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भौगोलिक
सीमाओं से परे
सूरीनाम
में गंगा
-भावना सक्सेना
वर्ष २००८, नवंबर माह में सूरीनाम पहुँचने के लगभग एक
सप्ताह पश्चात जब सुना कि कोई गंगा स्नान के लिए गया
है तो बहुत हैरत हुई! अनुमान लगाया कि इतनी दूर गया
व्यक्ति एक माह से पहले तो क्या वापस आएगा किन्तु
कार्य कुछ आवश्यक था तो पूछ ही लिया वापसी कब तक होगी
और जब मुझे बताया गया कि उसी शाम को तो हैरत कई गुना
बढ़ गयी! मेरी हैरानी समझते हुए सामने वाले व्यक्ति ने
बताया कि जिस व्यक्ति कि मुझे तलाश है वह सूरीनाम में
ही रामेश्वरम तीर्थ स्थान पर गंगा स्नान के लिए गया
है। रामेश्वरम! गंगा स्नान! सूरीनाम में? जी हाँ यही
था गंगा से सूरीनाम में मेरा पहला परिचय।
पतित पावनी, मोक्षदायिनी! कपिल मुनि द्वारा भस्मीकृत,
राजा सगर के ६०,००० पुत्रों की अस्थियों को पवित्र
करने के लिए स्वर्ग से उतरी, शिवजी की जटाओं में
संभली, सदियों से तर्पण करती आ रही, अनेक पौराणिक
कथाएँ से जुड़ी भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी गंगा!
जिसके बारे में मान्यता है कि तीसरी सदी में अशोक महान
के साम्राज्य से लेकर १६वीं सदी में स्थापित मुगल
साम्राज्य तक सारी सभ्यताएँ गंगा नदी के किनारे विकसित
हुईं।
२,५१० किलोमीटर लम्बाई वाली यह नदी आखिर भौगोलिक रूप
से १६,००० किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से देश में क्या
कर रही है? कैसे पहुँची गंगा यहाँ? क्या संभव है कि
महासागरों से मिलता हुआ गंगा का जल सात समंदर पार
अटलांटिक महासागर में स्थित दक्षिण अमरीका के उत्तर
पूर्वी तट सूरीनाम भी पहुँचता है? सूरीनाम के सनातनी
हिंदुओं की आस्था है कि ऐसा संभव है! जब सारी नदियों
का जल सागर में और सभी सागर एक दूसरे में मिलते हैं तो
पवित्रता संचारित हो विश्व के इस कोने में पहुँचना
असंभव भी नहीं। पर इस आस्था में भौगोलिक से अधिक
भावनात्मक पक्ष है जिसके कारण सूरीनाम में और न सिर्फ
सूरीनाम में विश्व के उन सभी स्थानों पर जहाँ हिन्दू
हैं वहाँ गंगा अथवा गंगा घाट कि परिकल्पना की गयी है।
ऐतिहासिक रूप से गंगा के मैदान से ही हिन्दुस्तान का
हृदय स्थल निर्मित है। और इस स्थल से जब भी लोग बाहर
निकले गंगा को अपने हृदय में कैद लिए निकले। उनकी
पवित्रता, शुचिता की बूँदें जहाँ जहाँ पड़ीं वहाँ एक
नवीन गंगा का उद्गम हुआ। १३९ वर्ष पूर्व भारत रूपी वट
वृक्ष के कुछ पत्ते अलग किए गए थे और भेज दिए गए सात
समंदर पार सूरीनाम। श्रीराम के देश के सपने
संजोए हिंदुस्तान के ये लाल तीन माह की कष्टप्रद
यात्रा के बाद जब सूरीनाम पहुँचे तब उनके पास कुछ था
तो सिर्फ उस संस्कृति के पोषक तत्व जिसे विश्व सदा
कौतूहल से देखता रहा है। उन पोषक तत्वों ने उन्हें वह
शक्ति प्रदान की, कि उन्होंने अनजान बीहड़ को मधुबन
बना दिया। अपने धर्म संस्कृति और सभ्यता से पोषण पाकर
उस मधुबन में नव कुसुम पल्लवित होते रहे। आज यहाँ
पूर्ण हर्षोल्लास से विभिन्न हिन्दू त्योहार मनाए जाते
हैं।
धीरे धीरे जाना कि यहाँ एक नहीं कईं स्थानों पर गंगा
स्नान होता है। इनमें मुख्य हैं वेखनारज़ी, दोम्बर्ख,
गोवर्धन घाट, गंगा मंदिर निकेरी। इसके अतिरिक्त लगभग
४-५ स्थान और हैं जहां पर गंगास्नान पर विशेष आयोजन
किए जाते हैं। यहाँ आस्था भौगोलिक सीमाओं से बंधी नहीं
है। सिर्फ नदी नहीं है गंगा, एक संस्कृति है, एक आस्था
है जो भौगोलिक सीमाओं को पार करकर विश्वव्यापी हो चुकी
है। भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को
देवी के रूप में निरुपित किया गया है।सूरीनाम में भी
विभिन्न मंदिरों में मगर पर सवार गंगा माता की मूर्ति
विराजमान है जिसे श्रद्धा से पूजा जाता है।
वर्ष २०१० में यहाँ कुम्भ पर्व का आयोजन किया गया। इस
विशाल आयोजन के लिए कईं माह पहले से काफी प्रयास किए
गए थे। यहाँ तक की भारत की मिट्टी और गंगा जल मंगा कर
पर्वस्थल पर शुद्धिकरण मंत्रों के साथ छिड़काव किया
गया।
प्रत्येक वर्ष गंगा स्नान व गंगा दशहरा पर विशेष पूजा
आयोजित की जाती हैं। वर्ष २०११ के गंगा स्नान पर एक
स्थानीय मंदिर "श्री कृष्ण धाम" ने कुछ कदम आगे बढ़ते
हुए एक पूरे निजी नदी तट (व्हाइट बीच) को किराए पर
लेकर, प्रत्यक्ष रूप से सफाई कराकर व मंत्र इत्यादि से
शुद्धि कर इस स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा स्नान व पूजा
का आयोजन किया। पंडित कृष्णदत्त मथुराप्रसाद शर्मा का
तर्क है कि "शरीर कि शुद्धि से अधिक महत्वपूर्ण है
आत्मा की शुद्धि और कार्तिक स्नान पर्व पर आत्मा की
शुद्धि के लिए स्थान से अधिक भाव महत्वपूर्ण हैं, हम
सभी को बताना चाहते थे किस तरह सही पूजन इत्यादि किया
जाता है। इस दिन दीपदान व नहान का बहुत महत्व होता है;
और यह मन कि शांति व शुद्धि के लिए किया जाता है।"
पंडित मथुराप्रसाद शर्मा युवा वर्ग को अधिक से अधिक
धर्म व संस्कृति से जोड़ना चाहते हैं और यही कारण है कि
समय समय पर नवीन प्रयोग करते रहते हैं।
इनके अतिरिक्त हर घाट पर गंगा स्नान कराने के लिए
पंडित उपलब्ध रहते है।
घाट पर मिली एक बुजुर्ग महिला
का कहना है – " बिटिया गंगा तो शायद इस जनम में हमें न
मिले हम यहीं गंगा समझ पूजा कर लेई है।" वास्तव में; न
सिर्फ गंगा अपितु भारत को देखने की भी इतनी उत्कट
इच्छा यहाँ के बुज़ुर्गों में देखी है कि स्वतः ही
प्रश्न उठता है – कैसा मोह है इन लोगों में? ये लोग जो
भारत से दूर इस धरती पर जन्में, यहीं जीवन गुज़रा और
अंत यहीं से होगा कौन सी गर्भनाल आज भी इन्हें भारत से
जोड़ती है?
शायद इसका उत्तर एक ऐसी संस्कृति से प्राप्त संस्कारों
में है जिसे विश्व सदा कौतूहल की दृष्टि से देखता रहा
है। |