नाग देवता की पूजा अर्चना का पर्व
नाग पंचमी
-
शशि पाधा
भारतीय नववर्ष की पूर्वसंध्या पर अर्थात चैत्र अमावस
की शाम को प्रत्येक कश्मीरी पंडित घर में पारंपरिक
'थाल बरुन' होता है। काँसे की एक बड़ी सी थाली में
चावल भरे जाते हैं। उसपर कुछ अखरोट, बादाम, दूध, दही,
लेखनी, स्याही की दवात (अब चलन में नहीं), नया
पञ्चांग, अदरक, एक नोट, गेंदे के कुछ फूल विशेषकर
यंबरज्वल (नरगिस), एक छोटा आईना, नमक आदि सजाकर रखे
जाते हैं।
इसे हम 'थाल बरुन' कहते हैं। यानी नववर्ष में उपयोग
में आने वाली ये प्रतीकात्मक चीजें थाली में भरना। इस
थाली को सोने से पहले कमरे में कहीं किसी तिपाई या
मेज़ पर सवेरे तक रखा जाता है। मुँह अँधेरे घर का जो
भी सदस्य पहले नींद से उठता है वह इस थाली का मुँह
देखता है, हाथ जोड़कर नमस्कार करता है, फिर एक एक चीज़
को छूकर श्रद्धा से चूमता है और माथे से लगाकर उसे
वापस थाली में रखता है। इस भरी थाली को बारी-बारी से
घर के प्रत्येक सदस्य के सामने ले जाया जाता है। हर
सदस्य एक दूसरे को नवरेह यानी नववर्ष की शुभकामनाएँ
देते हुए कहता है-"नवरेह पोषतु !" अर्थात् नववर्ष शुभ
हो। थाली में प्रतीक स्वरूप रात भर रखी जाने वाली
चीजें पूज्य-सामग्री बन जाती हैं। कामना की जाती है कि
नववर्ष ऋद्धि- सिद्धि-समृद्धि, नीरोग और दीर्घायु,
सुख-शांति, धन-धान्य, औषधि, वनस्पति आदि की बहुतायत
बनी रहे।
बुजुर्ग कहते थे कि सौ डेढ़ सौ बरस पहले तक नवरेह की
पूर्वसंध्या यानी चैत्र अमावस्या के दिन श्रीनगर के
निकट वर्तमान सोऊरा स्थित 'विचार नाग' तीर्थ पर घाटी
के बड़े-बड़े विचारक, ज्योतिषाचार्य और खगोलविद् तथा
इतिहास के आचार्य आ जुटते। नववर्ष के राशिफल, नवग्रहों
और नक्षत्रों की स्थितियों और उनके फलित का
राज्यराष्ट्र ( संदर्भ -नीलमतपुराण श्लोक ६५८-
व्याधिशत्रुप्रशमनी राज्यराष्ट्र-विवर्धिनी) के जीवन
पर क्या असर पड़ेगा, उसके परिणामों और दुष्परिणामों पर
शास्त्रार्थ होता था। राजा से प्रजा के हित में समाधान
स्वरूप क्या करना अपेक्षित है, उन पर चर्चा होती और यह
सुझाव विचारार्थ तक पहुँचते, ऐसा कहते हैं। और पौ फटते
ही शंख ध्वनियों, घंटों व मंजीरों की आवाजों के बीच
तथा 'नमोतुभ्यं कश्मीरा देवी' के उदघोषों के साथ ही
नववर्ष के पञ्चाँग का लोकार्पण होता।
प्रसंगवश इसी सोऊरा में मध्यकालीन महान सुलतान
जैनुलाब्दीन उर्फ बडशाह के दरबार के
'सर्वधर्म-अधिकारी' शिर्यभट्ट भी रहते थे जो बडशाह के
आततायी और दमनकारी पिता सिकंदर बुतशिकन के डर से जिस
जगह छिपे बैठे थे उसे आज भी "शिर्यबटुन कोचुँ" यानी
शिर्यभट्ट का कूचा नाम से जाना जाता है। इसी मुहल्ले
में ज्ञानपीठ से सम्मानित हमारे वरिष्ठ कश्मीरी कवि
रहमान राही रहते हैं। इसी विचारनाग से कभी कश्मीर घाटी
में सप्तर्षि संवत् यानी नवसंवत्सर का ऐलान होता था और
पुनः प्रसंगवश १९९० में जेहादी आतंकवादियों ने इसी
विचारनाग के बेचारे संन्यासी को भून डाला था। मैं
नवरेह की विशिष्टता पर पुनः लौटने से पूर्व यहाँ यह
बताना चाहता कि 'थाल बरुन' की परंपरा का वसंत की
पूर्वसंध्या पर भी निर्वहन किया जाता है। चैत्र मास के
कृष्णपक्ष की द्वितीया की शाम को भी घरों में वसंत के
आगम के स्वागत में इसी तरह 'थाल बरुन' की रस्म मनाई
जाती है।
नवरेह के अवसर पर शायद ही और कहीं काल का जन्मदिन
मनाया जाता हो, मुझे तो पता नहीं। पर कश्मीर में
'नवरेह' पर काल (समय के अर्थ में) की पूजा ही नहीं,
बल्कि उसका घर घर में जन्मदिन बाजाप्ता मनाया जाता है।
पीले चावल यानी तहरी बनाई जाती है। एक अलग थाली में
उसे एक डेरी के रूप में सजाया जाता है। चारों ओर पंच
महातत्व के प्रतीक स्वरूप तहरी की पाँच पिंडियाँ रखी
जाती है और दो अन्य पिंडियाँ काल के 'अनादि' और 'अनंत
' दो आयामों के प्रतीक के रूप में रखकर उनकी पूजा की
जाती है। अर्थात् काल के इन दो आयामों 'अनादि' तथा
'अनंत' के बीच यह जो विस्तार है वो इस सृष्टि के
पंचमहातत्व से ही संभव है। लेकिन है काल के अधीन।
'कालाय तस्मै नमः'
कभी विख्यात लोकवार्ताकार देवेंद्र सत्यार्थी को भी
कश्मीर में यह जानकर ताज्जुब हुआ था कि कैसे कश्मीर
में भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को वितस्ता (नदी) का
जन्मदिन मनाया जाता है। वितस्ता की पूजा की जाती है।
उसमें शाम को घास की चरखियों पर दिये बहाए जाते हैं।
फूल बहाए जाते हैं। उन्होंने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ
'बेला फूले आधी रात' में लिखा कि दुनिया में और कहीं
भी किसी नदी का जन्मदिन नहीं मनाया जाता है, सिवाय
कश्मीर के। यहाँ कुत्ते का, कौव्वे के जन्मदिन तय है।
नीलमतपुराण के अनुसार नवरेह के दिन ही सृष्टि में काल
की गणना प्रारंभ हुई है। इसलिए काल की पूजा करनी चाहिए
और यह परंपरा से निर्बाध रूप से चली आई है।
प्रश्न उठता है कि अगर कश्मीर में नवरेह से सप्तर्षि
संवत् जो कि ५०९३ प्रारम्भ हो गया है तो यह लाखों
करोड़ों वर्ष पूर्व बनी सृष्टि का संवत्सर नहीं हो
सकता ! कोई भी संवत्सर किसी बड़ी ऐतिहासिक घटना , किसी
महानविजय की स्मृति में या किसी सम्राट की याद में
चलाया जाता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि सप्तर्षि
संवत् नाम से प्रसिद्ध इस कश्मीरी संवत् के प्रारंभ
होने के पीछे क्या कहानी है या हो सकती है? क्या ये वे
ही पौराणिक सप्तर्षि हैं जिन्हें आख्याणों में बार बार
आते हैं?
आज से ५०९३ वर्ष पूर्व ऐसा क्या घटित हुआ होगा और
जिसमें सात ऋषियों की भागीदारी रही होंगी? क्या कश्मीर
में हारी पर्वत (श्रीनगर ) की प्रदक्षिणा करते
'सत्रेष्य' (अर्थात् सप्तर्षि), हंदवारा, कुपवारा और
बारामुला के कई स्थानों पर सप्त ऋषियों से तीर्थस्थल
इस रहस्य के बीज रूप हैं? क्या इन सप्त ऋषियों ने
पूर्वजों से मौखिक परंपरा से आए वेदों की ऋचाओं को
लिपिबद्ध कर संग्रहीत किया था तब? और उस स्मृति में यह
संवत् चल पड़ा हो? यदि ऐसा होता तो कम से कम भारतभर
में विद्वानों को तो जानकारी होती।
मुझे कालिज के दिनों में साधुओं, संन्यासियों और
जोगियों की संगत में रमते एक विद्वान से सुनने को जो
लोक परंपरा का महती सूत्र मिला। उसे मैंने गाँठ बाँध
लिया। उसके अनुसार पूर्वकाल में कभी कश्मीर के
सूर्यतीर्थ मार्तंड में उस युग में तत्कालीन सात
ऋषियों ने भारतीय काल गणना के इतिहास में हर ढाई वर्ष
के बाद बनने वाले तेरह मास के वर्ष की कल्पना को
यथार्थ रूप दिया, जिसे आज हम अधिक मास के रूप में
जानते हैं। इसी के परिणाम स्वरूप तेरहवें सूर्य
अर्थात् मार्तण्ड के जन्म का मिथक हजारों वर्षों में
एक पुराख्याण के रूप में विख्यात हो गया।
उस लोकसूत्र के अनुसार मनुष्य जीवन में यह कालगणना की
परिणति एक अविस्मरणीय घटना रही होगी जो जातीय अवचेतन
का हिस्सा बनती गयी। आज भी हर ढाई वर्ष के बाद कश्मीर
के मार्तण्ड तीर्थ पर अधिकमास पर देशों विदेश से
तीर्थाटन और श्राद्ध करने हेतु आते हैं।
जो भी हो, नवरेह समय के जन्मदिन के रूप में हम मनाते
आए हैं। इस दिन ब्रह्मा की भी पूजा का विधान है।
नीलमतपुराण (पृष्ठ १७७) के अनुसार इस नवसंत्सर पर
ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अतिरिक्त ग्रह, नक्षत्र,
संवत्सर आदि काल के अंगों सहित सातों लोकों, सातों
भुवनों, सातों द्वीपों आदि की पूजा संपन्न करनी चाहिए।
१
जुलाई २०१७ |