पंच महोत्सव और लक्ष्मी गणेश पूजन
- प्रेमपाल शर्मा
पूरा
कार्तिक ही पर्व-त्योहारों का महीना है। कार्तिक-स्नान
का अपने आप में बड़ा महत्त्व है। इसी मास में दीपावली
पर्व आता है। दीपावली अकेला नहीं, पर्वों का समूह है।
यह पंच-महोत्सव है, यानी पाँच दिन तक चलनेवाला
महोत्सव। दीपावली अँधेरे पर उजाले की विजय का पर्व है,
तमस में ज्योति के पदार्पण का पर्व है, बुराई पर
अच्छाई की विजय का पर्व है, दुर्गुणों पर सत्गुणों की
विजय का पर्व है। दीपावली के एक महीना पहले से घरों,
दुकानों, कार्य-स्थलों की साफ-सफाई, लिपाई पुताई और
रंग-रोगन करना शुरू हो जाता है। कहा गया है कि जहाँ
स्वच्छता है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।
'लक्ष्मी तंत्र' में उल्लेख आया है कि देवताओं के राजा
इंद्र ने पूछा कि देवी लक्ष्मी, आपकी कृपा कैसे
प्राप्ति की जा सकती है? तो माता लक्ष्मी ने बताया कि
देवेंद्र, जो मेरी प्राप्ति की इच्छा रखते हुए स्वच्छ
तन, स्वच्छ मन तथा स्वच्छ वातावरण से युक्त परिवेश में
मेरी पूजा- आराधना करता है, मैं उस सेवक पर ही प्रसन्न
होती हूँ। नि:संदेह जो गृहस्थ सात्त्विक मन से, अपनेपन
के साथ पूजा-अर्चना करता है, वह अपने जीवन की दरिद्रता
को मिटा सकता है। 'ब्रह्म पुराण' में बताया गया है कि
कार्तिक अमावस्या की अँधेरी रात्रि में लक्ष्मीजी
स्वयं भूलोक में आती हैं और चहुँ ओर विचरण करती हैं।
जो घर या स्थान अधिक स्वच्छ, शुद्ध, सात्त्विक एवं
प्रकाशयुक्त होता है, वहाँ वे अपनी कृपा बरसाती हैं।
गंदे तथा अंधकार वाले घर में वे झाँककर भी नहीं देखतीं
हैं, अत: क्या शहर, क्या गाँव, हिंदू घरों में खूब
साफ-सफाई कर दीपक की रोशनी से चहुँओर जगमग कर दिया
जाता है। सभी को अपने घर में लक्ष्मीजी को बुलाने की
तीव्र आकांक्षा रहती है। लक्ष्मीजी मात्र धन की
स्वामिनी ही नहीं, वे ऐश्वर्य, सुख-शांति एवं समृद्धि
देनेवाली भी हैं। सभी हिंदू परिवार उनके इंतजार में
पलक-पाँवड़े बिछाए रहते हैं।
इस अवसर पर साफ-सफाई से एक दूसरा फायदा यह भी है कि
बरसात के बाद कीड़े-मकोड़े काफी संख्या में बढ़ जाते हैं,
घरों में टूट फूट, शीलन आदि से वातावरण अस्वास्थ्यकर
हो जाता है। दीपावली के बहाने अच्छी साफ-सफाई कर घरों
को प्रकाशित किया जाता है, जिससे वातावरण स्वास्थ्यकर
हो जाता है। दीपकों के प्रकाश में कीट-पतंगे भी सब
नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए दीपावली हिंदुओं में सबसे
प्रमुख त्योहार माना जाता है।
यह पंच-महोत्सव कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से
शुरू हो जाता है, इसे 'धनतेरस' कहते हैं, इसी दिन को
भगवान् धन्वंतरि के प्रादुर्भाव के रूप में मनाया जाता
है। आयुर्वेद शास्त्र के प्रणेता भगवान धन्वंतरि का
उद्भव समुद्र-मंथन से इसी दिन हुआ था। धनतेरस को यमुना
में स्नान तथा यम के नाम पर दीपदान किया जाता है। तेल
का दीपक जलाकर मुख्य द्वार पर रखा जाता है, इससे
परिवार को अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता है, ऐसी
मान्यता है। इस दिन धातु के बरतन, आभूषण खरीदना भी शुभ
माना जाता है। क्या गरीब क्या अमीर, सब हिंदू इस दिन
कुछ-न-कुछ अवश्य खरीदते हैं।
अगले दिन नरक चतुर्दशी होती है, इसे छोटी दीवाली भी
कहते हैं। इस दिन सायं को हिंदू परिवारों में कहीं पर
चौदह तो कहीं पर एक दीया जलाया जाता है और रामसेवक
हनुमान को तेल तथा सिंदूर चढ़ाना शुभ माना जाता है। यह
उनको अत्यंत प्रिय है। द्वापर में इसी दिन भगवान कृष्ण
ने नरकासुर राक्षस का वध किया था, ऐसा भी माना जाता
है।
अगले दिन यानी कार्तिक अमावस्या को दीपावली धूमधाम से
मनाई जाती है। दीपावली को ही आर्य समाज के प्रवर्तक
स्वामी दयानंद सरस्वती को मोक्ष प्राप्त हुआ था। यह घर
में नवान्न आने का भी पर्व है। अत: सायं को नवान्न के
रूप में गुड़ से निर्मित विभिन्न खाद्य वस्तुएँ, खाँड़
के खिलौने, बताशे, मिष्टान्न के साथ धान से बनी खील,
लाई, चूड़ा आदि से गणेश और लक्ष्मी की पूजा बड़े
भक्तिभाव से की जाती है। घर-द्वार, कुआँ-बावड़ी,
मंदिर-देवालय यहाँ तक कूड़ाघर में दीपक जलाकर प्रकाश
किया जाता है, इससे एक ओर लक्ष्मीजी प्रसन्न होती हैं,
तो दूसरी ओर कीड़े-मकोड़े आदि नष्ट हो जाते हैं। हिंदू
अपने नाते-रिश्तेदार, मित्र एवं अड़ोस-पड़ोस में
मिठाइयों तथा उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं।
ठीक अगले दिन, यानी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन
पूजा या अन्नकूट पर्व मनाया जाता है। भगवान् कृष्ण ने
इसी दिन दंभी इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोवर्धन और गाय
की पूजा शुरू कराई थी। इसी दिन इंद्र के कोप से
ब्रजवासियों को बचाने के लिए भगवान् कृष्ण ने गोवर्धन
पर्वत को उँगली पर धारण कर इंद्र का मान-मर्दन किया
था। ब्रजवासी इस पर्व को बड़े हर्ष-उल्लास के साथ मनाते
हैं। घर-घर में गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है। सायं
में खीर-पूरी और अनेक पकवान बनाकर पूरे परिवार के साथ
गोवर्धन यानी गिरिराज भगवान् की पूजा कर परिक्रमा की
जाती है। व्यवसायी तथा हस्त-कर्मकार और नाना पेशा
करनेवाले इस दिन विश्वकर्मा की पूजा भी करते हैं और
अपना कारोबार इस दिन बंद रखते हैं।
इसके अगले दिन द्वितीया को भाई बहन के आपसी
प्रेम-सौहार्द का पर्व 'भैया दूज' मनाया जाता है।
बहनें भाई को तिलक करती हैं और उनकी दीर्घ आयु की
कामना करती हैं। भाई भी कपड़ा, उपहार तथा नकद राशि देकर
बहन का सम्मान करता है और बहन की सदा मदद करने का वचन
देता है। इस दिन बहनें अपने भाई के घर जाती हैं या भाई
ही बहन के घर आ जाते हैं, तब बहन भाई का रोली-अक्षत्
से तिलक कर नारियल, मिष्टान्न आदि भेंट करती हैं। जो
भाई दूर या परदेस में होते हैं तो बहनें उनके नाम से
नारियल को तिलक कर रख लेती हैं और सुविधानुसार बाद में
अपनी दौज भेंट करती हैं। भैया दूज के दिन बाजारों तथा
बस, रेल आदि में खूब भीड़ रहती है।
गणेश-लक्ष्मी पूजा क्यों?
हिंदू समाज में ऐसी मान्यता है कि भगवान् राम के
राक्षसराज लंकापति रावण का संहार करके और चौदह वर्षों
का वनवास बिताकर अयोध्या लौटने पर महर्षि वसिष्ठ
द्वारा कार्तिक अमावस्या को अयोध्या के राजपद पर
श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया था। इसी खुशी में
अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाकर पूरी अयोध्या नगरी
को रोशन प्रकाशित किया तथा स्वदिष्ट व्यंजन बनाकर
खुशियाँ मनाईं, अत: उसी खुशी में दीपावली की परंपरा आज
तक चली आ रही है। जब उत्सव भगवान् राम-सीता के राजा
बनने की खुशी में मनाया जाता है, तो इस दिन उनकी पूजा
क्यों नहीं? लक्ष्मी-गणेश की पूजा क्यों होती है?
लक्ष्मी और गणेश दोनों अलग-अलग व्यक्तित्व के स्वामी,
अलग-अलग कार्यों या कृपा के लिए याद किए जानेवाले, फिर
दोनों एक ही मंच पर स्थापित होकर दोनों की पूजा एक साथ
क्यों?
इस संदर्भ में कुछ लोगों का मानना है कि लक्ष्मी
धन-ऐश्वर्य की स्वामिनी तो हैं, पर चंचला भी हैं, अधिक
समय एक स्थान पर टिकती नहीं हैं, चूँकि गणेशजी
विवेक-बुद्धि के स्वामी हैं, धन-ऐश्वर्य तभी स्थायी रह
सकता है, जब व्यक्ति में बुद्धि-विवेक हो, अत:
धन-लक्ष्मी का आगमन हो और वह स्थायी भी रहे, इसलिए
लक्ष्मी-गणेश की पूजा साथ-साथ की जाती है। कहा भी जाता
है, जहाँ प्रकाश है, वहाँ बुद्धि है, जहाँ बुद्धि है,
वहाँ लक्ष्मी है। इसी कारण दीपावली की रात्रि को
लक्ष्मीजी की पूजा धन-ऐश्वर्य के लिए और गणपति की पूजा
बुद्धि-ज्ञान की आकांक्षा से की जाती है।
ऐसा माननेवाले भी हैं कि दीपावली की पूजा में गणेशजी
की पूजा होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, क्योंकि
दीपावली ही नहीं, किसी भी पूजा में पहला स्थान गणेशजी
का ही है, ऐसा उनको वरदान प्राप्त है। उनकी पूजा किए
बिना कोई पूजा पूर्ण नहीं हो सकती, तब गणेशजी की पूजा
के बिना लक्ष्मीजी की पूजा कैसे पूर्ण हो सकती है?
लक्ष्मीजी अगर भौतिक समृद्धि की देवी हैं, तो गणेश उस
समृद्धि को कल्याणकारी बनाने वाले देवता हैं। भौतिक
संपन्नता व्यक्ति को कल्याण की ओर ले जा सकती है, तो
विनाश की ओर भी ले जा सकती है। चूँकि गणेशजी
विघ्नहर्ता हैं, बुद्धि-विवेक के स्वामी हैं, उनका साथ
या उनकी कृपा रहे तो भौतिक संपन्नता व्यक्ति को
कल्याण-मार्ग पर ही ले जाएगी, यह निश्चित है। अत:
दीपावली की रात में लक्ष्मीजी के साथ गणेशजी की पूजा
का विधान है।
कुछ लोगों का विश्वास है कि शैव संप्रदाय ने गणेशजी को
दीपावली की पूजा में शामिल किया। पहले इस दिन
लक्ष्मी-कुबेर की पूजा होती थी, कुछ लोग अब भी करते
हैं। रिद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में शैवों ने
गणेशजी को प्रतिष्ठित किया। चूँकि कुबेर तो मात्र धन
के अधिपति हैं, जबकि गणेश रिद्धि-सिद्धि के दाता ठहरे,
अत: समय बीतने के साथ लक्ष्मी-कुबेर की बजाय
लक्ष्मी-गणेश की पूजा पूरे हिंदू समाज में मान्य और
प्रचलित हो गई। माना कि लक्ष्मी धन के साथ-साथ ऐश्वर्य
व समृद्धि देनेवाली हैं, पर रिद्धि-सिद्धि इस
समृद्धि-संपन्नता में संतुलन बनाकर रखती हैं।
समृद्धि-संपन्नता में संतुलन बना रहे तो वह दीर्घजीवी
होती है, टिकाऊ रहती है, अत: कुबेर के बजाय गणेशजी की
पूजा ज्यादा कल्याणकारी समझी गई। अत: दोनों की पूजा आज
तक निर्विघ्न रूप से होती आ रही है।
संस्कृत के एक लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् एवं आचार्य से
इस संबंध में मैंने एक और रोचक कथा सुनी। उन्होंने
बताया कि एक बार ब्रह्माणी तथा लक्ष्मीजी विचरण करते
हुए कैलास पर पार्वती से मिलने आईं। भोला दंपती ने
उनका यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया। कहाँ धन धान्य और
ऐश्वर्य की स्वामिनी लक्ष्मी और कहाँ फक्कड़, समृद्धि
और चकाचौंध से विरत भोला-पार्वती! सौजन्यतावश
लक्ष्मीजी ने बालक गणेश को अपनी गोद में उठा लिया।
वैभव की देवी लक्ष्मी की गोद में गणेश की सुंदरता और
सम्मान को चार चाँद लग गए। माँ पार्वती यह देखकर
अत्यंत प्रसन्न हुईं, परंतु यह सोचकर तुरंत खिन्न भी
हो गईं कि 'मेरे लाल की यह शोभा ज्यादा देर नहीं रह
सकेगी, क्योंकि लक्ष्मीजी तो चंचला हैं।' लक्ष्मीजी
विनायक की जननी का दु:ख समझ गईं, बोलीं, ''बहन, आज के
दिन जो गृहस्थ हम दोनों की, हमारे इस रूप की पूजा
करेंगे, उनके घर में धन-धान्य तथा समृद्धि में कोई कमी
न आएगी। मैं उनके घरों में स्थायी रूप से निवास
करूँगी। मेरा वचन अटल है।''
सुयोग से वह दिन कार्तिक अमावस्या का था। उसके बाद से
हिंदू गृहस्थ दीपावली के दिन यानी कार्तिक की अमावस्या
को गणेश-लक्ष्मी का पूजन करने लगे और आज तक निरंतर
करते चले आ रहे हैं। गणेश और लक्ष्मी को एक ही आसन पर
बिठाकर पूजा जाता है। पूजा में गणेशजी को लक्ष्मीजी के
बाईं ओर स्थापित कर लक्ष्मी के लिए कमल-पुष्प तथा
गणपति के लिए लड्डू जरूर अर्पित किया जाता है।
लक्ष्मीजी स्वच्छ वातावरण तथा सात्त्विक मनवाले गृहस्थ
को छोड़कर नहीं जाती हैं, जबकि प्रमाद, निद्रा और दूषित
वातावरण में पड़े लोगों केघरों में लक्ष्मी भूलकर भी
कदम नहीं रखती हैं।
लक्ष्मीजी और गणेशजी की साथ-साथ पूजा के कारण जो भी
रहे हों, परंतु यह बात सर्वविदित है कि आज भी
लक्ष्मीजी का पूजन सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य की
प्राप्ति के लिए तथा गणेशजी की पूजा उस समृद्धि एवं
ऐश्वर्य को सात्त्विक एवं लोक-कल्याणकारी बनाए रखने के
लिए ही की जाती है। धन-संपत्ति और समृद्धि अहंकार
बढ़ानेवाली नहीं, परोपकारार्थ और जन-कल्याण के लिए होनी
चाहिए। दीपावली पूजा का मंतव्य यही है। वर्तमान में
दीपावली के बहाने अपने धन-वैभव की नुमाइश होने लगी है।
पर्यावरण को बरबाद करनेवाली आतिशबाजी का चलन कब-कैसे
शुरू हो गया, कहा नहीं जा सकता। हाँ, अपनी संपन्नता की
धाक जमाने का यह भी एक जरिया बन गया है। सोचें,
दीपावली तो वातावरण को स्वास्थ्यकर बनाने का पर्व है।
फिर वातावरण और घर-द्वार को गंदा एवं प्रदूषित करइस
महापाप का दोष अपने सिर पर क्यों लें? इसे ध्यान में
रखकर ही दीवाली मनाएँ, खुशियाँ बाँटने से बढ़ती हैं,
उन्हें बढ़ाएँ!
१ अक्टूबर २०२२ |