारीश्वर' के रूप में भगवान शंकर विराजमान हैं।
गुप्तकाशी से २० कि.मी. आगे स्वर्णप्रयाग है, जहाँ स्वर्ण
गंगा मंदाकिनी से मिलती है। आगे 'नारायण कोटि' नामक गाँव
हैं। यहाँ देव मूर्तियाँ खंडित अवस्था में प्राप्त हुई हैं।
पूजा-पाठ व
श्राद्ध
शाम होते-होते हम गौरीकुंड
पहुँचते हैं जो गुप्तकाशी से ३३ किलोमीटर की दूरी पर और
समुद्र से ६८०० फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ का पर्वतीय
दृश्य बहुत लुभावना है। देश के कोने-कोने से तीर्थयात्री
यहाँ पहुँचते हैं। कुछ विदेशी पर्यटक भी देखे जा सकते हैं।
यहाँ पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का विश्रामगृह है। इसके
अतिरिक्त कई छोटे-मोटे होटल और धर्मशालाएँ भी हैं। गौरीकुंड
को पार्वती के स्नान करने की जगह बताया जाता है। यह भी कहते
हैं कि यहाँ गौरी ने वर्षों तप कर भगवान शिव के दर्शन किए
थे। यहाँ दो कुंड हैं। एक गरम पानी का कुंड है। इसे 'तप्त
कुंड' कहते हैं। इसमें नहाकर
ही यात्री आगे बढ़ते हैं।
महिलाओं के नहाने के लिए अलग से व्यवस्था है। गंधक मिले इस
पानी को चर्म रोगों के लिए प्रकृति सुलभ उपचार माना जाता है।
गंधक के कारण ही यह पानी गरम रहता है। इस तरह के 'तप्त कुंड' बदरीनाथ सहित अनेक स्थानों पर पाए गए हैं। पास ही ठंडे जल का
कुंड है। इसमें पीले रंग का जल है, पर यहाँ नहाना मना है।
यहाँ पर पंडों द्वारा पूजा-पाठ व श्राद्ध की क्रिया पूर्ण की
जाती है। इससे लगा हुआ गौरी का एक मंदिर भी है।
देवलोक की
यात्रा
सवेरे सात बजे हम केदारनाथ
को चल पड़ते हैं। गौरीकुंड से हज़ारों फुट की कठिन चढ़ाई
चढ़कर यहाँ पहुँचा जाता है। रास्तेभर पत्थर का खड़ंजा बिछा
है परंतु फिर भी इस रास्ते में चलना आसान नहीं है। यहाँ का
खच्चर व्यवसाय जिला पंचायत के कब्ज़े में हैं और यही शुल्क
तय करता है। जिला पंचायत ने आने-जाने के
लिए पाँच सौ रुपया प्रति खच्चर तय किया है। नीचे से खिसकती
ज़मीन में पैर जमाते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। कभी सीधी चढ़ाई
तो कभी ढलान जिसमें व्यक्ति न चाहते हुए भी भागता चला जाए।
पहाड़ों में उतरना भी उतना ही कठिन है जितना चढ़ना। शायद
इन्हीं संकटों के कारण इस यात्रा को 'देवलोक की यात्रा' कहा
गया होगा। यात्री जब मंदाकिनी की चंचल धारा में स्नान कर
केदारनाथ धाम के सुरम्य वातावरण में पहुँचते हैं और उनके
शरीर से बादल स्पर्श करते हैं तो उन्हें यहाँ के कण-कण में
भोलेनाथ की उपस्थिति का अहसास होता है।
बरफ में
लिपटी घाटी
आखिर हम पहुँच जाते हैं बरफ
में लिपटी एक विस्तृत घाटी में जिसके मध्य में केदारनाथ धाम है।
सौंदर्य से भरी-पूरी घाटी और बर्फ़ ओढ़े विशाल शिखरों को
देखकर मन बिना योग सिद्धि के साधना में रम जाता है। पर्वतमालाओं से बहते झरनों का तालबद्ध स्वर यात्रा की सारी
थकान हर लेता है। चारों ओर बर्फ़ीली हवाओं का साम्राज्य है। केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे
हिमाच्छादित चोटियाँ हैं और उसके ठीक नीचे हिमनद से मंदाकिनी
नदी निकल रही है। यह वह भू-भाग है, जो हिमालय के नाम को
सार्थक करता है। हिमालय अर्थात 'हिम का घर'।
जहाँ
नीलकंठ विराजते हैं
केदारनाथ में भगवान शिव का
निवास है। यह सिद्धपीठ है। भगवान शिव के ग्यारहवें
'ज्योतिर्लिंग' के रूप में प्रसिद्ध केदारनाथ को स्कंदपुराण
एवं शिवपुराण में केदारेश्वर भी लिखा गया है। स्कंदपुराण के
अनुसार आदिकाल में हिमवान हिमालय से पीड़ित होकर देवता, यक्ष
एवं ब्रह्मा शिवजी की शरण में गए। तब शिवजी ने हिमालय को
शैलाधिराज प्रतिष्ठित किया और देव, यक्ष, गंधर्व, नाग व
किन्नरों के लिए अलग-अलग स्थान नियत किए। शैलराज को
प्रतिष्ठित कर भगवान शिव भी लिंग रूप में वहीं मूर्तिरूप हो
गए तथा केदारनाथ नाम से प्रसिद्ध हुए। एक अन्य पौराणिक कथा के
अनुसार महाभारत युद्ध के पश्चात पांडव गोत्रहत्या से मुक्ति
के लिए भगवान शिव के दर्शन हेतु इस क्षेत्र में आए। इसीलिए
केदार सहित ये स्थान 'पंच केदार' के नाम से विख्यात हुए।
शिवतत्व की
प्राप्ति
'द्वादश ज्योतिर्लिंगों'
में ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात केदारनाथ की
पूजा जाड़ों में ऊखीमठ में होती है, क्यों कि बर्फ़ पड़ने के
कारण जाड़ों में मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। कहा
जाता है कि केदारनाथ के दर्शन करनेवाला व्यक्ति 'शिव तत्व'
को प्राप्त कर लेता है। शायद ही किसी पर्वतीय क्षेत्र में
ऐसा सुरम्य वातावरण हो जैसा केदारनाथ धाम का है। यही कारण है
कि यहाँ जो भी आता है, वह उत्साह से भरा होता है और जब लौटता
है तो प्रकृति की अनुपम निधि बटोरकर वापस जाता महसूस करता
है।
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