यहाँ
देश के बाक़ी
हिस्सों के
मुक़ाबले, एक
दिन पहले ही
होली मना ली
जाती है.
राज्य
में इस
त्यौहार को “दोल
उत्सव” के
नाम से जाना
जाता है.
इस दिन
महिलाएँ लाल
किनारी वाली
सफ़ेद साड़ी
पहन कर शंख
बजाते हुए
राधा-कृष्ण
की पूजा करती
हैं और
प्रभात-फेरी (सुबह
निकलने वाला
जुलूस) का
आयोजन करती
हैं.
इसमें
गाजे-बाजे के
साथ, कीर्तन
और गीत गाए
जाते हैं.
दोल शब्द
का मतलब झूला
होता है. झूले
पर राधा-कृष्ण
की मूर्ति रख
कर महिलाएँ
भक्ति गीत
गाती हैं और
उनकी पूजा
करती हैं.
इस दिन
अबीर और
रंगों से
होली खेली
जाती है,
हालांकि समय
के साथ यहाँ
होली मनाने
का तरीक़ा भी
बदला है.
वरिष्ठ
पत्रकार तपस
मुखर्जी
कहते हैं कि
अब पहले जैसी
बात नहीं रही.
पहले यह दोल
उत्सव एक
सप्ताह तक
चलता था.
इस मौक़े पर
ज़मीदारों
की हवेलियों
के
सिंहद्वार
आम लोगों के
लिए खोल दिये
जाते थे. उन
हवेलियों
में राधा-कृष्ण
का मंदिर
होता था. वहाँ
पूजा-अर्चना
और भोज चलता
रहता था.
देश के
बाक़ी
हिस्सों की
तरह, कोलकाता
में भी दोल
उत्सव के दिन
नाना प्रकार
के पकवान
बनते हैं.
इनमें
पारंपरिक
मिठाई संदेश
और रसगुल्ला
के अलावा,
नारियल से
बनी चीज़ों
की प्रधानता
होती है.
मुखर्जी
बताते हैं कि
अब एकल
परिवारों की
तादाद बढ़ने
से होली का
स्वरूप कुछ
बदला ज़रूर
है, लेकिन इस
दोल उत्सव
में अब भी वही
मिठास है,
जिससे मन (झूले
में) डोलने
लगता है.
कोलकाता
की सबसे बड़ी
ख़ासियत यह
है कि यहाँ
मिली-जुली
आबादी वाले
इलाक़ों में
मुसलमान और
ईसाई तबके के
लोग भी
हिंदुओं के
साथ होली
खेलते हैं.
वे राधा-कृष्ण
की पूजा से
भले दूर रहते
हों, रंग और
अबीर लगवाने
में उनको कोई
दिक्क़त
नहीं होती.
कोलकाता
का यही
चरित्र यहाँ
की होली को
सही मायने
में
सांप्रदायिक
सदभाव का
उत्सव बनाता
है.
शांतिनिकेतन
की होली का
ज़िक्र किये
बिना दोल
उत्सव अधूरा
ही रह जाएगा.
काव्यगुरू
रवीन्द्रनाथ
टैगोर ने
वर्षों पहले
वहाँ बसंत
उत्सव की जो
परंपरा शुरू
की थी, वो आज
भी जैसी की
तैसी है.
विश्वभारती
विश्वविद्यालय
परिसर में
छात्र और
छात्राएँ आज
भी पारंपरिक
तरीक़े से
होली मनाती
हैं.
लड़कियाँ
लाल किनारी
वाली पीली
साड़ी में
होती हैं. और
लड़के धोती
और
अंगवस्त्र
जैसा कुर्ता
पहनते हैं.
वहाँ इस
आयोजन को
देखने के लिए
बंगाल ही
नहीं, बल्कि
देश के दूसरे
हिस्सों और
विदेशों तक
से भी भारी
भीड़ उमड़ती
है.
इस मौक़े
पर एक जुलूस
निकाल कर
अबीर और रंग
खेलते हुए
विश्वविद्यालय
परिसर की
परिक्रमा की
जाती है.
इसमें
अध्यापक भी
शामिल होते
हैं.
आख़िर
में,
रवीन्द्रनाथ
की प्रतिमा
के पास इस
उत्सव का
समापन होता
है.
इस मौक़े
पर
सांस्कृतिक
कार्यक्रम
भी आयोजित
किये जाते
हैं.
शांतिनिकेतन
और कोलकाता-स्थित
रवीन्द्रनाथ
के पैतृक
आवास,
जादासांको
में आयोजित
होने वाला
बसंत उत्सव
बंगाल की
सांस्कृतिक
पहचान बन
चुका है.
|