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पर्व परिचय


होली हरियाणा की
- राजकिशन नैन


हरियाणवी अंचल की होली संबंधी लोक कहावतों से होली का महत्व साफ दृष्टिगोचर होता है। होली से जुड़ी कहावतें गाँवों में अब भी सुनने को मिलती हैं। एक नमूना दृष्टव्य है-
‘हरिणाकुस होली रची नल राज्जा दिवाली पहलाद भगत नै मंगाली पालियाँ नै खंगाली।’ (राजा हिरणकश्यप ने होली की रचना की, राजा नल ने दिवाली की। प्रह्लाद भक्त ने होली को ज्वलन्त किया और चरवाहों ने उसे खंगाला।)
दिवाली के दिन ‘हीड़ो’ और होली के दिन ‘होरहा’ का जोर रहता है। कहावत है ‘होली पर होरहा दिवाली पर हीड़ो।’

सावनी तीज के बाद त्योहारों की झड़ी लग जाती है, किंतु होली के उपरांत त्योहारों को विराम लग जाता है ‘आई तीज बखेरगी बीज आई होली भर लेग्यी झोली।’ (तीज आई बीज बिखेरेगी और होली आई झोली भरकर चली गयी) बाँगरू की एक पुरानी कहावत में होली के तमाशे को सर्वोच्च स्थान दिया गया है ‘धीणा धौली का, जमाई कौली का डिठोरा न्योली का तमाँस्सा होली का।’ (दूध गाय का, जमाई कौल का (आपने वायदों का पालने करने वाला, रौब पैसे का और तमाशा होली का), ‘होली-सी मंगलना’ (होली सा प्रज्वलित होना), ‘होली पाच्छै बुडक़ल्यां का के काम? (होली के बाद बड़कुलों का क्या काम?), एक घर होल़ी अर एक घर दिवाली (किसी के घर होली किसी के घर दिवाली) तथा कोए गावै होली के, कोए गावै दिवाली के’ (कोई गाए होली कोई गाए दिवाली) नामक कहावतें भी होली की प्रशस्ति में गढ़ी गयी हैं।

आज होली पर हमारे घरों में लज़ीज़ व्यंजन बनते हैं, किंतु पहले इस अवसर पर सर्वत्र शक्कर, चावल खाने की प्रथा थी। बाँगरू की एक कहावत से इस तथ्य की पुष्टि होती है- ‘भोला बूज्झै भोली नै के रांधैगी होली नै? टींट बाड़वा सभ दिन रंधै सक्कर चावल होल़ी नै।’ यह कहावत मैंने अपनी माँ के मुँह से सुनी थी।

होल़ी की झलों में नये अनाज की बालियाँ भूनकर खाने की परंपरा हमारे यहाँ सदियों से है। बाँगरू की एक कहावत से यह बात प्रमाणित होती है‘फाग्गण की पूरणमाँ पसरी, होली हुई सवाई हरी गोचणी, होल़ छिकाऊ, कचिया ‘गोहे’ ल्याई।’ अग्नि में अन्न भूनने की शाश्वत परंपरा के कारण ही इस त्योहार का नाम होली पड़ा है। संस्कृत में अन्न की बाली को ‘होला’ कहते हैं। जिस लोकोत्सव में नये अन्न की बाली को अग्नि में भूना जाता है, वह होली है। अधपके चनों के आग में भुने हुए छोलियों को हम अब भी होला कहते हैं। होली इसी होला का अपभ्रंश है। होली का सत्कार करने के लिए हम नये अन्न का पहला भोग होली को लगाते हैं। होली की झल दिखाए बगैर हम नये अन्न में झूठ नहीं डालते। गन्नों के साथ गेहूँ की बालें और चनों के बूँट बाँधकर हम गन्नों को मंगलती (प्रज्वलित करती) हुई होली की झलों (लपटों) में से घुमाते हैं। अधपकी टाट और बालियों को होली की लपटों में भूनने पर जो ‘गोहे’ तैयार होते हैं, उन्हें हमारी दादी-नानी सतयुग से प्रसाद के तौर पर बाँटती आ रही हैं। गोहे लज़ीज और पौष्टिक तो होते ही हैं, ये हमें संक्रामक बीमारियों से भी बचाते हैं। होली की लपटों के ताप से आपूर्ण गन्ने चूसने का शकुन गाँवों में अब भी यथावत है। ऐसे गन्नों से गले की खराश दूर होती है। नाथों के डेरों में होली के दिन ‘रोट’ बनाकर प्रसाद के तौर पर वितरित करने की परंपरा है। सौंफ और गोलागिरी से युक्त ये रोट उपलों के लाल अंगारों पर सेके जाते हैं। इन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए इनको उपलों की ‘भूभल’ में दबाया जाता है। भूभल में पकाने पर रोट परमल की तरह पाचक हो जाता है। बड़ा रोट सवा मन का होता है।

हरियाणा में होली के त्योहार का सिलसिला मकर संक्रांति से प्रारंभ हो जाता है। होली से कोई पौने दो महीने पहले मकर सक्रांति के दिन होलिका दहन के स्थल को गाय के गोबर से लीपकर सर्वप्रथम भूमिपूजन किया जाता है। भूमि पूजन के पश्चात होली का ‘डांडा’ गाड़ा जाता है। डांडा, होलिका-दहन की जगह गाड़ा जाने वाला मुख्य छड़ा है। इसे हम ‘होलिका-दंड’ के नाम से जानते हैं। देश में होली का डांडा सर्वप्रथम हरियाणवी लोग गाड़ते हैं। ब्रज की होली यद्यपि बड़ी प्रसिद्ध है, किंतु अंचल में होली का डाँड्डा बसंत पंचमी के दिन गड़ता है। जबकि हरियाणा में डांडा गाडऩे के लिए मकर-सक्रांति का दिन नियत है। यह प्रसंग हरियाणवी लोगों की अतिरिक्त मस्ती और उत्सवप्रियता का द्योतक है। डांडा गाडऩे के बाद होली तक पाली लोग डांडे के इर्द-गिर्द लकडिय़ों का बड़ा ढेर एकत्र कर देते हैं। हरियाणा में होली का डांडा गडऩे के पश्चात ब्याहली लड़कियों को सासरे में नहीं भेजा जाता। बुजुर्गों का कथन है कि नवविवाहिता लड़कियों को पहली बार ससुराल की मंगलती हुई (प्रज्ज्वलित) होली नहीं देखनी चाहिए। फाल्गुन बदी त्रयोदशी के शुभ दिन हरियाणवी स्त्रियाँ होली की खातिर सात-सात बड़क़ुले बनाती हैं, जिन्हें हम गूलरी के नाम से जानते हैं। फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन बडक़ुलों की तरह स्त्रियाँ गाय के गोबर से पाँच ढाल, एक तलवार, सूर्य, चंद्र, नारियल, आधी रोटी एवं होलिका माता बनाती हैं। सूखने के बाद होली के दिन इन चीजों को नारियल की रस्सी में पिरोकर होलिका को अर्पित करने की परंपरा है। फाल्गुन सुदी अष्टमी को होलिकाष्टक लग जाते हैं। इसलिए फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन की पूर्णमासी तक विवाह और यात्रा सरीखे शुभ कार्य करने की मनाही है।

बड़े बुजुर्ग होली मंगलाने के लिए सही मुहूर्त निकलवाया करते। वे दियासलाई की बजाय पत्थर रगडक़र होली की अग्नि जलाते थे। होली को मंगलाने से पूर्व वे होली के इर्द-गिर्द कच्ची कूकड़ी (कपास) का सूत लपेटना न भूलते थे। पुरुष होली मंगलते समय कैर की लकड़ी के बने तेगे लेकर होली के चारों ओर खड़े हुआ करते। समूचा गाँव एकत्र होने के बाद होली मंगलाने का विधान शुरू किया जाता था। होली को अग्नि देने से पूर्व होली को अर्घ्य देते समय हमारे बड़े यह मंत्र जपते थे- ‘होलिके च नमस्तुभ्यं, ढुंढा तेजो विमर्दिनी। सर्वोपद्रव्य शान्त्यर्थं गृहाणार्घ्य नमोस्तुते॥’ दो पीढ़ी पहले तक होली मंगलाने से पूर्व नयी नवेलियाँ सोलह श्रंगार होने के बाद होली से थोड़ी दूर हटकर अन्य स्त्रियों के साथ यह कहकर नृत्य का घमोड़ा मारा करती कि-‘एरी, छिकमाँ एड बजाओ। सम्मत सुथरा होवैगा।’ होली मंगलते समय बहनें अपने भाईयों के सिर पर सफेद बाँसे के फूल रखा करती। कहीं-कहीं इस कार्य हेतु पीली कंडाई के फूल व्यवहार में रहे हैं।

होली के दिन आँगन और घर की साल में भी फूल बिखेरने की रीत रही है। हमारी चाची-ताई होली की झल देखने के बाद ही बिटोड़े का ‘मुँहछप’ किया करतीं। होली मंगलने से पहले बिटोड़े की ‘मंगरी’ भरना कतई निषिद्ध था। हमारे बड़े होली की झल़ देखकर आगामी संवत की भविष्यवाणी कर दिया करते। हरियाणा के कुम्हार भी होली के दिन एक शकुन साधा करते। होली के दिन हमारे कुम्हार अपने घरू चाक पर चार कसोरे उतारते थे। कसोरों को चाक से उतारने के बाद कुम्हार उन कच्चे कसोरों में पानी भरकर उनको एक जगह पर रख देते थे। कसोरों में पानी भरने से पहले कुम्हार चारों कसोरों पर चौमासे के चारों महीनों के नाम लिख दिया करते। इन महीनों के नाम साढ, सावन, भादों एवं आसोज हैं। उन कसोरों में से जो कसोरा पहले बिखरता, उसी माह वर्षा की आस हुआ करती अब वैसे शकुन पीछे छूट गए हैं।

होली मंगलने के बाद अगली सुबह होली का डांडा तालाब में सिलाया (बुझाया) जाता है। होलिका-दहन के बाद शीतला सप्तमी तक होलिका दहन के स्थान पर नित्य बासी पानी डालने की रीत है। होली का सीद्धा काढने की प्रथा भी हरियाणा में पुरानी है। नेम्मीं-धरमीं स्त्रियाँ पड़वा के दिन होली की राख को पूजती हैं और होली की परिधि में से अग्नि लाकर आग जलाती हैं। होलीकोत्सव पर स्वांग-तमाशे और राग-रंग के अभिवन्दन की मंगल परंपरा हरियाणा में महाराजा हर्ष के काल से चली आती है। महाराजा हर्षवर्धन की राजसभा में झुगला धारी ठट्ठेबाज होते थे, जो होली के अवसर पर लोगों को हँसा-हँसा कर लोटपोट किया करते। उन दिनों राज दरबार में मसखरी करने वाले हँसोड़ लोगों को भी इज्जत बक्शी जाती थी।
बड़े-बड़े नवाब और पठान जागीरदार देहाती स्त्री-पुरुषों के साथ मिलकर होली खेला करते। मराठों की रानियों के संग भी हरयिाणवी नवाब होली खेलते थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार का मुँह देखने के बाद मराठा लोग काफी समय तक हरियाणा में रहे थे। सदाशिव राव भाऊ ने बारह वर्ष साँघी गाँव में बिताये थे। साँघी गाँव में भाऊ की समाधि बनी हुई है। उस समय के एक होली गीत में एक मुस्लिम नवाब एक हिन्दू स्त्री को होली खेलने का न्योता देता है। होली का वह गीत मेरी स्वर्गवासी माँ ने मुझे तीस साल पहले सुनाया था। गीत की बानगी हृदय के तारों को झंकृत करने वाली है-
‘होली खेल्हण नै आवै नवाब, कहिए मरैहट्टंण नै होली बी खेल्है,
ढपड़े बजावै, चालता उड़ावै गुलाल, कहिए मरैहट्टंण नै।
पाणी बी गेरै, धूल उड़ावै, घोड़े पै आवै, हाथी बी ल्यावै,
अर साथियाँ नै ल्यावै साथ्य, कहिये मरैहट्टंण नै।
लाड्डू बी बाँटै, पेड़े बी बाँटै, कैर कटाकै नैं डंड्डा घड़ावै
द्यूं क्ये साथियाँ कै मार्य, कहिए मरैहट्टंण नै।
हाँसला घड़ावै फिरंगी का छोहरा, कठला घड़ावै नवाब, कहिए मरैहट्टंण नै।
कोरड़े बी मारै, खालड़ा बी तारै, म्हारे खंडवे की राक्खै ल्हाज, कहिए मरैहट्टंण नै
होली खेल्हण नै आवै नवाब, कहिए मरैहट्टंण नै।
(मराठों से कहना नवाब होली खेलने आएगा। होली भी खेलेगा, ढप भी बजायेगा और चलते समय गुलाल भी उड़ाएगा। पानी भी डालेगा, धूल भी उड़ाएगा। घोड़े पर आएगा और हाथी भी लाएगा और साथियों को साथ लायेगा। लड्डू भी बाँटेगा, पेड़े भी बाँटेगा। कैर वृक्ष कटवाकर डंडा बनवायेगा। साथियों के मार दूँ क्या। फिरंगी यानी अंग्रेज का लड़का हसली बनवायेगा, नवाब कठला बनवा कर देगा। कौड़े भी मारेगा चमड़ी उधेड़ेगा, मगर हमारी पगड़ी की लाज रखना।)

हरियाणा के कर्णरसिक बारह महीने तक एडी उठा-उठाकर होली की बाट जोहते हैं। बड़ों के समय कनरसियों को फाल्गुन के तीसों दिन धमाल, चौपाई, सबद, रसिया और जोगीड़ा के रस भीने स्वर सुनायी दिया करते। फाल्गुन का महीना फगुआ गाते-गाते निकल जाता था। कहावत भी है-‘वह किसान मेरे मन को भाये, ईख पीडक़र फगुआ गाये।’ तब, फगुआरे और हुलियारे पाँच-पाँच दिन तक रोटी की कौर न तोड़ते थे। रात-दिन डफ बजाते रहते थे। डफ नृत्य देखते ही बना करता। डफ के अलावा ढोल, थाली, झांझ और मंजीरा का सोहन संगीत भी कर्णप्रिय होता था। बागड़ में मकर-सक्रांति से फाग तक सेठों के चौबारे और बगीचियाँ हुलियारों के लिए खुले रहते थे। अमीरों की अटारी से लेकर भिखमंगों की देहरी तक गीतों की गमक एवं नृत्यों की धमक सुनायी पड़ती थी। नाच-गान की तंरग से मन मादक हो उठता था। होली के बहाने सारा जहान जुड़ता था। हँसी-ठहाकों से सिमाणा गूँजता था। पिस्ता और बादाम डालकर भांग छनती थी। जो भी मेहमान आता प्रसाद चखकर जाता था। दिन-रात बागड़ी नाच और गाने होते थे।

हरियाणा लोकगीतों में होली का सोता बहता है। फाल्गुनी गीतों का कोई ओर-छोर नहीं। होली गीतों में माटी की सोंधी गंध महकती थी। गाँव-गाँव, गली-गली होली गीतों का ज्वार उमड़ता था। धरती पुत्र अपने श्रम की थकान फगुआ और चैती सरीखे गीतों से दूर करते थे। होली गायन की प्रतिस्पर्धा में गाँव के गाँव एकत्र होते थे। बडेरे हुलियारे ऊँची और जोशीली आवाज में धमाल राग गाया करते। धमाल राग में इतिहास, पुराण, श्रंगार, नीति और धर्म से जुड़े कथानकों को वरीयता दी जाया करती। धमार राग के चन्द टप्पे दृष्टव्य हैं-
‘लिछमन कै रै बाण, लाग्गी रै सकती लिछमन कै।
इसा रै हो कोए बीरा नै जिवाले, आधा राज, सवाई धरती।
लिछमन कै रै बाण, लाग्गी रै सकती लिछमन कै।
के तो जिवाले सीता रै सतवंती, के तो जिवाले हनुमान जती।
सत तैं जिवाले सीता रै सतवंती, बूंटी तैं जिवाले हनुमान जती।
लिछमन कै रै बाण, लाग्गी रै सकती लिछमन कै।
(लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने पर राम कहते हैं- लक्ष्मण को शक्ति बाण लग गया है। कोई ऐसा है जो भाई को जिंदा कर दे। ऐसा करने वाले को आधा राज्य और सवाई भूमि दे देंगे। जवाब में कोई विद्वान कहता है- या तो सती सीता जिन्दा कर सकती है। या जति हनुमान कर सकते हैं। सती सीता तो अपने सत यानी सतीत्व से और जति हनुमान बूटी से जिन्दा कर सकते हैं।)

होली के दिनों चौपाई गायन सुनकर भी मन हिलोरें लेने लगता है। बीसेक साल पहले तक ब्रज से सटे हरियाणा में चौपाई की झाँकी कदम-कदम पर दिखायी देती थी। चौपाई गायन की विधा अत्यन्त पुरानी है। चौपाई गायन में गाँव बनचारी के कवि और गवैये सदैव से अगाड़ी रहे हैं। सोरोतों की चौबीसी का यह गाँव होडल के निकट आबाद है। बनचारी के कवि ‘झड़’ गायकी में अव्वल रहे हैं। झड़ की गिनती झूलना शैली के अंतर्गत की जाती है। ब्रज की झूलना शैली बनचारी अखाड़े की देन है। बनचारी समेत सोरोत जाटों के चौबीस गाँवों में होली गायन की विधा ‘फूलडोल’ के नाम से मशहूर है। चैत्र बदी तृतीया से लेकर चैत्र बदी दसमी तक सोरोतों की चौबीसी में फूलडोल की धूम रहती है। सूरदास के समय सोरोत जाट चैत्र-शुक्ल एकादशी को फूलडोल का उत्सव मनाते थे। हमारे देशज कवियों में बनचारी के लोक कवियों ने होली की मधुराई पर सर्वाधिक उत्कृष्ट रचनाएँ रची हैं। बनचारी के लोक विश्रुत कवि भक्त तुलाराम द्वारा रचित ‘रंग मधुरी’ नामक कविता की एक बानगी इस प्रकार है‘-
अलग-अलग रंग पाँच हैं, मिलकर होएँ अनेक।
रंगों के विस्तार की रचना सुनिए एक॥
अदरखी असमानी, काही तेलई दमदानी देखो धूपिया और धानी, तीतरवर्णा फालशाई है....
आमिया अंगूरी सो है कासनी कपूरी सुंदर संतरी सिंदुरी, बिजुआ और फाखताई है
इमलिया उन्नावी, गुटिया गेहुंआ गुलाबी झलकै मूंगिया मुरगाबी, देता शरबती दिखाई है
कंजई कपासी, हरियल हौलदिली हुल्लासी मुश्की और उर्दिया मासी, ऐसी चुंदरी रंगाई है।
रंगों से जुड़े ऐसे सटीक और जीवंत बिम्ब-वृत्त किसी भी अन्य साहित्य में भी अप्राप्य हैं। रंगों को इतनी नफासत के साथ काव्य में पिरोने वाले हरियाणवी हुलियारों का रंगों से कितना गहरा जुड़ाव रहा होगा, यह सहज ही सोचा जा सकता है।

फूलडोल के दिनों देव विग्रह का श्रंगार देशज फूलों से करने की परंपरा है। अफगानों के अलावा हरियाणा के तमाम मुसलमान होली खेलते थे। हरियाणवी नवाबों के दरबारों में होली की महफिलें सजा करती। होली के जरिये समस्त हरियाणवी अंचल में गंगा-जमुनी संस्कृति की अद्भुत मिसाल पेश की जाती थी। बेगमें, शहजादियाँ और अमीर जादियाँ बारजों और झरोखों में बैठकर होली का हुड़दंग देखतीं थी। हरियाणा के उर्दू कवियों ने होली के सांस्कृतिक परिवेश को होलियों और फागों में पिरोकर कई शाहकार रचनाएँ दी हैं। सैयद गुलाम हुसैन शाह ‘महमी’ अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में एक मशहूर कवि और शायर हुए हैं। महमी साहिब ने कई होलियाँ लिखी थीं। महमी की एक रचना में हरियाणवी होली का मंजर देखें-
‘अपनी उमंगवा से होली मैं खेल्हूं, पिया मोसे मिलके बिछुड़ गयो री।
पिय बिन मो को कल न परत, पिया को मो बिन सर गयो री।
केसर घोल मैं रंग बनाया, मेरा सगरो ही रंग बिखर गयो री।
आप न आये द्वारका बसाये, मेरी सूनी मंढिया कर गयो री।
गंगा-जमना दोनों बसत हैं, आज ‘महमी’ पार उतर गयो री।

महमी साहिब नंद नंदन श्रीकृष्ण के भक्त थे। अपनी इस नायाब रचना में महमी ने श्रीकृष्ण को उलाहना दिया है। कृष्ण को याद करने के लिए महमी ने होली को मौजू बनाया है। पाकिस्तान में महमी की होलियाँ आज भी चाव से गायी जाती हैं। हमारे बड़े होली के दिनों जोगीड़ा गाया करते। होली के अवसर पर गाये जाने वाले अश्लील गीतों को हम जोगीड़ा कहते हैं। इसके अतिरिक्त रसिया भी फाल्गुन में गाया जाता है। रसिया के रसास्वादन का अवसर जिन हुलियारों व वयोवृद्धों की जवानी में आया है, वे इसकी रसिकता को हमसे ज्यादा जानते हैं।

होली के अगले दिन धुलैंढी होती है। धुलैंडी का शाब्दिक अर्थ धूलिवन्दन है। हमारे बड़े गुलाल की बजाय होलिका की राख उड़ाकर इस पर्व की साध पूरी किया करते। राख के साथ धुलैंडी खेलने के कारण बड़ेरे इस त्योहार को ‘छारंडी’ कहकर पुकारा करते। छारंडी, क्षार अथवा भस्म का अपभ्रंश है। बाँगरू की एक पुरानी कहावत में भी धुलैंढी का संबंध धूल से बताया गया है ‘पैंह्डे तैं पैंह्ढी धूल तैं धूलैंह्ढी।’ हम धूल-माटी में रेंगकर बड़े हुए हैं। धूल-माटी हमारा ओढना बिछौना है। धरती की धूल को हम मस्तक पर चढ़ाते हैं। अखाड़ों की धूल में लोटकर हमारे गभरू ‘मल्ह’ बनते आए हैं। अत: होली पर हम उत्साह से एक दूसरे को धूल मलते हैं। होली की जली हुई राख चेचक के रोग को पास नहीं फटकने देती। जब रंग की तंगी होती है तो हम होली की राख से काम चला लेते हैं। टेसू का रंग भी चेचक को निकट नहीं आने देता। टेसू को हम ढाक कहकर पुकारते हैं। ढाक का सौंदर्य बड़ा मारू और मनोहर होता है। ढाक की लकड़ी भी पवित्र मानी गई है। धार्मिक अनुष्ठान में हम ढाक की लकड़ी को प्राथमिकता देते हैं। हमारे ब्रह्मचारी ढाक की लकड़ी का दंड धारण करते हैं। ढाका पहलवान के गाँव ढाकला (जिला झज्जर) का नाम बुजुर्गों ने ढाक वृक्ष के नाम पर ही रखा था। मजीठ, मेंहदी, हल्दी और नील के पौधे से भी हम रंग प्राप्त करते रहे हैं। सिंघाड़े का आटा पीसकर उसमें हम भांति-भांति के रंग मिलाते हैं। गुलाल में सिंघाड़े का आटा मिलाकर मुँह पर मलने से कई संक्रामक रोगों से रक्षा होती है।

हरियाणा में फाग अथवा धुलैंडी का त्योहार ‘कब से’ और ‘क्यों’ मनाया जाता है, इस संबंध में प्रमाण सहित कुछ कह सकना कठिन है। ऐसा कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है जो इस त्योहार की शुरुआत का सही व सटीक दिन बता दे। हमारे बड़े इसकी शुरुआत महाभारत काल में हुई बताते हैं। हरियाणवी लोकगीतों में श्रीकृष्ण और रुक्मणी के फागों का अत्यन्त सजीव और सलोना चित्रण मिलता है। एक गीत देखने वाला है-
‘कोरे-कोरे कलस भराए घोल्या केस्सू रंग।
होली खेल्ह रहे बनवारी, मिलकै रुकमण जी के संग॥
भर्य पिचकारी मुख पै मारी, बेस्सर हो गई तंग।
होली खेल्ह रहे बनवारी, मिलकै रुकमण जी के संग॥
भर्य पिचकारी दाम्मण पै मारी, दाम्मण हो गया तंग।
होली खेल्ह रहे बनवारी, मिलकै रुकमण जी के संग॥
भर्य पिचकारी पंज्यां पै मारी, बिछुए हो गए तंग।
होली खेल्ह रहे बनवारी, मिलकै रुकमण जी के संग॥

सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में कृष्ण के फाग खेलने का विवरण मौजूद है। हरियाणा की हवेलियों, चौपालों, शिवालयों और ठाकुरद्वारों आदि में बने सैकड़ों वर्ष पुराने भित्ति-चित्रों में हुआ कृष्ण के फाग का चित्रण अभिभूत करने वाला है। इन चित्रों से संकेत मिलता है कि श्रीकृष्ण का फाग के त्योहार से घनिष्ठ संबंध रहा है। हरियाणवी फाग की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें जातीयता कहीं आड़े नहीं आती। यहाँ छब्बीस जातियाँ मिलकर उधम उतारती हैं।

पुराने समय में फागुन की फगनौटी बयार से पहले ही जन-मन पर फागुन की मस्ती चढऩे लगती थी। होली से कई दिन पहले रात-रात भर जागकर होलियाँ गायी जाती थी। गाँवों में डफ, ढोलक और थाली की ताल पर लोकगायक होलियाँ गाते थे। एक से एक लहरी गवैया थे। टेसू, गुलाल, हल्दी, दूध और दही मिश्रित रंग की वर्षा होती थी। किंतु अब ऋतु उल्लास का नैसर्गिक पर्व फाग जनमानस से बिछुड़ता जा रहा है- ‘डफ जैसा बाजा गया, गया धमाल-सा राग रंग-ढंग बदला फागुन का, इब कित फगुआ, कित फाग?’

चौपाई भी खत्म होती जा रही है। रस-रंग के साथ होली की तानें गाने वाले बनचारी गाँव जैसे गवैये अब नहीं रहे। बनचारी के गवैये जब गाते थे तो रससिक्त श्रोता नर-नारी वाह-वाह कर उठते थे। बनचारी के गवैये तान के साथ नृत्य करने में भी प्रवीण थे। नगाड़ा बजाने में भी बनचारी वासी कुशल थे। नौल्था (पानीपत) गाँव की होली भी प्रसिद्ध हुआ करती। बड़े-बूढ़े आज भी नौल्था गाँव की होली को नि:श्वास छोड़ते हुए याद करते हैं। महम चौबीसी के गाँवों में कोरड़े से हुरिहाल को लगी चोट से खून निकल आने पर परम सौभाग्य समझा जाता था। होलियाँ तो जो होनी थी वे पहले ही हो ली, वैसे हुरिहार, वैसा हुड़दंग और वैसी होली अब कहाँ? आज की होली रुपये में आना भर भी नहीं रही
होरहा गया, गये हुरिहारे, गयी रंगीली होरी,
न ठट्ठा, न हा-हा, हू-हू, नहीं कहीं बरजोरी।

१ मार्च २०१८

 
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