एक
टुकड़ा राजस्थान
— दीपिका जोशी
कुवैत से राजस्थान दर्शन का सोचकर भारत पहुँचे तो
लोगों ने कहना शुरू कर दिया — "एक रेगिस्तान से आकर
घूमने भी जा रहे हैं तो दूसरे रेगिस्तान में।" कहीं भी
रहें, कहीं का भी रेगिस्तान देखा हो लेकिन मुझे भारत
का रेगिस्तान देखना ही था। पिक्चरों में रेत के जो
टीले देखे थे, उन्हें सचमुच देखने की इच्छा न जाने
कब से थी। मैं उन पर चलने–बैठने की तमन्ना रखती थी।
वैसे भी भारत के किसी भी कोने में आप जाइये, नयी
परम्पराएँ, सभ्यताएँ,
अलग बोली से पहचान करने का मौका
मिलता है जो हम कभी गँवाना नहीं चाहेंगे।
ऐतिहासिक राजस्थान देखने के लिए
१० दिन के सफर पर हमने
मुम्बई से प्रयाण किया। करीब डेढ़ घण्टे में हवाई जहाज
ने दूरी तय करके हमें उदयपुर की जमीं पर उतार दिया। सब
तरफ हरियाली देख कर आँखों को तसल्ली मिली। राजस्थान
पर्यटन के भरोसे ही चलनेवाला राज्य है, यहाँ विदेशी
पर्यटकों की भरमार रहती है सो आलीशान होटलों की कोई
कमी नहीं।
उदयपुर लेक सिटी कहलाता है लेकिन
४–५ सालों की वर्षा
की कमी से सारे तालाब सूखने लगे हैं। वैसे भी तालाबों
की खूबसूरती को सँभाला न जाना भी महसूस होता है। मुख्य
रूप से उदयपुर में लेक पैलेस और सिटी पैलेस देखने लायक
है। महाराजा उदयसिंह ने सिटी पैलेस बनाना शुरू किया
था। १८–१९ सालों में यह बनकर पूरा तो हो गया लेकिन आगे
भी उसे और बढ़ाने का काम चलता ही रहा। उसीका नतीजा यह
लेक पैलेस है।
महाराणा प्रताप के लोहे के वस्त्र जो युद्ध के समय
पहनते जाते थे, सिटी पैलेस के संग्रहालय में रखे हैं।
साथ ही हैं वे मनोरंजक कहानियाँ जो यहाँ के गाइडों की
ज़बानी आपके दिलो दिमाग में उतर जाती हैं — बलवान
महाराणा प्रताप ने अपनी तलवार से एक बार शत्रु पर ऐसा
शक्तिशाली वार किया था कि वह सिर से ले कर उसके घोड़े
तक एक वार में दो फाँकों में बँट गया था। नेहरू पार्क,
सहेलियों की बाड़ी दर्शनीय पार्क हैं। लेक पैलेस अब एक
आलीशान पंचतारांकित होटल में परिवर्तित हो जाने के
कारण आम लोगों को देखने नहीं दिया जाता। उसकी खूबसूरती से हम
वंचित ही रह गए।
उदयपुर
से करीब १२५ कि•मी• की दूरी पर चित्तोड़गढ़ है। उदयपुर से
चित्तोड़गढ़ का रास्ता दोनों तरफ से हरियाली से सजा हुआ है।
लहराते सफेद फूलों से सजी अफू की खेती खूबसूरत लगती है।
साथ
में बेमौसम ओले बरसाती बारिश का भी मजा लिया। चित्तोड़गढ़ पर
मीरा का मंदिर, कर्णावती की जौहर की जगह प्रसिद्ध है। पद्मिनी
पैलेस पानी में बना हुआ है जहाँ पर अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा
रानी पद्मिनी को एक झलक देखने की कहानी इतिहास में सोई है।
विजयस्तंभ भारतीय वीरों की शौर गाथा कहता सुदृढ़ खड़ा हुआ है।
दूसरे दिन हमें नाथद्वारा मंदिर और जैन मंदिर देखने थे। वह बड़ा
ही यादगार दिन और लम्बा सफर रहा। गाईड था जो खुद को राजू गाईड
बताता था, "ऐसा है जी कि गाईड फिलिम देखने के बाद मैंने खुद का
नाम राजू कर दिया जी! और आपको एक बात बता दूँ, मैं आप लोगों को
बाते बताऊँगा लेकिन आपको ध्यान
में रखनी है, मैं बीच बीच में
थोड़ी देर में सवाल पूछूँगा, आपको जवाब देणे होंगे।"
हम सबको बड़ी हँसी आई। लेकिन सही मायने में उसने यह सिलसिला
सारा दिन जारी रखा। लम्बा सफर था, "एक सवाल का जवाब देना है
आपको, सोच कर दीजिए, शादी में दुल्हन लाल जोड़ा क्यों पहनती है
और दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर क्यों आता है?"
किसी से कोई सही जवाब ना मिलने पर राजू ने रहस्य खोला, "ऐसा है
जी, लाल रंग तो डेंजर होता है ना . . . . तो वो सुझाना चाहती
है कि डेंजर है, अच्छा खासा घोड़ी पर बैठा है, भाग जा . . . भाग
जा . . ." हँसी का ठँहाका शुरू हुआ जो रोके नहीं रूक पा रहा
था।
काफी लम्बी अरावली पर्वत की घाटी का रस्ता पार कर जैन मन्दिर
पहुँचा जा सकता है। बीचमें एक छोटा सा किला था पहाड़ी पर, उसे
कुम्बलगढ़ कहा जाता है। यहाँ महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था—
राजू गाईड ने याद करवा ही लिया हमसे! "जैन मन्दिर में
१६००
खम्भे हैं, उसे गिनते बैठ मत जाना वहाँ पर और एक खम्भा इसमें
से टेढ़ा है, उसे तो जरा भी नहीं ढूँढ़ने की कोशिश करना, समय की
बड़ी कमी है" . . . .ऐसा हमें आदेश राजू गाईड से मिला था, मानना
तो था ही।
यहाँ
से चले तो बीच में संगमरमर के पहाड़ भी देखने को मिले। अब
मकराने का संगमरमर खत्म होने को है तो इस नई पहाड़ी को खोजा गया
है संगमरमर के लिये। सफेद पहाड़ी, सूरज की रोशनी में चमचमाती,
क्या खूबसूरत! अब पहुँचने वाले थे नाथद्वारा मन्दिर। मन्दिर
हमेशा खुला नही होता, जब खुला तो इतनी भीड़ में अन्दर
धकेले गए, कृष्ण भगवान के दर्शन
तो जैसे तैसे किये और कैसे बाहर आये, सूझा ही नहीं।
उदयपुर का सफर पूरा करके हम माऊँट आबू की ओर बढ़े। छे घंटे का
सफर अच्छा रहा। एक बात तो है, राजस्थान की सड़कें बड़ी ही अच्छी
हैं। ऊँचाई पर स्थित दत्त मंदिर की दो सौ बीस सीढ़ियाँ चढने
का अलग ही मज़ा है। वैसे ही दिलवाड़ा मन्दिर की खूबसूरती देखते
ही बनती है। इस पहाड़ी नगर का लुभावना नज़ारा दिलमें समाये हम
जोधपुर के लिए रवाना हो गए।
जोधपुर के गढ़ में छोटा सा संग्रहालय है प्राचीनकाल की चीजों की
एक झलक! उमेद भवन महल का वास्तु लुभावना है। लाल गुलाबी
पत्थरों से बना यह उमेद भवन एक पहाड़ी पर है। इसके निर्माण के
विषय में एक रोचक गाथा प्रचलित है। कहा जाता है कि आकाल के समय
में लोगों को काम उपलब्ध करने के उद्देश्य से उमेद सिंह ने इसे
बनवाया था। महल तो बन गया लेकिन वहाँ की हरियाली पर बैठकर मन
में अनेक विचार मन को उद्वेलित करते रहे। अभी तक उस रेगिस्तान
का नज़ारा देखना बाकी था जिसके लिये मैंने यहाँ तक सब्र किया
था।
जैसलमेर
में प्रवेश करते ही वह सुनहरी रेत, पारम्पारिक और सुनहरी छटा
वाली नई पुरानी इमारतें नज़र आ गई जो सूरज की रोशनी में सही में
सोने की नज़र आ रही थी। हाँ! यह सोने
का शहर ही तो कहलाता है।
होटल भी विरासत में मिली पारम्पारिक कलाकृतियों से सजे हुए, उस
पुराने युग में ले जाने से नहीं चूकते। विदेशी पर्यटकों को
मद्देनज़र रखते हुए होटलों पर पानी सा पैसा बहाया हैं। त्रिकुट
पर्वत पर बसा जैसलमेर किले का कुछ भाग संग्रहालय परिवर्तित
किया गया है, लेकिन आधे से ज्यादा
किला फिल्मों की शूटिंग के लिये बंद ही रहता है।
विदेशी पर्यटकों के साथ हम भी बाज़ार में मिलने वाली कठपुतलियों
से बड़े आकर्षित होते रहे। हाथ में लेकर उन्हें नचाने को दिल
किया। १० धागे हाथ में उँगलियों में लिये तो सही लेकिन एक हाथ
भी मैं उन कठपुतलियों का हिला नहीं सकी... क्या मज़ाल जो मैं
उन्हें नचा पाती।
एक
समय वह भी था जब व्यापारियों और सौदागर के ठाठबाट राजाओं की
तरह हुआ करते थे। इस बात को पटवों की हवेलियों ने साबित कर
दिया। उस समय के रहन सहन और ठाठ–बाट को अभी भी सँजो कर रखा गया
है। अलग–अलग तरह की पगड़ियों के निराले रूप यहाँ देखने को मिले
और समय के साथ बदलता हुआ उनका विन्यास भी।
"सम तो जाणो ही जाणो हैं बाबुजी, 'सम' ना देख्यो तो क्या
देख्यो बहिणजी इस जैसलमेर णु। सोचने की बात ही ण्याहो, जाणो ही
जाणो है।"
"अब ये मत पूछो णी के वहाँ जाणे का के मतलब? जगै देख्यों तो ही
मतलब के है ये जाणे हैं! आयी बात समझ में?"
वो ऊँट वाला साथ में अपने बाप्या (ऊँट जो उसे जान से भी
प्यारा नज़र आ रहा था) को सहलाते हुए बोलता ही जा रहा था। सही
में अब बात समझ में आ गई थी कि हमें वो कैमल सफारी पर जाने की
बात कर रहा है।
जैसलमेर से पैतालीस किलोमीटर दूर है यह सम। ऊँट की सैर कराते
हुए हम यहाँ से करीब बीस–पचीस मिनट में न रेत के टीलों तक
पहुँचते हैं। आखिर में सफर शुरू हो ही गया। थोड़ी ही दूर गए थे
कि ८–१० छोटे बच्चों का झुंड हमारे ऊँट के पीछे आ रहा था।
"मॅडम, रूपिस्, रूपिस्, प्लीज गीव रूपीस्" उन गाँव के बच्चों
के मुँह से ऐसे अंग्रेजी सुनकर हम हैरान हो गए। उस ऊँट वाले
ने बताया कि अपने लोगों के हाथों से पैसा छूटता नहीं और विदेशी
आते हैं तो पैसा माँग रहे हैं ये वो समझ नहीं पाते हैं, इसलिये
यहाँ के लोग ये २–३ बातें अपने तीन चार साल के बच्चों से रट
लेते हैं। पैसे तो हमने दिये लेकिन उन नंगे पाँव और फटे कपड़ों
में घुमनेवाले लाचार, कितनों को पैसे मिले, कौन मिले बिना उदास
रह गए यह पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं हुई।
रेत के टीले ऊँचाई तक ऊँट चढ़ता जाता है, हमें डराता हुआ, टेढ़ा
टेढ़ा चलता हुआ। अब मैं अपने उस सपने को साकार होते देख रही थी।
अहाहा!!! वही चलचित्रों वाले रेत के टीले देख रही थी। उन पर
खूब घूमी और वहाँ बैठे आँखों में उन्हें समाती रही। सिर्फ उस
दिन हवा न होने के कारण इन रेत के टीलों को अपनी जगह बदलते
नहीं देख पाये। सूर्यास्त वहाँ
से देख रहे थे तो आवाज आई "यहाँ का ये सूर्यास्त देख्यो तो जीवन सफल हो गयो जी बहिणजी
आपणू।"
सूर्यास्त
के बाद वापस जाने की तैयारी की। वही २० मिनट का सफर
दुबारा शुरू हुआ। लौटे तो पगड़ी फेटा बाँधे, हाथ में डमरू ढोलक
थामे, पत्थरों की दो पट्टियों का वो राजस्थानी वाद्य लेकर ४–५
लोगों की टोली हमारा इन्तजार कर रही थी। एक करीब १० साल का
लड़का भी उस में था। वो हर वाद्य बजाना, नाचना गाना, सभी कलाओं
में पारंगत था। मैंने उसे नाचने गाने की वाहवा की तो मेरे पास
आकर हाथ में हाथ लेकर नाचने पर मुझे मजबूर कर दिया। ढोला मारू
के गीत गाने में सभी मगन हो रहे थे। नाच गाने का
कार्यक्रम खत्म होने पर मैंने उस
लड़के से पूछा, "स्कूल में जाते हो? "
"हाँ आँटी, पाँचवी में पढ़ता हूँ।" इतनी खुश हो गयी मै उसका
जवाब सुनकर कि बता नहीं सकती। मैंने उसे बक्शीश दी तो पैर छू
लिये उसने, "आन्टी कोई णा देता अपणा कोई ऐसी शाबशी, परदेसी तो
देवें हैं!" वह तो स्कूल में जाता है, पढ़ता है, शायद उसका
भविष्य उज्ज्वल हो लेकिन ऐसे कितने बच्चे हैं जिनके पढ़ने लिखने
के सपनें इस सुनहरी रेत में
दबे हैं, कहा नहीं जा सकता।
भोजन तैयार हो चुका था। दाल–बाटी का एकदम शुद्ध राजस्थानी
खाना, बीच में जल रही आग उस गुलाबी ढण्ड में बड़े मायने रखती
थी। रात के ११ बजे हम उन खुशमिज़ाज़ लोगों से विदा लेकर वहाँ से
निकले जैसलमेर के ढोला–मारू नामक होटल के लिये। उन ४ घंटों को
मैंने खूब जी लिया था। हाँ! ऊँट पर बैठना और उस पर सफर याने क्या है, ऊँट जब उठता है
और बैठता है तब का वो गिरने का अहसास और सफर के बाद जो हड्डी
पसली एक हो जाती है, यह मैंने दो बार अनुभव किया है। एक बार
इजिप्ट में, और दूसरी बार यहाँ जैसलमेर में। मैंने कसम खायी है
कि ऊँट पर कभी नहीं बैठूँगी। शायद अगली बार ऐसा मौका आने तक
मैं इस कसम पर टिकी रहूँ!!
दिन भर जी तोड़ मेहनत करके एक हाथ पर कमाकर दूसरे हाथ से खाना
ही यहाँ की जिंदगी है। कहने के लिये रेगिस्तान लेकिन भारत का
यह सुनहरा सोने जैसा राजस्थान बड़ा ही खूबसूरत और देखने लायक
है। किले, बगीचे, महाराणा प्रताप, उनके चेतक की यादें और खास
कर अपने मनभावन रेत के टीलों को मैंने मन में समा कर रखा है। |