लोकपर्व सातूँ आठूँ
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संकलित
पहाड़ अपनी अनूठी संस्कृति और लोक पर्वों के लिए ही
जाना जाता है। भादो माह के शुक्लपक्ष की पंचमी से
अष्टमी तक चार दिन कुमाऊँ के पूर्वोत्तर भू-भाग
महाकाली नदी के दोनों ओर, कुमाऊँ और पश्चिमी नेपाल
में, मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण लोक उत्सव है- सातूँ
आठूँ जिसे सातों-आठों भी कहते हैं। यह गौरा-महेश्वर का
पर्व है। सातूँ-आठूँ पहाड़ की लोक संस्कृति और पर्वों
का संवाहक है। इस अवसर पर चाँचरी, खेल, ठुलखेल, झोड़ा,
बैर आदि लोक विधाओं का प्रदर्शन होता है। ढोल, हुड़का
आदि वाद्ययंत्रों की धमक गूँजने लगती है, झोड़ा,
न्योली, भगनोला और स्थानीय लोकगीतों के स्वर गूँजते
हैं और हर ओर धूम मची दिखती है।
उत्तराखंड के लोग भगवान शिव के उपासक माने जाते हैं।
यही कारण है कि यहाँ की संस्कृति में भगवान शिव की
स्तुति की झलक साफ दिखाई देती है। खास बात यह है कि
सातूँ-आठूँ पर्व मानाते हुए गौरा को पहाड़ की महिलाएँ
अपने बीच की ही आम महिला के रूप में पूजती हैं। कहा
जाता है कि सप्तमी को माँ गौरा ससुराल से रूठकर अपने
मायके आ जाती हैं, उन्हें लेने के लिए अष्टमी को भगवान
महेश यानी शिव आते हैं। सातूँ-आठूँ में सप्तमी के दिन
माँ गौरा व अष्टमी को भगवान शिव की मूर्ति बनाई जाती
है।
जब गौरा अपने मायके पहुँचती हैं तब सारा गाँव उनको
लिवा लाने गाँव के जल स्रोत पर पहुँचता है जहाँ वे
पृथ्वी पर आकर विश्राम कर रही होती हैं। भादों के
महीने में पूर्ण ऊँचाई प्राप्त कर चुके धान की पौंधों
के बीच गौरा की प्रतिमा बनाई जाती है। गौरा के साथ
महेश की प्रतिमा भी बनाई जाती है। गौरा और महेश की जो
आकृतियाँ बनाई जाती हैं उन्हें गंवार कहा जाता है, ये
गंवारे खेतों में बोई गई फसलों- सूँट, धान, तिल,
मक्का, मडुवा, भट आदि की बालियों से बनाई गई मानव
आकृतियाँ होती हैं। उनको गौरा का रूप देने के लिए
साड़ी, पिछौड़ा, चूडियाँ, बिंदी से पूरा विवाहित महिला
की तरह शृंगार कराया जाता है। महेश को भी पुरुषों का
परिधान पहनाकर कुर्ता, पजामा और ऊपर से शॉल भी ओढ़ाया
जाता है। दोनों को मुकुट भी पहनाए जाते हैं। सप्तमी के
दिन गाँव की लड़कियाँ जल स्रोत के पास से लाती हैं।
उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती हैं और उन्हें विधि
विधान से पूजा कर के किसी पवित्र और बड़े स्थान पर
स्थापित किया जाता है। दूसरे दिन यानी अष्टमी को
महेश्वर पधारते हैं। उनका भी इसी प्रकार स्वागत किया
जाता है, और उन्हें भी गौरा के साथ विधि-विधान से पूजा
के साथ स्थापित किया जाता है। यह तिथि आठूँ कही जाती
है।
सप्तमी से पहले पंचमी को ही पाँच प्रकार के अनाजों को
अंकुरित होने रख दिया जाता है। इस अनाज को सातूँ के
दिन सात बार और अष्ठमी यानि आठूँ को आठ बार धोया जाता
है। धोने से पहले नौले या धारे पर पाँच जगह टीका लगाया
जाता है और शगुन-गीत भी गाए जाते हैं। बिरुड़े धोकर
वापस भिगोकर रख दिए जाते हैं और उसमें से गेहूँ की
पोटली निकालकर गमरा की पूजा के लिए लेकर जाते हैं।
सातों के दिन गौर की ही पूजा होती है, इस पूजा के लिए
गेहूँ की पोटली के साथ-साथ फूल, मौसम के फल और अन्य
पूजा की सामग्री भी रखी जाती है। महेश्वर को बिरुड़ (एक
प्रकार की जंगली फली) पसन्द है इसलिए पंच अनाज में
बिरुड़ भी विशेष रूप से डाले जाते हैं। पंच अनाज को भी
संयुक्त रूप से बिरुड कहते हैं।
शिव-पार्वती को ताजे फल और बिरुड़ का भोग लगाया जाता
है। बिरुड़ ५ अनाजों चना, मटर, उड़द, गहत, गुरूंश को
मिलाकर बनाया जाता है। पाँचों अनाजों को पंचमी के दिन
पानी में भिगो दिया जाता है। आठूँ (अष्टमी) के दिन यह
प्रसाद गौरा-महेश्वर और अन्य मंदिरों में चढ़ाया जाता
है। इसका व्यंजन बनाकर प्रसाद के रूप में खाया जाता
है। मान्यता है कि जब भगवान शिव पार्वती को विदा कर ले
जाते हैं तो कलेवा के रूप में उन्हें बिरुड़ दिया गया।
इसलिए सातूँ-आठूँ पर्व में बिरुड़ बनाने की परंपरा है।
जब महादेव के अपनी ससुराल पधारते हैं तब गाँव में
चाँचरी लगाई जाती है। चाँचरी लगाना यानि एक प्रकार का
लोकनृत्य करना। चाँचरी समूह नृत्य है। इसमें गोल घेरा
बना आधी तरफ स्त्रियाँ और दूसरी तरफ पुरुष खड़े होते
हैं। वो ज्यादातर प्रश्न उत्तर की शक्ल लिए किसी लोक
गीत को गाते हुए विशिष्ट पद सञ्चालन के साथ घेरे में
घूमते रहते हैं। जितने दिन गौरा महेश्वर गाँव में रहते
हैं उतने दिनों तक चांचरी का नृत्योत्सव जारी रहता है।
महादेव और गौरा ४-५ दिनों में विदा हो जाते हैं।
उन्हें विदा देने गाँव के सभी लोग, गाँव की सीमा पर
बने किसी मन्दिर तक जाते हैं और वहाँ खेल यानि चांचरी
लगा कर उन्हें विदा कर दिया जाता है। गौरा की विदाई का
पल बहुत ही भावुक कर देने वाला होता है। विदाई के गीत
मन को द्रवित कर देते हैं और बहुत से लोगों की नम
आँखों को देखा जा सकता है। लगभग १५-२० साल पहले देर
रातों तक गाँव गाँव में चाचरी लगती थी लेकिन, पलायन और
नई पीढ़ी की उदासीनता जैसे कारणों अब इन आयोजनों में
उत्साह नहीं रहा। अब चाँचरी बस यह ४-५ दिनों तक ही
लगती है।
इस पर्व की एक खासियत ये भी है कि गौरा-महेश्वर पूजन
में दूर्वा धागा अर्पित किया जाता है। उसी दुर्वा धागे
को कुमाऊँ की महिलाएँ यज्ञोपवीत के रूप में गले में और
हाथ में बाँधती हैं। रक्षाबन्धन के दिन जिस तरह जनेऊ
बदला जाता है उसी प्रकार स्त्रियाँ इस पर्व में अपने
बाजुओं में जनेऊ की तरह दूब के धागो से बना 'दूब धागा'
धारण करती हैं।
भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा-अर्चना के माध्यम से
महिलाएँ अपने पुत्र, भाई, पति और पूरे परिवार के
कल्याण की कामना इस पर्व में करती हैं। पर्व मनाने
वालों का विश्वास है कि इस पूजा से जिनके घर में अन्न
नहीं होता, अन्न आता है, जिसके घर में धन नहीं होता,
धन आता है और जिसके घर में संतान नहीं होती, संतान आती
है। स्त्री केन्द्रित इस उत्सव में समूचा समाज गतिशील
होकर एकता की मिसाल प्रस्तुत करता है। मानव जीवन और
खास कर खेतिहर समाजों के लिए नई उमंग ले कर आने वाली
ऋतु वर्षा के विदा होने के लगभग मनाया जाने वाला यह
लोक उत्सव मानव जीवन और विशेष रूप से खेतिहर समाजों के
लिए नई उमंग लेकर आता है।
१ जुलाई २०२१ |