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कनाडा में
भारतीय मूल के निवासी
डा सत्येन्द्र नाथ राय
वर्ष
१९०३ में भारतीयों का पहला दल कनाडा के वैंकुअर शहर में
बसने के उद्देश्य से आया था। इसमें कुल दस सिख थे। वे लोग
पंजाब से आये थे। इनमें कुछ खेतिहर थे और कुछ सेना से
अवकाश प्राप्त सैनिक थे। इन लोगों की शिक्षा नहीं के बराबर
थी। ये लोग हाँगकांग से होते हुए प्रशांत महासागर से होकर
आये थे। यद्यपि ये लोग सिख धर्म के थे, परंतु इन्हें 'भारत
का हिंदू' कहा जाता था। जब १९६० में मैं वैंकुअर आया था,
उस समय यह शब्द बहुत प्रचलित था, भारत से आये किसी भी
व्यक्ति को भारत का हिंदू ही कहते थे। अब ऐसा नहीं हैं।
आजकल लोग गुजराती, मद्रासी, सिख या मुसलमान कहकर पुकारते
हैं। यह परिवर्तन इसलिए हुआ है कि भारतीयों की संख्या अब
बहुत ज्यादा हो गई है और यहाँ के लोगों को उनके बारे में
जानकारी भी अच्छी हो गई है।
इसके बाद वर्ष १९०४ में देवीचंद्र नाम के एक ब्राह्मण जो
पंजाब के रहनेवाले थे, अपनी पत्नी के साथ अमेरिका होते हुए
कनाडा के वैंकुअर शहर पहुँचे थे। कनाडा का पश्चिमी तट जहाँ
वैंकुअर शहर है वहाँ ठंडक कम पड़ती है, क्योंकि जापान से
गरम पानी की एक धारा प्रशांत महासागर से होकर यहाँ आती है,
जो इस भाग को गरम रखती है। श्री देवीचंद्र ने एक यात्री
सेवा का व्यवसाय करके दो साल के अंदर ४३२ भारतीयों को
कनाडा बुला लिया था। इतने कम समय में इतने ज्यादा भारतीय
चेहरे गोरों की नज़रों में खटकने लगे थे। सरकार ने श्री
देवी चंद्र को गिरफ्तार कर लिया। क्योंकि ये धनी व्यक्ति
थे, इसलिए इन्होंने अपनी जमानत करवा ली। वर्ष १९०७ के जुलाई
महीने में इन्हें कनाडा छोड़कर भारत जाना पड़ा। उस समय की
सरकार चाहती थी कि कनाडा गोरे लोगों का ही देश बना रहे।
भारतीय मूल के आप्रवासी जो प्रारंभ में कनाडा आये थे, वे
अधिकतर साक्षर नहीं थे। इसलिए ये लोग लकड़ी की मिलों में,
सड़क बनाने के काम में या रेलवे लाइन बिछाने के काम में
नौकरी करते थे। इनका एकमात्र उद्देश्य कुछ पैसे बचाकर
हिंदुस्तान अपने घर भेजना था।
भारतीयों की पहली संस्था
वर्ष १९०७ में कनाडा में पहली बार भारतीय मूल के लोगों की
एक संस्था रजिस्टर्ड हुई जिसका नाम था 'वैंकुअर खालसा
दिवान सभा'। प्रारंभ में इस सभा का कार्य क्षेत्र धार्मिक
था, परंतु कुछ समय के बाद अपने समुदाय के लोगों पर हो रहे
अत्याचार का विरोध करना भी इनके कार्यक्रम में शामिल हो
गया। इसी साल संयुक्त राज्य अमेरिका से होकर एक
क्रांतिकारी बंगाली सज्जन वैंकुअर पहुँचे जिनका नाम तारक
नाथ था। इन्होंने 'हिंदुस्तानी एसोसिएशन' का गठन किया और
एक समाचार पत्र 'आजाद भारत' के नाम से निकाला था। ये एक
समर्पित स्वतंत्रता सेनानी थे। इनका मुख्य उद्देश्य
भारतीयों को देश की आजादी के लिए संगठित करना था।
वर्ष १९१० में कनाडा सरकार ने ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत की
सलाह पर एक कानून बनाया जिसमें कहा गया था कि भारत का वही
व्यक्ति कनाडा में प्रवेश कर सकता है जो सीधे भारत से
कनाडा तक की यात्रा करके आया होगा, इसे 'अविछिन्न यात्रा'
कानून कहते थे। इसके साथ ही उन्हें प्रति व्यक्ति २०० डॉलर
की अप्रवासी फीस देनी होगी। कानून बनानेवाले यह भलीभाँति
जानते थे कि कोई भी जहाज सीधे भारत से कनाडा नहीं आता। इस
कानून के कारण वे लोग भी कनाडा वापस नहीं आ सके जो कुछ समय
के लिए भारत गये थे। जिन लोगों की पत्नियाँ और बच्चे भारत
में थे वे परिवार भी कनाडा नहीं आ सकते थे। इस प्रकार
भारतीय लोगों का कनाडा में आना करीब–करीब समाप्त हो गया।
यह कानून १९२४ तक यथावत बना रहा। १२ जनवरी वर्ष १९११ का दिन
कनाडा में बसनेवाले भारतीयों के लिए एक ऐतिहासिक दिन था।
इसी दिन एक भारतीय नारी ने कनाडा की धरती पर एक भारतीय
शिशु को जन्म दिया। श्री उदय राम एक पंसारी की दुकान चलाते
थे। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती उदय राम भी इनके काम में हाथ
बँटाती थीं। ये लोग अमेरिका से सीमा पार करके कनाडा
पहुँचे थे।
जब बच्चे के जन्म का समाचार अधिकारियों तक पहुँचा तो ये
लोग बहुत सक्रिय हो उठे और तत्काल जाँच–पड़ताल शुरू हुई कि
इस दंपत्ति ने कैसे कनाडा में प्रवेश पाया। श्री उदय राम
एक चतुर व्यापारी थे। उन्होंने हापकिन्स नामक एक अधिकारी
को कुछ खिला–पिला कर अपना केस दुरुस्त करवा लिया।
वर्ष १९१४ में एक जहाज में सवार होकर भारतीय यात्री कनाडा
आने के लिए वैंकुअर पहुँचे। ये लोग जिस जहाज में सवार होकर
आये थे, उस जहाज का नाम 'कामा गाटा मारू' था। मारू शब्द का
मतलब जापानी भाषा में जहाज होता है। इस 'कामा गाटा मारू'
की कहानी डॉ. डी. पांडिया ने १९६० में वैंकुअर में सुनायी
थी। डॉ. पांडिया दक्षिण भारत से आये एक प्रसिद्ध वकील व
सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने इस मामले में भारतीय
समुदाय की तरफ से बहुत परिश्रम किया था। इस मामले को लेकर
वे कई बार वैकुअर से ओटवा आये–गये थे। जब डॉ. पांडिया ने
यह कहानी समाप्त की तो सुनानेवाले और सुननेवाले दोनों की
आंखें नम थीं। इस कहानी को कामा गाटा मारू की दर्दनाक घटना
के नाम से जाना जाता है।
कहानी 'कामा गाटा मारू' की
पंजाब का एक सिख जो कनाडा से आठ साल कमाकर पंजाब लौटा था,
उसके बारे में लोगों को मालूम हुआ कि वह आठ साल में १५
हजार रूपया बचाकर लाया है। यह खबर पंजाब के गाँव–गाँव में
फैल गई। इसके बाद वहाँ का नवयुवक वर्ग कनाडा आने के लिए
व्यग्र हो उठा। क्योंकि भारत से कनाडा कोई पानी का जहाज सीधे
नहीं आता था, इसलिए ये नवयुवक हाँगकांग में आकर कनाडा आने
का माध्यम ढूँढ रहे थे। हाँगकांग की कोई जहाज की कंपनी
भारतीयों को कनाडा का टिकट नहीं बेच रही थी, क्योंकि कनाडा
सरकार का ऐसा आदेश था। ये नवयुवक हाँगकांग के गुरूद्वारे
में और उसके आसपास ठहरे हुए थे।
इसी समय गुरूदीत सिंह नामका एक सरदार हाँगकांग पहुँचा, जो
मलेशिया में मजदूर भेजने का ठेकेदार था। जब उसने इन
नवयुवकों की कहानी सुनी तो उसने तय किया कि वह इन नवयुवकों
और अन्य यात्रियों को लेकर कनाडा पहुँचाएगा। ऐसा करने के
पीछे उसके दो उद्देश्य थे। एक उद्देश्य था पैसा कमाना और
दूसरा था इन नवयुवकों की मदद करना। गुरूदीत सिंह एक कुशल
व्यवसायी और बातचीत करने में बहुत ही निपुण व्यक्ति था।
उसने हाँगकांग में ही एक जापानी यात्री जहाज भाड़े पर तय
किया। इसी जहाज का नाम कामा गाटा मारू था। यह जहाज पुराना
था और काफी दिनों से हाँगकांग के बंदरगाह में पड़ा हुआ था।
गुरूदीत सिंह ने जहाज की कंपनी से कहा कि वह कुछ पैसा अभी
देगा और शेष २७००० डॉलर कनाडा पहुँचने पर अदा करेगा। इस पर
कंपनी जहाज देने को तैयार हो गई। कंपनी ने जहाज और जहाज
के कर्मचारी दिये। खाने की सामग्री, ईंधन तथा पानी गुरूदीत
सिंह को जुटाना था।
गुरूदीत ने सोचा कि कनाडा पहुँचने पर प्रति यात्री २००
डॉलर की अप्रवासी फीस वहाँ के भारतीयों से लेकर अदा की
जाएगी। जहाज का किराया भी यदि कम हुआ तो उन लोगों से लेकर
दिया जाएगा। ऐसी योजना बनाकर उसने पैसे लेकर टिकट बेचने
शुरू किये। शीघ्र ही उसे हाँगकांग से १६५ यात्री मिल गये।
उसने एक भारतीय गदर पार्टी के व्यक्ति को अपना सचिव
नियुक्त किया। एक सिख डॉक्टर को भी यात्रियों में रखा और
एक ग्रंथी (पुजारी) और दो गाना गानेवालों को यात्रियों
में लिया।
यह जहाज ५ अप्रैल वर्ष १९१४ को १६५ यात्रियों को लेकर शंघाई
के लिए रवाना हुआ। शंघाई में उसको १११ यात्री मिले, वहाँ
से जहाज मोजी के बंदरगाह पर गया, जहाँ ८६ यात्री सवार हुए।
उसके बाद जहाज याकोहामा के बंदरगाह पर गया, जहाँ पर १४
यात्री और जहाज पर सवार हुए। इस प्रकार जहाज पर कुल ३७६
यात्री सवार हुए। जहाज की हालत बहुत जर्जर थी। उसमें केवल
पांच शौचालय थे, जो टूटे–फूटे हाल में थे। कमरों की हालत
भी दयनीय थी। अधिकतर यात्री जहाज के ऊपरी हिस्से पर (डेक)
खाना बनाते थे और सोते भी थे। इस जहाज को याकोहामा से
कनाडा के वैंकुअर बंदरगाह पहुँचने में करीब सात हफ्ते लगे।
यह जहाज २९ मई को कनाडा के वैंकुअर बंदरगाह
पर पहुँचा। जब जहाज वैंकुअर के बंदरगाह पर पहुँचा तो कनाडा
के अप्रवासी अधिकारियों ने उसे बंदरगाह से कुछ दूर पर ही
रोक दिया और जहाज के ऊपर एक बंदूकधारी सिपाही को तैनात कर
दिया। जिससे जहाज के यात्री किसी बाहरी व्यक्ति से संपर्क
न कर सकें। सवारियों को नीचे उतरने से मना कर दिया गया।
गुरूदीत सिंह ने अधिकारियों से कहा कि वह एक ब्रिटिश राज्य
का नागरिक है और उसे किसी भी ब्रिटिश राज्य के बंदरगाह पर
उतरने का हक है। परंतु उसकी बात का अधिकारियों पर कोई असर
नहीं हुआ।
२२ लोगों को कनाडा में आने की अनुमति
इसके पश्चात कनाडा के अप्रवासी अधिकारी जहाज पर गये और सब
यात्रियों के कागजात देखने के बाद केवल २२ यात्रियों को
उतरने की अनुमति दी। ये यात्री कनाडा वापस आ रहे थे, इसलिए
इनको उतरने दिया गया। शेष यात्रियों को जहाज पर ही रहने को
कहा गया। उनको यह भी कहा गया कि उन्हें ज्यों ही देश से
निर्वासित करने का हुक्म मिलेगा, उन्हें तुरंत वापस जाना
होगा। अधिकारियों ने अपना इरादा बना लिया था कि इन
यात्रियों को वापस जाना ही होगा तथा किसी भी कीमत पर
इन्हें उतरने नहीं दिया जाएगा।
गुरूदीत सिंह ने बहुत होशियारी से एक पत्र जहाज के जापानी
कर्मचारी के द्वारा गुरूद्वारा के सचिव मीत सिंह तक भिजवा
दिया। पत्र में कहा गया था कि कृपया एक वकील करके हम लोगों
की तरफ से न्यायालय में एक याचिका दाखिल करवा दें।
गुरूद्वारा के लोगों ने बहुत तत्परता दिखायी और शीघ्र ही
२०,००० डॉलर इन लोगों की भलाई के लिए इकठ्ठा किये और एक
मशहूर वकील श्री एडवर्ड जे.बर्ड को तय किया।
सरकारी वकील ने सोचा कि यदि एक–एक यात्री को बुलाकर कचहरी
में पेश किया गया तो बहुत लंबा समय लगेगा, इसलिए यात्रियों
से कहा गया कि वे अपना एक प्रतिनिधि भेज दें जिसके माध्यम
से उनका मुकदमा सुना जाएगा। यात्रियों ने मुंशी सिंह नामक
एक नवयुवक को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।
अब तक जहाज में गंदगी बहुत फैल चुकी थी। अधिकारियों ने
जहाज का कूड़ा बाहर ले जाने से मना कर दिया। पीने का पानी
समाप्त हो रहा था और खाने की सामग्री भी घटती जा रही थी।
कई यात्री बीमार हो गये और उन्हें किसी प्रकार की चिकित्सा
सुविधा नहीं प्रदान की गई, जिसके फलस्वरूप एक यात्री की
मौत हो गई।
उस समय वैंकुअर से जो पार्लियामेंट का सदस्य था, उसका नाम
श्री स्टीफेंस था। वह एशिया से आनेवाले अप्रवासियों का घोर
विरोधी था। स्टीफेंस इस प्रयास में लगा था कि ये यात्री
किसी हालत में यहाँ उतरने न पाये और इन्हें वापस भेज दिया
जाए।
बचे भारतीयों को निकालने का निर्देश
मुंशी सिंह २३ जून को जांच करनेवाली कमेटी के सामने पेश
हुआ। इस कमेटी ने उसी दिन अपना फैसला सुना दिया कि मुंशी
सिंह और अन्य यात्रियों को निर्वासित किया जाए। फिर तुरंत
विक्टोरिया शहर के न्यायालय में ५ जजों के सामने अपील की
गई। जजों का भी यही फैसला रहा। अधिकारियों का ध्यान जब इस
बात की ओर दिलाया गया कि जहाज पर पानी और खाने की सामग्री
समाप्त हो गई है तो उन्होंने कुछ भी देने से मना कर दिया।
उन्होंने कहा कि जब जहाज समुद्र के अंदर अंतर्राष्ट्रीय
सीमा में चला जाएगा, तब इन चीजों की पूर्ति की जा सकती है,
परंतु गुरूदीत सिंह इस पर अड़ा रहा कि जब तक ये चीजें उसे
नहीं मिल जातीं, तब तक वह जहाज को अपनी जगह से हटने नहीं
देगा। इस विवाद में जहाज १९ जुलाई तक बंदरगाह के पास खड़ा
रहा।
१९ जुलाई को एक अप्रवासी अधिकारी जिसका नाम मालकम रीड था,
पुलिस और सेना के सशस्त्र जवानों को साथ लेकर एक टगबोट
(जहाज को ढकलनेवाली नौका) लेकर जहाज को बंदरगाह से बाहर
निकालने के लिए आया। टगवोट जिसका नाम 'सी लायन' था, जहाज
से १० फुट नीचा था। ज्योंही टगवोट ने जहाज को ढकेलना शुरू
किया त्योंही जहाज के यात्रियों ने ऊपर से ईंट–पत्थर मारने
शुरू किये। इस संघर्ष में २० पुलिस अधिकारी घायल हुए और
टगबोट जान बचाते भागे। इस घटना से सरकार में तहलका मच गया।
यह समाचार आटवा में कनाडा के प्रधानमंत्री के पास पहुँचा
तो उन्होंने तुरंत कृषि मंत्री को वैंकुअर इस सलाह के साथ
भेजा कि ऐसा कोई काम न किया जाए जिससे विदेश के अखबारों
में इसकी कोई चर्चा हो।
कृषि मंत्री ने अधिकारियों से बातचीत करके यह तय किया कि
कनाडा की नौ सेना का लड़ाकू जहाज जिसका नाम 'रेनबो' था,
उसकी मदद से कामा गाटा मारू को बंदरगाह से बाहर कर दिया
जाए। यह नौ सेना कनाडा की आधी नौ सेना थी। २२ जुलाई को
अधिकारियों ने दवाइयाँ और खाने–पीने की सामग्री देने की
इजाजत दे दी। खालसा दीवान सभा के कुछ पदाधिकारियों को भी
जहाज पर जाने की छूट दे दी गई। इस प्रकार २३ जुलाई को यह
जहाज दो माह कनाडा के बंदरगाह में लंगर डाले रहने के बाद
पुनः वापस भारत की तरफ चला। जब जहाज को नौ सेना की देखरेख
में बंदरगाह के बाहर ढकेला जाने लगा, उस समय यात्रियों का
मनोबल ऊँचा रखने के लिए गुरूदीत सिंह ने जोर–जोर से
गुरूग्रंथ साहब का पाठ करवाना प्रारंभ किया। साथ में और
यात्री भी बाजों के साथ देशभक्ति का गाना गाने लगे। इस
प्रकार से निर्भीक यात्री अपने ऊँचे मनोबल का प्रदर्शन
करते हुए मातृभूमि भारत की ओर चले। समुद्र तट के किनारे
बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग खड़े थे। जिनकी आँखों में
आँसू थे और हाथ हिलाकर अलविदा कह रहे थे। इस घटना का विवरण
देते हुए एक इतिहासकार ने लिखा है कि ब्रिटिश राज्य के
नागरिकों को एक ब्रिटिश राज्य की नौ सेना शक्ति प्रयोग
द्वारा सीमा से बाहर कर रही थी, इसे विडंबना नहीं तो और
क्या कहा जाएगा!
यात्रियों के दुःख का अंत नहीं
इन कामा गाटा मारू के यात्रियों के दुःख का अंत यहीं नहीं
होता है। इन्हें आगे अभी बहुत कुछ झेलना पड़ा।
२९ सितंबर वर्ष १९१४ को यह जहाज कलकत्ता के बजबज बंदरगाह
पर पहुँचा। वहाँ के अधिकारियों को इस जहाज के बारे में
पूरी सूचना मिल चुकी थी। अधिकारियों ने तय किया कि यहाँ से
सब सवारियों को उतारकर रेल द्वारा पंजाब भेजा जाए और वहाँ
पर यह तय किया जाएगा कि किसको छोड़ा जाएगा और किसे जेल भेजा
जाएगा। अधिकारियों ने यात्रियों से तुरंत जहाज खाली करने
को कहा और यात्रियों को पुलिस की निगरानी में रेलवे स्टेशन
ले जाया जाने लगा। स्टेशन से कुछ पहले ही इन यात्रियों ने
आगे जाने से इन्कार कर दिया और सड़क पर बैठकर गुरूग्रंथ
साहब का जोर–जोर से पाठ करने लगे। जो पुलिसवाले इनके साथ
थे, उन्होंने इनको चारों ओर से घेर लिया। कुछ ही देर के
अंदर ३० ब्रिटिश सिपाहियों की एक टुकड़ी और आ गई। गुरूदीत
सिंह भीड़ के बीच में था। एक गोरा अधिकारी जिसका नाम
इस्टवुड था, गुरूदीत सिंह को गिरफ्तार करने के लिए भीड़ में
घुसा, इतने में कहीं से गोली चली और इस्टवुड बुरी तरह घायल
होकर गिर पड़ा। गुरूदीत सिंह का कहना था कि गोली पुलिसवालों
की तरफ से चलायी गई थी। फिर पुलिस की गोलियाँ धुआँधार चलने
लगीं और भगदड़ मच गई। इस कांड में २० सिख मारे गये,
दो गोरे सिपाही, दो भारतीय सिपाही और दो राहगीर भी गोली के
शिकार हुए। २८ यात्री भाग निकले और शेष गिरफ्तार किये गये।
गुरूदीत सिंह भी भाग निकला था और सात साल तक फरार रहने के
बाद उसने अपने आप को कानून के हाथों में सौंप दिया। उसको
लाहौर में पांच साल की सजा हुई। पुलिस के इस अमानुषिक
बर्बर व्यवहार से पंजाब, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका
में भारतीय सरकार के विरूद्ध वातावरण बना और इस कांड की
भर्त्स्ना की गई।
भारतीयों की संख्या बढ़ी
भारत वर्ष के आज़ाद होने के बाद १९५१ में भारत सरकार के
अनुरोध पर कनाडा की सरकार ने भारत से आनेवाले अप्रवासियों
के लिए १५० की संख्या निर्धारित की। इसके अलावा कनाडा में
रह रहे अप्रवासियों को अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाने की
छूट मिली। फिर यह संख्या बढ़ती चली गई। वर्ष १९७१ से वर्ष
१९८२ के बीच में करीब १,७०,००० भारतीय अप्रवासी के रूप में
कनाडा आये। अब यह संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
आज जो भारतीय अप्रवासी कनाडा में हैं उनमें डॉक्टर,
इंजीनियर, शिक्षक, व्यवसायी, नौकरीपेशे वाले लोगों के
अलावा खेतिहर भी हैं। आगे भी दक्षिण एशिया के लोग कनाडा
आते रहेंगे, क्योंकि कनाडा की अपनी आबादी स्थिर है।
कल–कारखाने बढ़ते जा रहे हैं तो उनमें काम करने के लिए
इन्हें अप्रवासियों की जरूरत बनी रहेगी।
एक रोचक बात यहाँ यह है कि जब आप ऐसा चेहरा देखते हैं जो
भारतीयों–जैसा दिख रहा है तो आप ऐसा न सोच लें कि यह
व्यक्ति भारत वर्ष से आया होगा। वह व्यक्ति युगांडा से आया
हो सकता है या कीनिया से आया हुआ होगा। हो सकता है वह कभी
भारत वर्ष गया भी नहीं हो। हाँ उसके पूर्वज भारत वर्ष से
जरूर आये रहे होंगे। हमारे देश के लोग विश्व के कोने–कोने
में फैले हुए हैं, यह भी एक गौरव की बात है। यदि आप किसी
विष्णु मंदिर में जाएं और किसी हिंदू को पूजा करते देखें
और जब उससे बातचीत करना प्रारंभ करेंगे तो ज्ञात होगा कि
वह व्यक्ति गियाना या सूरीनाम का है। वह हिंदी बोल भी सकता
है या नहीं भी बोल सकता है। एक बार ट्रीनीडाड के एक नवयुवक
को मंदिर में मैंने भजन गाते हुए सुना। जब मैंने उससे बात
शुरू की तो उस नवयुवक ने बतलाया कि वह हिंदी नहीं जानता
है। यह भजन उसने रोमन लिपि में लिखकर याद किया है। इस भजन
का अर्थ उसकी दादी ने उसे बताया था। इन सब लोगों को मिलाकर
दक्षिण एशिया के मूल के निवासी कहते हैं। कनाडा में दक्षिण
एशिया के नाम से टी.वी. स्टेशन है जो इन लोगों के लिए
कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।
कनाडा में भारतीय मूल के लोगों का आना और समय के साथ–साथ
यहाँ के वातावरण में घुल–मिलकर रहते हुए अपने धर्म,
संस्कृति और सभ्यता को जिंदा रखना प्रशंसनीय है। एक सौ साल
में भारतीय मूल के लोगों ने यहाँ अपनी एक पहचान बना ली है।
ये लोग शांतिप्रिय नागरिक माने जाते हैं। कनाडा के विकास
में हर क्षेत्र में इनका योगदान है। इनके रहन–सहन का स्तर
सबके बराबर या कुछ ऊंचा ही है। इन लोगों ने कनाडा के अन्य
नागरिकों से बहुत कुछ सीखा है तो उन्हें नृत्य, संगीत
इत्यादि बहुत कुछ सिखाया भी है। |