| मेरे पहले 
                  कैन्वास में दुनिया का ये सबसे सुन्दर माना जाने वाला शहर 
                  'पॅरिस' एक रेखागणित की तरह था। चारों ओर फैले खेत, जिसके हर 
                  हिस्से का अपना ही रंग- कुछ हरे या भूरे तो कुछ पीले और उनके बीच 
                  खपरैल की लाल छतें फिर बीच से गुज़रने वाला रस्ता एक साक्षात 
                  चित्र की तरह।  फ्रांस और 
                  फ्रेंच लोगों के बारे में हमने सिर्फ़ सुना था, सच्चाई अब ढूँढ 
                  निकालनी थी। कितनी ही बातें कहीं सुनी जाती है पर हम जब तक वहाँ 
                  जीते नहीं तबतक उसका अर्थ समझ पाना मुश्किल होता है। मन में शक, 
                  उत्सुकता और कौतूहल का तूफ़ान उठ रहा था। यद्यपि दो विभिन्न 
                  जगहों की तुलना हो नहीं सकती पर फ्रांस की गोद में पॅरिस के 
                  सिवाय भी बिन देखे-सुने अनेक अनमोल रत्न छुपे हैं। दक्षिण फ्रांस 
                  तो पृथ्वी का स्वर्ग ही है। लोग पेरिस को ही फ्रांस समझ लेते हैं 
                  लेकिन पेरिस की आबादी में ज़ादा प्रतिशत विदेशियों का हैं जो 
                  यहाँ आकर बस गए हैं और सही ढंग से उनमें समा गए हैं। जब फ्रांस 
                  'वर्ल्ड कप' जीतता हैं तो उल्लास मनाने वालों की भीड़ में सिर्फ़ 
                  ख़ास फ्रेंच ही नहीं होते हैं, उनमें होते हैं - अलबेरियन, 
                  मोरक्कन, टयूनिशीयन और कई अफ्रिकी देशों के लोग! यह फ्रांस की 
                  अपनी बहुराष्ट्रीय संकृति है। फिर से घर 
                  बसाते समय ध्यान आया कि भाषा हमें हर पल एहसास दिलाती है कि हम 
                  विदेशी हैं। लगा, यदि हमें यहाँ जीना है तो इनकी भाषा सीखनी होगी 
                  और खुद को इनकी संस्कृति में ढालना होगा, उनमें से एक बनना होगा 
                  वरना हम तो चिड़ियाघर के एक और नमूने बनकर रह जाएँगे। एक बार 
                  अपना देश छोड़ा तो हम अपने लोगों के लिए परदेसी बन जात हैं और अब 
                  इस देश में भी यदि विदेशी बनकर रहना पड़े तो हमारी स्थिति न घर 
                  की न घाट की हो जाएगी। हमने सुना था 
                  कि फ्रेंच अंग्रेज़ी जान कर भी बोलना नहीं चाहते, ये धूल किसने 
                  उड़ाई पता नहीं पर इन धूल कणों में कोई वज़न नहीं। असल बात तो ये 
                  है कि फ्रेंच लोगों को अंग्रेज़ी बोलने की कोई वजह ही नही है। 
                  फ्रेंच भाषा अपने आप में संपूर्ण स्वावलंबी हैं, विज्ञान के साथ 
                  वह भी अपना आविष्कार करती आई। उसे अंग्रेज़ी की ज़रूरत क्यों हो? 
                  यदि इस बात का गर्व इनको हो भी तो उसमें बुराई क्या? स्कूल में 
                  विदेशी भाषायें सिखाई जाती हैं लेकिन फ्रेंच स्वभावत: ही आलसी 
                  होते हैं। वो आपकी भाषा सीखने से बेहतर आपको अपनी भाषा सिखाना 
                  समझते हैं। इस तरह पहले थोड़ी मेहनत उठाने के बाद उनका काम सहज 
                  हो जाता है। वो घमंडी नहीं, शर्मिले होते हैं और शायद यही वजह 
                  होगी कि वो आपकी फ्रेंच गलतियों पर हँसते नहीं बल्कि आपको 
                  प्रोत्साहन देते हैं और प्रशंसा भी करते हैं। ऐसे वातावरण में 
                  हमारे लिए भाषा सीखना काफी सरल बनता गया।  पहले कुछ महीने 
                  ज़िन्दगी एक जुआ बन गई थी। हम अपने रोज़मर्रा के काम भी एक 
                  आह्वान की तरह झेलते। शाम को अपनी एकाकी खिड़की से सामने का 
                  विस्तृत शहर देखते। अकेलापन और उदासी शाम में ढलती और सामने का 
                  वही दृष्य अंधेरे में डूबने से पहले ही हज़ारों बत्तियों की 
                  टिमटिमाहट से जाग उठता और फिर से रोशनी उनमें आकार भर देती। एफेल 
                  टॉवर पर हज़ारों तारायें झूल उठते। रह-रह कर सामने बहती सेन नदी 
                  से गुज़रने वाले जहाज़ की फोकस लाईटें सारी इमरतों को चौंधिया कर 
                  निकल जाती। रस्ते पर गाड़ियों के झुंड एक दूसरे का पीछा करते और 
                  हमारी अनाथ आँखों से यादें टपकती। हम झट से टेलिविजन के सामने 
                  बैठ जाते और कानों पर पड़नेवाले निरर्थक शब्दों में अर्थ खोजते। धीरे-धीरे भाषा 
                  पर काबू आने लगा, जान पहचान बढ़ी और साथ ही नौकरी भी मिली। हमारा 
                  विश्व व्यापक होने लगा। यहाँ खास परिचय की ज़रूरत नहीं होती। 
                  लिफ्ट में, बस स्टैंड पर या बगीचे में अगल बगल के व्यक्तियों से 
                  बात करनी हो तो "आज मौसम अच्छा है" इतना ही कहना काफी होता है और 
                  बात चल पड़ती है। फ्रेंच बातूनी होते हैं, अनौपचारिक होते हैं। "आप किस देश के 
                  हैं?" इस सवाल से आपका छुटकारा नहीं। फिर भारत एक विषय बन जाता 
                  हैं। वैसे उनका अपना एक ख़ास विषय है जिसे वे चाव से तल्लीन होकर 
                  सुनाते हैं, - कर यानी टैक्स। यहाँ सोशल सेक्यूरिटी का कानून है। 
                  हर बेकार या वृद्ध नागरिक सरकार की तरफ से मदद पाता है। कई बार 
                  तो कम तनख्वाह की नौकरी करने से ज़्यादा मुनाफ़ा, इस सरकारी 
                  अनुदान से हो जाता है। फ्रांस की परंपरा कहिए या कायदे, यहाँ 
                  हज़ारों की तादाद में विदेशियों को आश्रय मिलता आया है और इन 
                  आश्रितों पर सरकार को काफी खर्च करना पड़ता है। सरकार ये सारे 
                  खर्चे कर के रूप में नागरिकों से वसूल करती है। लोगों की रोजी 
                  रोटी के हिस्से बँटते हैं और बेकारों की संख्या बढ़ती है। इसलिए 
                  ही टैक्स की कहानी हर फ्रेंच की जुबानी सुनने को मिलती है। सरकार जनता की 
                  प्रतिनिधि होती है पर फ्रांस का जनमत और सरकारी घोषणा इतने भिन्न 
                  हैं कि वो समान्तर चल भी नहीं पाते। अरब और आफ्रीकी देशों से 
                  लगातार आते रहने वाले आश्रितों की बढ़ती संख्या से जनता घबराहट 
                  महसूस करती है। इसका एक कारण और भी है। ये आगन्तुक फ्रेंच 
                  संस्कृति और सभ्यता से काफी अलग होते हैं। इनका धर्म आचरण और 
                  विचार इतने विभिन्न होते हैं कि फ्रेंच लोगों का अनुमान है, इससे 
                  उनकी देश की एकता में बाधा आ सकती है। असंतोष और आतंक बढ़ सकता 
                  है। भाषा के साथ 
                  साथ हमने फ्रेंच खाने की मेज की तरफ़ भी अपना ध्यान बढ़ाया। 
                  फ्रेंच भोजन एक रोचक अध्याय की तरह है। हमारे ख़याल से इनके खाने 
                  की मिसाल नहीं। इनके पारंपारिक रेस्तराँ छोटे घरेलू ढ़ंग को होते 
                  हैं और उन्हें चलाने वाले भी पारंपारिक होते हैं। खाने में जो 
                  चीज पकती है उसका खुद का स्वाद टिकाये रखना और सॉस या मसाले से 
                  सिर्फ़ जायका बढ़ाना - ये इनका अपना हुनर है। मसाला यानी कई तरह 
                  के हर्बस्। इस स्वाद की बारीकियों को समझना सबके बस की बात नहीं। 
                  ख़ास करके हिन्दुस्थानियों के लिए तो एक परीक्षा की तरह है। 
                  भारतीय खाना स्वादिष्ट होता है पर इनके दो प्रकार के खाने में एक 
                  ख़ास विशिष्टता और भिन्नता है। फ्रांस में 
                  खाना एक शृंगार है, एक यज्ञ है। मेज लगाना उसी का एक अनिवार्य 
                  भाग है। हर पदार्थ को रखने की अलग विशिष्ट प्लेंट, हर वाईन का 
                  अपना प्याला, हर खाने की अपनी वाईन, अपना चम्मच और काँटा। हर 
                  खाने के पकाने का ढंग, सामग्री अपनी अपनी, क्या याद रखूँ और क्या 
                  छोडूँ? यदि हम उनके खाने का मर्म समझ सकें तो उनके बेसमेंट वाले, 
                  पत्थरों की दीवारों के छोटे और पारंपारिक रेस्तराँ में, मोमबत्ती 
                  की रोशनी के तले उनके खास हरे सलाद, फ्रेंच बगेत (ब्रेड), 
                  फ्वाग्रा (बतख़ का लीवर,) जो उनकी विशिष्टता है, और असली फ्रेंच 
                  वाईन के साथ उन्हीं की तरह, उस मेज़ पर अपनी शाम लुटा दें।
                   अक्सर हम 
                  पाश्चात्य देशों को एक नज़र से देखते हैं, और उन्हें एक ही समझते 
                  हैं। लेकिन यह बहुत बड़ी गलती है, हमने जो देखा और समझा वो कुछ 
                  और ही है। यूरोप और अमेरिका दो अलग खंड तो है ही, उनकी संस्कृति, 
                  रहने का ढंग, खाने का तरीका, सोचने का ढंग, उनकी आदतें, उनके 
                  विचार सब कुछ ही काफी अलग हैं। जबकि वे सभी एक ही दिशा में 
                  अग्रसर हो रहे हैं। फ्रेंच समाज परिवार से काफी जुड़ा होता है। 
                  बच्चों पर, उनके अभिभावक हर तरह से ध्यान देते हैं। उनके शिक्षण 
                  पर खर्चे करते हैं और अपने पैरों पर खड़े होने तक बच्चे अपने माँ 
                  पिता के साथ ही रहते हैं। लेकिन इसी के साथ-साथ वे उन्हें 
                  स्वावलंबी बनाते हैं। बड़े कभी भी बच्चों के निर्णय के आड नहीं 
                  आते और अपने विचार उनपर नहीं लादते, ना ही कभी कोई अपेक्षा रखते 
                  हैं। उनका नाता दिये की तरह होता है, एक दिया दूसरे दिये को 
                  जलाता है। बच्चे साधारणत: बाईस साल की उम्र में अपना घोसला अलग 
                  बनाने लग जाते हैं और अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ रहने लगते 
                  हैं। संयुक्त परिवार की पद्धति नहीं, लेकिन संबंधियों में प्रेम 
                  और संबंधों की गर्माहट बनी रहती है। आमतौर पर 
                  विद्यालय से स्थापित दोस्ती मरते दम तक टिकी रहती है। आप यदि 
                  पड़ोसी या काम या नौकरी से सम्बन्धित जगहों पर सालों तक इनसे 
                  मिलते रहें तो भी ये सम्बन्ध घर तक नहीं आते। प्यार से पेश आना, 
                  मदद करना और यही तक ये बना रहता है। जान पहचान को कड़ी दोस्ती 
                  में बदलते हमने कम ही देखा है। इनकी दोस्ती की नीव विद्यालयों से 
                  शुरू होती है और उन्हें अपनी डालियाँ फैलाने में कोई ख़ास 
                  दिलचस्पी नहीं होती।  कहते हैं पेरिस 
                  कभी सोता नहीं, यह सच है। रात के किसी भी प्रहर यहाँ रास्ते पर 
                  लोग आते जाते दिखाई देते हैं। हमें सबसे अचरज इस बात का हुआ कि 
                  लड़कियाँ और महिलाएँ देर रात तक बिना डर या झिझक के अकेले घूम 
                  फिर सकती हैं। उन्हें किसी तरह का खतरा या छेड़छाड़ का सामना 
                  नहीं करना पड़ता। इसका कारण या तो आप शासन व्यवस्था कहिये या फिर 
                  सामाजिक गढन। भारत में आज भी औरतें खुद को पूर्णत: ढ़कने के 
                  बावजूद पुरुष की आड़ में छिप कर भी सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती, 
                  ऐसा क्यों?  फ्रांस और भारत 
                  के सम्बन्ध अच्छे है इसमें संदेह नहीं लेकिन फ्रेंच लोगों का 
                  भारत और भारतीय लोगों के प्रति जो प्रेम और आदर है और हमारी 
                  संस्कृति और आचार विचार, रहन सहन के बारे में जो एक अनोखा कुतूहल 
                  है वह बयान नहीं किया जा सकता। उनके लिए भारत एक स्वप्न है। 
                  हमारा इतिहास, हमारी संस्कृति, धर्म, हमारी कला उन्हें आकर्षित 
                  करती है। यहाँ आकर भारतीय होने के फायदे हमें समझ में आने लगे।
                   धीरे-धीरे हम 
                  यहाँ सामान्य जीवन जीने लगे और बदलने भी लगे। पहले हमारे ख़यालात 
                  पक्के थे, हर विषय में हमारे मत बने हुए थे, अटल थे, चाहे वो गलत 
                  ही क्यों न हो लेकिन उन्हें जाहिर करना और लोगों पर लादने का 
                  प्रयास लगातार करते थे। लेकिन अब हर विषय का दोनों तरफ़ से विचार 
                  करना, उन्हें तौलना, दूसरों के विचारों को गंभीरता से सोचना 
                  परखना, बोलने से पहले सुनना, ये सारी बाते हमारी आदतों में ढल गई 
                  हैं। विचारों में सरलता और उदारता अपने आप आ गई है, पता नहीं, ये 
                  भी शायद फ्रेंच प्रभाव है? वाईन, चीज और 
                  इत्र की प्रेमी इस भूमि ने अपने देश में सारे विश्व का साहित्य 
                  उड़ेल दिया है। हमने यहाँ किताबों की दुकानों में पंचतंत्र की 
                  कथाओं का अनुवाद देखा है। ये देश अपने कला और कलाकारों के लिए 
                  प्रसिद्ध है। चित्रों की नग्नता को सौन्दर्य का स्वरूप मिला और 
                  फ्रांस ने उस सौंदर्य को आज की दुनिया में भी स्थापित कर दिया 
                  है। विज्ञापनों में, सिनेमा में, रस्ते पर पोस्टरों में नग्नता 
                  बड़े कलात्मक ढंग से दिखाई जाती है।  पर यहाँ सेन्सर 
                  बोर्ड है या नहीं ये सवाल उठ पड़ता है। लोगों का एक विश्वास होता 
                  है कि नग्नता, सेक्स और मादक पेय इन सारी चीज़ों से अपराध बढ़ते 
                  है और जनता ग़लत दिशा की ओर जाती है। फिर फ्रांस इतना उन्नत 
                  राष्ट्र क्यों है और उन देशों से जहाँ ये सब कुछ वर्ज्य है, 
                  फ्रांस में अपराध का अनुपात इतना कम क्यों है? हमारी सोच और सीख 
                  को फ्रेंच सामाजिक व्यवस्था के तर्क़ ने बिलकुल आसान बना दिया 
                  है। फ्रेंच लोग स्वभाव से आराम तलबी और मौजी होते हैं। उनका 
                  ध्येय साल भर की कमाई एक महीने की छुटि्टयों के आनंद में उड़ा 
                  देना होता है। कभी देश भ्रमण को जाना तो कभी अपने दक्षिण स्थित 
                  आवास में जाकर चैन करना। अच्छी वाईन, 
                  बेहतरीन खाना और मित्र -कुटुंब के साथ घूमना, मछली मारना, 
                  खेलकूद, राजनीति, ज्ञानार्जन, किताबें पढ़ना ये सब उनके मनोरंजन 
                  के साधन हैं। लेकिन राष्ट्रीय तौर पर फ्रांस अपने बाहर या ईद 
                  गिर्द नहीं देखता। फ्रांस का विश्व फ्रांस से फ्रांस तक आकर खत्म 
                  हो जाता है। ये सोशालिस्ट राष्ट्र हैं और यहाँ के प्राय: उद्योग 
                  और व्यवस्था सरकारी हैं, जहाँ गैर सरकारीकरण की बात चले तो 
                  हड़ताल उसका अच्छा जवाब देती है। हड़ताल और बंद से फ्रांस का 
                  बहुत करीबी नाता है। हर रोज नगरपालिका हड़ताल की एक सूची जाहिर 
                  करती है जिसमें नागरिकों को असुविधाओं से निपटने का साधन खोज 
                  निकालने में सुविधा हो और साथ ही उनकी सहनशीलता भी बढ़े। 
                      
                        |               | हमने 
                          फ्रांस का चप्पा चप्पा छाना। दक्षिण के कोने पर स्थित 
                          मारसई, पश्चिम के ला रोहांल और पूर्व दिशा से सीमा पार 
                          करके स्वीटजरलैंड तक, उत्तर की सीमापार कर आगे हॉलंड की 
                          दिशा में फ्रांस की हर ऋतु में हर कोने के सौन्दर्य को 
                          नज़दीक से देखा। उनके फूलों से आच्छादित बाग बगीचे, 
                          पुराने घर, बारहवी शताब्दी के चर्च और इमारतें उसी युग 
                          के रस्ते गलियाँ घर बाज़ार आज भी वैसे ही हैं जैसे तब 
                          थे। अचानक लगा हमें किसी ने भूतकाल में ला छोड़ा हो। इन 
                          पुरानी इमारतों, संग्रहालयों की देखभाल सरकार बड़े यत्न 
                          से करती है। रस्तों पर कहीं गन्दगी या तोड़फोड़ के निशान 
                          नज़र नहीं आए। चौराहे पर फूलों के साँप जैसे गुलदस्ते 
                          बिछे हुए, हर महत्वपूर्ण जगहों पर स्पोर्ट लाईटस् और 
                          फव्वारों की सजावटों का वैभव जैसे झरने की तरह बहता नज़र 
                          आता था। फ्रेंच समाज अपनी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और 
                          परंपरा से इतना जुड़ा हुआ है कि हर नागरिक उसे संजोने 
                          में हाथ बटाता है।  |  
                          | दक्षिण 
                          फ्रांस में सरलत नगर की एक गली रेखाचित्र : सुचिता भट
 |  फ्रेंच 
                      लोगों को अपने देश पर अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और अपने 
                      उत्थान पर गर्व है, क्यों न हो भला? उन्होंने अपने पूर्वजों 
                      की शान को, शान से सजाए सँवारे रखते हुए, आधुनिकता की दौड़ 
                      में शामिल होकर तथा अपनी नींव बनाये रखकर, अपना झंडा 
                      उँचाइयों पर गाड़ा हैं और हमें भी गर्व का अर्थ समझा दिया 
                      है। |