काठमांडू में पहुँचते ही जब कोई
पर्यटक घाटी को चारों तरफ़ से घेरे पहाड़ों पर नज़र डालता है, तो
उसकी दृष्टि एकाएक पश्चिम का ओर ऊँचे पहाड़ के टीले से सारी घाटी
को देखती, दो बड़ी-बड़ी आँखों पर रुक जाती है। ध्यान-मुद्रा में
अधखुली इन दो बड़ी-बड़ी आँखों के बीच नासिका के रूप में बना
प्रश्नवाचक चिन्ह देखकर पर्यटक की उत्सुकता जाग जाती है। यह है
स्वयंभूनाथ का बौद्ध मंदिर, जो काठमांडू घाटी में पश्चिम की ओर
ढाई सौ फुट ऊँची पहाड़ी की चोटी पर बना है। यह शहर से करीब तीन
किलोमीटर की दूरी पर है। काठमांडू के इतिहास में यह स्तूप इस
घाटी का प्राचीनतम बौद्ध स्तूप (चैत्य) है। स्थापत्य-कला की
दृष्टि से अद्वितीय होने के साथ-साथ प्राकृतिक स्थल की दृष्टि से
भी यह अत्यंत मनोहारी है।
काठमांडू के लोगों की यह मान्यता
है कि स्वयंभू के स्तूप के शिखर पर चारों दिशाओं में बने विशाल
एवं दैदीप्यमान नेत्र काठमांडू के हर नागरिक के क्रिया-कलाप को
हर पल देख रहे हैं, अतः किसी भी व्यक्ति को कोई बुरा काम नहीं
करना चाहिए। स्थापत्य-कला की दृष्टि से स्वयंभूनाथ अद्वितीय है।
इसके गुबंद की रेखा में ऐसा सजीव तीखापन है, जिसे देखने से लगता
है, मानो वह अब बोल उठेगा।
महीनों के
प्रतीक पशु-पक्षी
ऊँची पहाड़ी पर बने इस मंदिर पर
जाने के लिए पूर्व की ओर सड़क से सीढ़ियाँ बनी हैं, जिसके दोनों
किनारों पर छायादार वृक्ष हैं तथा दस-दस फुट के फासले पर
भूमि-स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की कई मूर्तियाँ रखी हुई
हैं। इसके साथ ही बीच-बीच में गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियाँ भी
हैं। इनके दोनों ओर मयूर और गरुड़ की मूर्तियाँ हैं। सीढ़ियों के
लगभग मध्य में दो हाथियों की मूर्तियाँ हैं और अंत में वीरासन
में बैठे दो सिहों की प्रतिमाएँ। अंतिम सीढ़ी पर धर्मधातुमंडल पर
स्वर्णमंडित वज्र बना है। इस चक्र में गाय, सूअर, गेंडा, सिंह,
शेर आदि बारह विभिन्न पशु-पक्षियों की सजीव मूर्तियाँ उत्कीर्ण
हैं। ये बारह पशु-पक्षी तिब्बती वर्ष के बारह महीनों के प्रतीक
हैं। इस स्तूप के परिसर में मंदिरों और चैत्यों की भरमार है, जो
काठमांडू में हिंदू-बौद्ध समन्वय का बहुत अच्छा उदाहरण है।
इस स्तूप का व्यास साठ फुट है
और शिखर तक की ऊँचाई लगभग तीस फुट होगी। स्तूप के शीर्ष पर दस
फुट ऊँची वर्गाकार कुरसी बनी है, जिसकी चारों दिशाओं पर धातु और
हाथी-दाँत से निर्मित दो विशाल नेत्र हैं। इस वर्गाकार कुरसी के
मुंडेर के ऊपर चारों ओर पंचकोणीय फ्रेम बने हैं। इनमें हरेक में
नीचे की पंक्ति में बुद्ध की ध्यान-मुद्रा में चार पीतल की चमकती
मूर्तियाँ हैं। इनके ऊपर मध्य में भूमि-स्पर्श मुद्रा में बुद्ध
की मूर्ति है।
''तिलिस्म'' और
''माने''
स्तूप की मेखला में चारों तरफ़
छोटी-छोटी तांत्रिक मूर्तियाँ लगी हैं। स्तूप के उत्तर की ओर
'शांतिवास' नाम का बौद्ध नर-बलि जैसा बड़ा पाप करने को तैयार
नहीं था। अंततः उसने एक निर्णय लिया।
उसने अपने पुत्र से कहा, ''कल
सुबह सूर्य उगने से पहले भोर के अंधेरे में तुम मेरी तलवार लेकर
प्याऊ पर जाना। वहाँ मेरी मूर्ति के नीचे एक व्यक्ति सफ़ेद चादर
ओढ़े सोया होगा। तुम बिना चादर को हटाए देवी का स्मरण करके उस
आदमी की बलि दे देना।''
आज्ञाकारी राजकुमार ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।
लेकिन जब राजकुमार ने उत्सुकतावश मृत व्यक्ति की चादर हटाई, तो
उसका कलेजा धक रह गया। वह मृत व्यक्ति और कोई नहीं, स्वयं उसके
पिता राजा थे। राजकुमार को असीम दुःख हुआ। एक रात उसे वज्रयोगिनी
देवी ने स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, ''जहाँ पर तुमने राजा का
वध किया है, उसी पहाड़ की चोटी पर तुम शाक्य मुनि (भगवान बुद्ध)
का स्तूप बनवाओ। तभी तुम्हें इस पाप से मुक्ति मिल सकती है।''
दूसरे दिन राजकुमार ने स्वप्न
की बात अपने दरबारियों को बताई। सभी ने मंदिर बनवाने के विचार का
अनुमोदन किया। फौरन ही मंदिर बनाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं।
दूर-दूर से चूना, पत्थर, मिट्टी आदि लाई गई और हज़ारों आदमी उस
सामग्री को बांस के टोकरों में भरकर पीठ पर लादकर पहाड़ की चोटी
पर पहुँचाने में लग गए।
ओस-बिंदुओं से
मंदिर का निर्माण
परंतु दुर्भाग्य ने अभी तक
राजकुमार का पीछा नहीं छोड़ा। पूरी घाटी में पानी का भयंकर अकाल
पड़ा। एक बूँद वर्षा नहीं
हुई। सभी सरोवर, नदी, नाले और तालाब
सूख गए। लोगों के घर के कुएँ भी सूख गए। ऐसे संकट में मंदिर
बनाने के लिए पानी जुटाना बहुत मुश्किल हो गया। राजकुमार को एक
युक्ति सूझी, उसने पहाड़ी के इर्द-गिर्द चारों तरफ़ रात में
सैंकड़ों सफ़ेद चादरें बिछवा दीं। सुबह के समय आकाश से पड़नेवाली
ओस-बिंदुओं से चादरें गीली हो जातीं, उन्हें निचोड़कर पानी
इकट्ठा किया जाता, फिर उससे मंदिर-निर्माण किया जाता।
दिन में मंदिर का निर्माण कार्य
होता था, तो रात में कोई राक्षस आकर उसे बिगाड़ जाता था। सभी लोग
बहुत परेशान थे। एक रात लोगों ने छिपकर उस दानव को देखा।
सैंकड़ों लोग मशालें जलाकर तलवार, बरछा लेकर उस दानव के पीछे
भागे और उसे घाटी से दूर पहाड़ के उस पार भगाकर दम लिया।
हज़ारों लोगों के रात-दिन के
परिश्रम से जब स्वयंभू-मंदिर बनकर तैयार हुआ, तब उस घाटी में
वर्षा हुई। पानी आया और यहाँ के निवासी खुशहाल हुए। तब से इस
घाटी में कभी भी पानी का संकट नहीं आया है। यह है कहानी, इस ओसकण
से बने बुद्ध मंदिर की।
२२ दिसंबर २००८ |