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गौरवशाली ग्वालियर
—पर्यटक
ग्वालियर का
किला-
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भारतीय
इतिहास के उस महत्त्वपूर्ण काल–खंड में, जिसे मध्ययुग कहते
हैं, अनेक ऐसे ग्रन्थ लिखे गए जिनमें उस प्रमुख भू–भाग की,
जिसे मध्यदेश कहा जाता था, बोली–ठोली, साहित्य, कला, संस्कृति,
प्रथा–परम्पराओं, चिन्तन–मनन, आचार–विचार, व्यवहार
आदि की पर्याप्त जानकारी मिलती है।
ग्वालियर का महत्त्व केवल इसी कारण नहीं है कि यह एक अति
प्राचीन नगर है बल्कि इसलिए है कि भारतीय इतिहास के हर काल–खंड
में यह एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में जगमगाता रहा
है। साहित्य, संगीत, काव्य, चित्रकला, स्थापत्य, शिल्प,
हस्तकला आदि सभी में ग्वालियर ने अपनी बुलंदियों की वजह से
सारे जहाँ में नाम रौशन किया है। यह नगर एक दूसरे से मिली हुई
तीन शहरी आबादियों से निर्मित हैं। पहला है प्राचीन नगर
ग्वालियर। दूसरा है लश्कर, जिसे सन् १८०० के लगभग महाराजा
दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी और निजी सेना के कैंप के लिए
बड़े चाव से निर्माण किया था। तीसरा है मुरार, जो किले के पूरब
में हैं और इसे अंग्रेजों द्वारा सैनिक छावनी के रूप में उपयोग
किया जाता था। सिंधिया राजाओं द्वारा बनवाई गई देशी–विदेशी
स्थापत्य शैलियों की शानदार और भव्य इमारतों से सजा बहुत खूबसूरत
शहर और मध्यप्रदेश का महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक एवं व्यापारिक
केन्द्र हैं।
ग्वालियर के समीप ऐतिहासिक कस्बा आंतरी है। तानसेन के प्रथम
संगीत गुरू गोविंद स्वामी यहीं के थे, दरबारे– अकबरी का एक
चमकीला रत्न यानी अबुल फज़ल चिर निद्रा में यहाँ सो रहा है।
पन्द्रहवीं शती तक मध्यप्रदेश का संगीत इतना विकसित तथा
प्रसिद्ध हो चुका था कि ग्वालियर की तान और मुल्तान की कमान
जैसी लोकोत्तियाँ लोगों की जबान पर चढ़ गई थीं। यही वह जमाना था
जब संगीत–सौन्दर्य व कलारसिक राजा मानसिंह की संगीत सभा
ग्वालियर दुर्ग पर अपनी पूरी आन–बान व शान के साथ जमती थी। इसी
संगीत सभा में ध्रुवपद यानी ध्रुपद का जन्म हुआ।
अब
आइए,
ग्वालियर के किले की ओर
चलें जहाँ कभी राजा मानसिंह की संगीत सभा जुड़ती थी और
गीत–संगीत की सुरीली स्वर लहरियों से ज़मीन–आसमान झूमते थे।
ग्वालियर दुर्ग - (वृहदाकार के लिए चित्र को क्लिक करें)
ग्वालियर किले का निर्माण कब और किसने कराया इसे लेकर जो
किंवदंतियाँ हैं उनमें प्रमुख यह है कि किसी ज़माने में
कच्छवाहा राजा सूर्यसेन कोढ़ से पीड़ित था। मृगया–विहार करता वह
इस इलाके में आ निकला। यहाँ उसकी भेंट इस पहाड़ी पर तपस्यारत
ऋषि गालव, जिनका उल्लेख ग्वालिय नाम से भी मिलता है, से हुई।
उनकी कृपा–दृष्टि से सूर्यसेन रोगमुक्त हो गया और उसी ने गालव
ऋषि के नाम पर ग्वालियर के किले का निर्माण कराया और जो बस्ती
आबाद की उसका नामकरण किया
ग्वालिआवर। यही बाद में ग्वालियर नाम से मशहूर हो गया। भारत के
सुप्रसिद्ध, अजेय और प्रमुख किलों में से एक हैं ग्वालियर
दुर्ग। इसका प्राकृतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सामरिक
महत्त्व भारत के तमाम दुर्गों में अप्रतिम व अद्वितीय है।
उत्तर से दक्षिण तक १ मील ६ फर्लांग लंबी, ३०० फुट ऊंची और ६००
से लेकर २,८०० फुट तक चौड़ी बलुआ पत्थर की पहाड़ी के एक समतल
बनाये गए।
किले में स्थित महल मान मंदिर
शिखर भाग पर, ३५ फुट ऊंची सुदृढ़ दीवारों से निर्मित यह आज भी
सर बुलन्द खड़ा है। यही वह खूबसूरत किला है जिसे विद्वानों ने
उत्तर भारत के तमाम किलों में सबसे मनोरम माना व बताया है।
मुगल बादशाह बाबर ने इसे हिन्दुस्तान के अन्य किलों में मोती
बताया है। कभी यहाँ अनेक मंदिर थे जिनमें से अब कुछ ही दर्शनीय
रह गए हैं। ग्वालियर नगर के किला–गेट से जब हम भीतर प्रवेश कर
मुख्य द्वार की ओर बढ़ते, ढलवां चढ़ाई चढ़ते हैं तो दाहिनी और
चट्टानी कन्दराओं में बनी कुछ गुफाएं
नज़र आती है। यह कभी
जैन–साधकों की ध्यान–साधना के उपयोग में आती थीं। कुछ और चढ़ाई
चढ़ने पर रास्ते के दाहिनी तरफ पहाड़ी के कदमों में खिड़की जैसी
नज़र आती है। भीतर झांकने पर पता चलता है कि जल भंडारण की क्या
बढ़िया कुदरती ढकी हुई व्यवस्था है।
किले के मुख्य द्वार में प्रवेश करने के बाद सबसे पहले विशाल
मान मंदिर हमारा स्वागत करता है। यह राजा मानसिंह ने बनवाया
था। इसके अन्तर्गत कभी बेहद खूबसूरत छः आलीशान महल थे। इसी के
बगल में हैं मानसिंह की परिणीता
रानी मृगनयनी का महल–गूजरी
महल। इसके तहखाने व शीशमहल आज भी अपनी खामोशी में न जाने कितनी
रंगीन दास्तानें छुपाए हुए हैं। गूज़री महल स्थित राजकीय
संग्रहालय में प्राचीन मूर्तियों व प्रस्तर–प्रतिमाओं का बहुत
बढ़िया संग्रह हैं।
तेली
का मंदिर
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सास बहू का
मंदिर और तेली का मंदिर भारत की प्राचीन वास्तुकला के
बेहतरीन नमूने हैं। एक और आलीशान व सौम्य इमारत हमें अपनी ओर बुलाती है। यह है सास
बहू का मंदिर। इसमें अब कोई प्रतिमा नहीं है किन्तु इसका एक–एक
कोना अपनी कलात्मकता के कारण हमारा मन मोह लेगा। जब हम आगे
चलते हैं तो इस प्राचीन किले की अत्याधुनिक शोभा, नव–निर्मित
भव्य गुरूद्वारा है, जो बहुत विशाल होने के बावजूद इतना सुन्दर
है कि देखने से आंखों में ठंडक पड़े और तबियत न भरे। यहाँ से
चहल कदमी करते जब हम आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं सिर उठाए खड़ा,
दक्षिण भारतीय शैली में बना, गगन चुम्बी, तेली का मंदिर उर्फ
तेली की लाट।
और
आगे बढ़ने पर किले का पिछला द्वार दिखाई देगा। इतनी ऊंचाई पर
रेल के आने–जाने की व्यवस्था कैसी हैरानी की बात है। उरवाई गेट
के बाहर पहाड़ी की दैत्याकार चट्टानों को तराशकर बनाई गई ३०–३५
फुट की ऊंची जैन–प्रतिमाएं देखकर आश्चर्य होता है।
ग्वालियर नगर में किला गेट से बाहर आ जाने पर थोड़ी ही दूर
स्थित है अकबर कालीन सुप्रसिद्ध सूफी संत और तानसेन के
पीरो–मुर्शिद हज़रत मुहम्मद गौस का विशाल शानदार मकबरा जो
मुगलकालीन मकबरा शैली का बेहतरीन नमूना है। अपने गुरू के चरणों
में है तानसेन की सादा व शांत समाधि।
किले
की सैर कर या रेलवे स्टेशन से लश्कर की ओर आते हैं तो रेलवे
ओवर ब्रिज से उतरते ही झांसी की वीर रानी लक्ष्मीबाई का स्मारक
है। घोड़े पर सवार, तलवार ताने, रानी की प्रतिमा से तेज, ओज और
शौर्य की एक खास वीरोचित शान फलकती है।
मुहम्मद गौस का
मकबरा
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रानी लक्ष्मीबाई के स्मारक के ठीक सामने हैं महाराजा ग्वालियर
द्वारा बनवाया गया शानदार बाग जो कभी किंग जार्ज पब्लिक पार्क
कहा जाता था। फिर इसका नाम फूल बाग पड़ा और अब है – गाँधी
उद्यान। यहाँ संगमरमर से बनी ऐतिहासिक मोती मस्जिद, राधा कृष्ण
का खूबसूरत मंदिर, थियोसोफिकल लॉज, ऐतिहासिक गुरूद्वारा
सर्वधर्म सद्भाव का पैगाम सुनाते हैं। मोती महल स्थित राजकीय
संग्रहालय में देश–विदेश के अजूबे देखें जा सकते हैं। एक विशाल
तालाब और सिंधिया परिवार के दो बुजुर्गों की संगमरमर से बनी
मूर्तियाँ भी नयनाभिराम हैं।
गांधी उद्यान से निकलकर इन्द्रगंज के चौराहे पर विशाल
अश्वारोही सिंधिया नरेश का शानदार श्यामवर्ण मूर्तिशिल्प हमें
अपनी ओर बुलाता लेता है। निकट ही हाईकोर्ट भवन की खूबसूरती का
भी जायज़ा लेते चलें तो और अच्छा। हाईकोर्ट भवन से बायीं ओर की
सड़क हमें महाराजा ग्वालियर के मौजूदा राजसी आवास जय विलास महल
ले जाएगी। इसी महल का एक भाग है – जीवाजी म्यूजियम। जय विलास
पैलेस के सामने चौड़ी–ठंडी–शांत सड़क के किनारे कटोरा ताला में
वीर सावरकर की शानदार प्रतिमा हैं। सामने है सिंधिया राज
परिवार की विशाल कलात्मक छत्री और विस्तृत पार्क। दो सौ वर्ष
पूर्व बसाये गए शहर लश्कर का कनॉट प्लेस है महाराज बाड़ा उर्फ
बाड़ा। लश्कर के कई प्रमुख बाजार यहाँ एक दूसरे से गले मिलत
हैं। सुबह सवेरे से रात देर तक यहाँ रौनक और चहल–पहल रहती है।
महाराज बाड़ा यानी बाज़ारों का संगम। सुबह सवेरे से देर रात तक
यहाँ रौनक और चहल पहल रहती है।
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दिल्ली चौबीस
ख्वाजाओं की चौखट मशहूर रही है। किन्तु सरज़र्माने–ग्वालियर में
इससे भी अधिक लगभग चालीस
सूफी–संत और पीर–औलिया चिरविश्राम में लीन हैं। मस्जिदों के
सिलसिले में सबसे पहले उल्लेखनीय है ग्वालियर नगर स्थित,
औरंगज़ेब के सूबेदार मोअतमिद खां द्वारा संगमरमर से निर्मित,
जामा मस्जिद। शहरी आबादी से परे, पहाड़ी की पथरीली चट्टानों से
हिम धवल चाँद की भांति झरता रामसनी का झरना बारिश के सुहाने
मौसम में अपनी बहार दिखाता है। १६ वीं शती ईसवीं में जब
ग्वालियर मालवा राज्य का एक प्रमुख नगर था, तब यह पत्थर पर
नक्काशी के कलात्मक काम, पकी मिट्टी के चमकीले खपरैल, कीमती
धातुओं के गहने बनाने, सुन्दर बर्तन बनाने और जेवरों तथा
बर्तनों पर मुनब्बतकारी के कार्य के लिए खास तौर से प्रसिद्ध
था। कालान्तर में कुछ पुराने उद्योग मिटते और उनकी जगह नये
उद्योग लेते गए। यह ज़माना कुछ बहुत पीछे नहीं छूट गया जब यहाँ
के मेसर्स जे.बी.मंघाराम
एंड कंपनीने चॉकलेट तथा बिस्कुट उत्पादक के रूप में भारत से
बाहर भी शोहरत पायी थी।
आज भी ग्वालियर में बढ़िया किस्म की बेकरी का उत्पादन होता है।
इसके अलावा चीनी मिट्टी के बर्तन व उत्कृष्ट क्राकरी के लिए
ग्वालियर पॉटरीज, इंजीनियरिंग के साजो–सामान के लिए ग्वालियर
इंजीनियरिंग वक्र्स और सिमको चमड़े की वस्तुओं के लिए यहाँ का
कारखाना, बहुमूल्य व सुन्दर गलीचों व कालीनों के लिए ग्वालियर
की अपनी धाक रही है। किसी वक्त जीवाजी राव कॉटन मिल्स के
वस्त्र उत्पादन और ग्वालियर रेयन ने भारत के वस्त्रोद्योग में
जितनी धाक जमायी थी उससे कई गुना आगे बढ़कर ग्वालियर सूटिंग्स
एंड शर्टिंग्स और जीवाजी सूटिंग्स ने अपनी गुणवत्ता से सारी
दुनिया में नाम कमाया और इस शहर का नाम विदेशों तक चमकाया है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ग्वालियर महज़ एक प्राचीन–ऐतिहासिक
नगर मात्र का नाम नहीं। सुनहले अतीत और रूपहले वर्तमान दोनों
की हसीन गंगा–जमुनी झलक पेश करती, रिवायती तेहजीब–शान–शौकत और
सांस्कृतिक खूबियाँ अपने दामन में समेटे एक पूरी दुनिया का नाम
हैं। इसमें वह सब कुछ है जो हर एक को सुहाता–भाता और मन मोहता
है।
सास बहू का मंदिर (वृहदाकार के लिए चित्र को क्लिक करें)
अंत
में एक खास बात। जब भी ग्वालियर आएं, यहाँ की मिठाइयाँ रबड़ी,
पेड़े, कलाकन्द और लष्कर की खास सौगात मिसरी–मावा का स्वाद लेना
और सुबह नाश्ते में जलेबी–कचौड़ी, समोसा खाना न भूलें। सर्दियों
के मौसम में बाड़े पर बिकती खस्ता और खुशबूदार गजक कहीं और खाने
को तो क्या स्वाद के लिए भी नहीं मिलेगी।
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