कुमाऊँ
का मकर संक्रांति पर्व
घुघुतिया त्यार
—राजेश जोशी
मकर संक्रान्ति का
त्यौहार पूरे भारतवर्ष में बड़ी ही धूमधाम से देश के
अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम और तरीके से मनाया
जाता है। इस त्यौहार को उत्तराखण्ड में "उत्तरायणी" के
नाम से मनाया जाता है तथा गढ़वाल में इसे पूर्वी उत्तर
प्रदेश की तरह "खिचड़ी संक्रान्ति" के नाम से मनाया
जाता है। कुमाऊँ में यह त्यौहार स्थानीय भाषा में
घुघुतिया के नाम से जाना जाता है यह कुमाऊँ का सबसे
बड़ा त्यौहार माना जाता है और मैं समझता हूँ कि यह एक
स्थानीय पर्व होने के साथ साथ हमारा स्थानीय लोक उत्सव
भी है। क्योंकि इस दिन एक विशेष प्रकार क व्यंजन घुघुत
बनाया जाता है जिस कारण कुमाऊँ में मकर संक्रान्ति को
उत्तरायणी के साथ साथ घुघुतिया त्यार के नाम से ज्यादा
जाना जाता है।
घुघुते बनाने की भी अपनी अलग तरह की परंपरा है, यह एक
ऐसा व्यंजन है जो केवल इस अवसर पर ही बनाया जाता है।
वैसे बनाने में यह कोई विशिष्ट व्यंजन विधि नहीं है।
सबसे पहले पानी गरम करके उसमें गुड़ डालकर चाश्नी बना
ली जाती है, फ़िर आटा छानकर इसे आटे में मिलाकर गूँथ
लिया जाता है। जब आटा रोटी बनाने की तरह तैयार हो जाता
है तो आटे की करीब ६" लम्बी और कनिष्का की मोटाई की
बेलनाकार आकृतियों को हिन्दी के ४ की तरह मोड़्कर नीचे
से बंद कर दिया जाता है। इन ४ की तरह दिखने वाली
आकृतियों को स्थानीय भाषा में घुघुते कहते हैं।
घुघुतों के साथ साथ इसी आटे से अन्य तरह की आकृतियाँ
भी बनायी जाती हैं, जैसे अनार का फ़ूल, डमरू, सुपारी,
टोकरी, तलवार आदि; पर सामुहिक रूप से इनको घुघूत के
नाम से ही जाना जाता है। घुघुते बनाने का क्रम दोपहर
के बाद करीब २:०० - ३:०० बजे से शुरु हो जाता है
जिसमें परिवार का हर सदस्य योगदान करता है।
आटे की आकृतियाँ बन जाने के बाद इनको सुखाने के लिए
फ़ैलाकर रख दिया जाता है। रात तक जब घुघुते सूख कर थोड़ा
ठोस हो जाते है तो उनको घी या वनस्पति तेल में पूरियों
की तरह तला जाता है। वैसे इस समय तक बच्चे सो जाते है
पर अगर बच्चों की उत्सुकता अधिक हुई तो किसी को भी
तलते समय बात करने की मनाही रहती है। हमें तो बचपन में
यह कह कर शान्त रह्ने को कहा जाता था कि अगर शोर करोगे
तो घुघुते उड़ जायेंगे। इसका मुख्य कारण यह है कि इससे
रसोइये का ध्यान भंग ना हो, दुसरा कारण यह भी रहता है
कि थूक के छींटे अगर गर्म तेल में पड़ेंगे तो तेल के
छींटे भी काफ़ी नुकसान कर सकते हैं। पर एक विशेष बात यह
रहती है कि घुघुते कौओं को खिलाने से पहले कोई नहीं खा
सकता।
घुघुतों को तलने के बाद इनकी माला बनायी जाती है, जिसे
और सुन्दर बनाने के लिए माला में मूँगफ़ली, स्थानीय फ़ल
जैसे मालटा/नारंगी, बादाम की गिरी या अन्य मेवे भी
पिरोये जाते हैं। घुघुतों की माला बनाने के बाद इनको
अगले दिन कौओं खिलाने की तैयारी के साथ सँभालकर रख
दिया जाता है।
कुमाऊँ के अल्मोड़ा, चम्पावत, नैनीताल तथा उधमसिंहनगर
जनपदीय क्षेत्रों में मकर संक्रान्ति को (अर्थात माघ
मास के १ गते को) घुघुते बनाये जाते हैं और अगली सुबह
(२ गते माघ को) को कौवे को दिये जाते हैं (कौओं को
पितरों का प्रतीक मानकर यह पितरों को अर्पण माना जाता
है)। वहीं रामगंगा पार के पिथौरागढ़ और बागेश्वर अंचल
में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या (पौष मास के अंतिम
दिन अर्थात मसान्त) को ही घुघुते बनाये जाते हैं और
मकर संक्रान्ति अर्थात माघ १ गते को कौवे को खिलाये
जाते हैं।
वैसे तो पहाडों में कौए को प्रिय माना जाता है और तड़के
उसका स्वर घर के आस पास सुनायी देना शुभ माना जाता है
पर इस दिन कौओं की विशेष पूछ रहती है। छोटे-छोटे बच्चे
भी तड़के उठ, स्नान करके तैयार हो जाते हैं और घुघुतों
की माला पहन कर कौवे को आवाज लगाते हैं;
काले कौवा का-का, ये घुघुती खा जा
काले कौव्वा का-का, पूस की रोटी माघे खा
इसी प्रकार के कई नारे हैं जैसे
काले कौआ काले, घुघुति माला खा ले आदि
इसके बाद शुरू होता है रिश्तेदारों तथा मित्रगणों के
घर-घर घुघूते बाँटने का सिलसिला और यह कई दिनों तक
चलता रहता है। जो सद्स्य घर से दूर रहते हैं उनके लिए
घुघूते सम्भाल कर रख दिये जाते हैं, जिससे जब वह घर पर
आयें तो उनको खाने के लिए दिये जा सकें। जो लोग अपने
घर से दूर रहते हैं उनको भी घुघूते खाने का इन्तजार
रहता है। आजकल घुघूते प्रियजनों तक पार्सल और कोरियर
के माध्यम से भी भेजे जाने लगे हैं। वैसे घुघूतिया के
दिन घुघूते बनाने के बाद इनको आवश्यकतानुसार बसन्त
पंचमी तक बनाया जा सकता है, पर इस दिन इनको हर घर में
बनाया जाना आवश्यक होता है।
घुघुतिया त्यार से सम्बधित एक कथा प्रचलित है-
कहा जाता है कि कुमाऊँ में एक राजा था जिसके मंत्री का
नाम घुघुतिया था। घुघुतिया एक कुशल योद्धा होने के साथ
साथ बड़ा ही महत्वाकांक्षी भी था। धीरे धीरे उसकी
महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गयी कि वह खुद राजा बनने की
सोचने लगा। एक बार जब वह अपने किसी साथी के साथ राजा
को मारकर ख़ुद राजा बनने का षड्यन्त्र रच रहा था तो एक
कौए ने उनकी बातें सुन ली। कौआ बड़ा ही चतुर पक्षी समझा
जाता है, जिस कारण ही बाल कथाओं में प्यासे कौए की
कहानी बड़ी प्रसिद्ध है।
कौव्वे को जैसे ही राजा की हत्या की साजिश की जानकारी
हुई, उसने तुरन्त आकर राजा को इस बारे में सूचित कर
दिया। राजा को पहले तो विश्वास नहीं हुआ परन्तु उसने
घुगुतिया को गिरफ़तार कर कारागार में डाल दिया। जिसके
बाद जाँच में बात सही पाये जाने पर राजा द्वारा मंत्री
घुघुतिया को मृत्युदंड मिला। कौए की इस चतुराई और राजा
के प्रति राजभक्ति से राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उसने
राज्य भर में घोषणा करवा दी कि मकर संक्रान्ति के दिन
सभी राज्यवासी कौव्वों को पकवान बना कर खिलाएँगे। तभी
से कौओं के प्रति सौहार्द प्रकट करने वाले इस अनोखे
त्यौहार को मनाने की प्रथा की शुरूवात मानी जाती है।
विश्व में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई त्योहार मनाये
जाते हैं पर कौओं को विशेष व्यंजन खिलाने का यह अनोखा
त्यौहार उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल के अलावा शायद कहीं
नहीं मनाया जाता है। वैसे कौए की चतुराई के बारे में
कहावत है कि
मनुष्यों में नौआ और
पक्षियों में कौआ
अर्थात मानवों में नाई और पक्षियों में कौआ सबसे
बुद्धिमान होते हैं। कौए की चतुराई के बारे में कई
वैज्ञानिक शोध भी हो चुके हैं जिनसे भी इस बात की
पुष्टि हुई है कि कौए का मष्तिष्क अन्य पशु-पक्षियों
से अधिक विकसित होता है।
काले कवा काले, घुघुती मावा खा ले - घुघुती त्यौहार
मुबारक ! |