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झारखंड
के आदिवासी पर्व
-डॉ. राम जन्म मिश्र
अयस्कः पात्रे पयः पानम् शाल पत्रे च भोजनम्।
शयनम् खर्जुरी पत्रे झारखण्ड विधियते।।
मनु संहिता में झारखण्ड के विषय में उल्लिखित यह श्लोक
बताता है कि झारखण्ड के रहने वाले धातु के बर्तन में
पानी पीते हैं। शाल के पत्तल में भोजन करते हैं एवं
खजूर की चटाई पर शयन करते हैं। इतना ही नहीं झारखण्ड
के निवासी झरनों का मधुर संगीत सुनते हैं। पत्तों की
मर्मर ध्वनि पर हर्षित एवं पुलकित होकर मंदिर की थाप
पर थिरकते हैं। बीहड़ जंगलों में हिंसक पशुओं का शिकार
करते हैं। साल भर ऋतु परिवर्तन के साथ ही पर्व-त्योहार
मनाते हैं। अभाव उनके आनंद में विघ्न नहीं डालता है।
शांत एवं जंगलों में स्वाभिमान के साथ जीवन बिताने
वाले इन आदिवासियों का जब स्वाभिमान आहत होता है, वे
दुर्धर्ष एवं हिंसक बन जाते हैं। जिसका परिणाम
है-तिलका माँझी का आन्दोलन (१७७२-१७८३), चेरो आन्दोलन
(१७९५-१८००), तमाड़ विद्रोह (१८१९-१८२०), कोल विद्रोह
(१८३२-१८३३), संताल विद्रोह (१८५५-१८५६)। इन्हीं
आन्दोलनों के बाद १८५७ से भारत का प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम शुरू होता है।
स्वतंत्रता आन्दोलन का अनेक कुर्बानियों के बाद सुखद
परिणाम १५ अगस्त १९४७ को देश की आजादी है। स्वतंत्रता
के बाद भी झारखण्ड क्षेत्र में शोषण-उत्पीड़न होता
रहा-जिसके चलते अलग राज्य के लिए आन्दोलन शुरू हुआ, जो
विभिन्न घात-प्रतिघातों के बाद फलीभूत हुआ। परिणाम
स्वरूप १५ नवम्बर २००० भगवान बिरसा के जन्मदिन पर
झारखण्ड स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आया।
झारखण्ड का जनजीवन नृत्य, गीत, संगीत एवं
पर्व-त्योहारों से भरपूर है। ऋतु के अनुसार पर्व
त्योहारों का आयोजन समूह में होता है। सामूहिकता ही
आदिवासी जनजीवन की पहचान है। लोक गीत, नृत्य में
जनजाति की पहचान है। लोक गीत-नृत्य में जनजाति समूह के
वाद्ययंत्रों नगाड़ा, ढोलक, माँदर, बाँसुरी, झाँझ
इत्यादि का प्रयोग पर्व-त्योहारों के आनन्द को
द्विगुणित करते हैं।
झारखण्ड के प्रमुख पर्व-त्यौहार-झारखण्ड के
पर्व-त्योहारों की अपनी मस्ती है, उमंग है। यहाँ के
पर्व-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के परिचायक के साथ
ही साम्प्रदायिक सद्भाव के महत्वपूर्ण आश्रय हैं। गीत
नृत्य वाले इन पर्व त्योहारों को अबाल वृद्ध व वनिताएँ
एक साथ बड़ी ही मस्ती के साथ मनाते हैं। उम्र की खाई
समाप्त हो जाती है। 'हड़िया' की मदहोशी के बाद भी उनमें
शालीनता शिष्टाचार बरकरार रहता है। आदिवासी जनजीवन
प्रकृति पर निर्भर है। उनके पर्व-त्योहार कृषि चक्र पर
आधारित हैं।
संतालों का प्रमुख पर्व सोहराय धान फसल के तैयार होने
पर मनाया जाता है। पाँच दिनों तक चलने वाले इस पर्व
में प्रथम दिन 'नायके 'गोड़टाँडी (बथान) में एकत्रित
होते हैं। जोहरा ऐरा की पूजा कर मुर्गे की बलि दी जाती
है। चावल-महुआ निर्मित 'हड़िया' चढ़ाया जाता है एवं
माँझी के आदेश से उपस्थित जन समुदाय नाच-गान करते हैं।
दूसरे दिन 'गोहाल पूजा' तीसरे दिन 'सुटाउ' होता है।
जिसमें बैलों को सजाकर मध्य में बाँधकर उसके
इर्द-गिर्द नाच-गान करते हैं। चौथे दिन 'जाले' में
अपने-अपने घरों से खाद्यान्न लाकर एकत्रित करते हैं।
सामूहिक भोज की तैयारी होती है।
यह सब मोद-मंगल, नाच-गान माँझी की देखरेख में होता है।
सोहराय के बाद 'साकरात' आता है जिसमें समूह में
शिकारमाही होती है। शिकार में किये पशु-पक्षियों के
माँस को 'मरांग बुरू' को समर्पित सहभोज होता है।
वर्षाकाल 'एरोक' बीज बोने का पर्व, खेतों की हरियाली
के लिए 'हरियाड़' अच्छी फसल के लिए 'जापाड़' मनाया जाता
है। सभी पर्वों में बलि प्रदान एवं 'हड़िया' अर्पित कर
समूह नृत्य का आयोजन होता है।
हो जनजाति होली, दीवाली, दशहरा मनाते हैं। देवताओं के
महादेव की पूजा करते हैं। कृषि की उन्नति एवं
प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए 'माघी' 'वाहा' 'होरो'
'कोलोम' 'बेतौली' इत्यादि पर्व भी स्थान विशेष पर
मनाते हैं।
उराँव जनजातियों में 'फागू' 'सोहराय' 'माघे' 'करमा'
इत्यादि प्रसिद्ध पर्व हैं। 'खद्दी', 'चांडी', 'जतारा'
पर्व भी उराँव मनाते हैं। सभी पर्व सामूहिक रूप से
सरना स्थलों पर समूह में मनाए जाते हैं। माघी पूर्णिमा
के अवसर पर होने वाले चांडी पूजा में स्त्रियाँ भाग
नहीं लेती हैं। चांडीथान में बलि प्रदान किया जाता है।
जतरा पर्व अगहन जतरा, देवथान, जतरा, जेठ जतरा के नाम
से समय-समय पर मनाए जाते हैं।
संताल परगना में रहने वाली पहाड़िया आदिम जनजाति 'गाँगी
आड़या', 'पनु आड़या' 'ओसरा आड़या' क्रमशः मकई, बाजरा एवं
घघरा फसलों के होने पर मनाते हैं। इन पर्व के अतिरिक्त
हिन्दू पर्व-त्योहारों को भी पहाड़िया मनाने लगे हैं।
इनके पर्व-त्योहारों में भी नाच-गान के बाद बलि प्रथा
है। हड़िया पीना होता है। पहाड़िया जनजाति के अन्य भाग
माल एवं कुमार भाग के लोग भी इन्हीं पर्वों को कुछ फेर
बदल के साथ मनाते हैं।
मुंडा जनजाति सरहूल, सोहराय, बुरू, माफे, करम, फागू
इत्यादि पर्व मनाते हैं। सरहूल मुंडाओं का बंसतोत्सव
है। सखुआ वृक्ष के निकट 'लुटकुम बुढ़ी' एवं आनंद के साथ
इस पर्व को मनाते हैं। सरहूल के अवसर पर गाया जाने
वाला प्रसिद्ध गीत-चैनुम-चैनुम नैगायो बेलर लेखा बेञञ
लगदय/खद्दी पइरी नैगामों वेलर लेखा ब्रेञञेरा लगदय।
'करमा' मुंडाओं का प्रसिद्ध पर्व है। भादों माह में
मनाया जाने वाला यह पर्व 'राजकरम' और 'देश करम' के नाम
से प्रसिद्ध है। 'पाहन' के द्वारा सरना स्थल 'अखाड़ा'
पर पूजा के बाद नाच-गाना एवं सामूहिक भोज का आयोजन
होता है। 'बुरूपर्व' पहाड़ के पूजने का पर्व है। शिक्षा
के बढ़ते प्रभाव एवं आवागमन के साधनों के चलते झारखण्ड
की जनजातियों सरहूल करमा, सोहराय टूस इत्यादि पर्व एक
साथ मनाने लगे हैं। पर्वों-त्यौहारों पर आधुनिक बाजार
एवं शहरी प्रभाव होने के बाद में जनजातियों द्वारा
पर्व के मूल भाव को बचाने का प्रयास भी हो रहा है-
खद्दी चाँदी हियोरे नाद नौर/फागू चाँदी हियोरे नाद
नौर/भर चाँद चाँदो रे नाद नौर/मिरिम चाँदो हो-सो ले
डना। |