बैजनाथधाम
का श्रावणी मेला
सुबोध कुमान
नन्दन का आलेख
शिवभक्त सावन माह में बिहार के विभिन्न शिव मंदिरों
में शिवलिंग पर जल अर्पित करते ही हैं पर बैद्यनाथधाम
के शिवलिंग पर जलाभिषेक के लिए बिहार के लोग ही नहीं
उमड़ते हैं बल्कि देश-विदेश जैसे - नेपाल, भूटान,
मॉरिशस, फिजी, पाकिस्तान, बांग्लादेश, थाईलैंड,
बर्मा, तिब्बत आदि से लाखों शिवभक्त के मनोकामना
लिंग के दर्शनार्थ उमड़ पड़ते हैं और पूरा सावन माह
बोल बम एवं हर हर महादेव के उद्घोष से गुजायमान रहता
है। बाबा बैद्यनाथ भारत के बारह ज्योर्तिलिंगों में
से एक हैं। यहाँ लगने वाले विश्व के सबसे लंबे मेले
को श्रावणी मेले के नाम से भी जाना जाता है। श्रावण
मास में लगातार एक माह तक चलने वाले इस मेले में
भारतीय लोक संस्कृति और जनजीवन की जीती जागती तस्वीर
उभरती है। यह मेले किसी भी मायने में कुंभ और गंगासागर
मेला से कम नहीं है। मेले में प्रतिदिन शिवभक्त की
भीड़ लाख की संख्या पार कर जाती है। शिवभक्तों को
काँवरिया कहा
जाता है।
बैद्यनाथ में रावण ने प्रथम बार जल अर्पित किया था,
ऐसा धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। कालांतर
में देश के सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों
में इसकी उपलब्धियाँ उत्तरोत्तर विकसित होती गईं।
प्राचीन काल से जल चढ़ाने की परंपरा आज भी कायम है।
बैद्यनाथधाम (देवघर) से १०५ किलोमीटर दूर सुल्तानगंज
में गंगा की गोद में एक पहाड़ी पर अजगैबीनाथ (शिव) का
मंदिर है। किंवदंती है कि उसी पहाड़ी पर जह्नु ऋषि का
आश्रम था। भागीरथ के रथ के पीछे दौड़ती-गंगा पहले-पहल
जब सुल्तानगंज पहुँची, तब वह उस पहाड़ी पर स्थित
जह्नु ऋषि के आश्रम को बहाकर ले जाने पर तुल गई, जिससे
जह्नु ऋषि गुस्सा हो गए और चुल्लु में उठाकर गंगा को
पी गए। भागीरथ ने अपने उद्देश्य की पूर्ति में, इस
दशा को देखकर जह्नु ऋषि की अनेक विधियों से स्तुति और
प्रार्थना की। फलत: जह्नु ऋषि ने गंगा को अपने पेट से
बाहर निकाल दिया। नारदीय-पुराण में इस कथन से
सुल्तानगंज की यह गंगा काशी की गंगा की तरह पुण्यमयी
बन गई। यही कारण है कि प्रतिवर्ष लाखों लोग उस
कलशतीर्थ से ही कलश में गंगा जलभर कर काँवर पर ढोते
हुए, दुरूह रास्ते से पैदल चलकर बैद्यनाथधाम जाते
हैं। और वहाँ शिव पर गंगा जल चढ़ाकर अक्षय पुण्य
लूटते हैं। रावणेश्वर महादेव के बारे में पद्मपुराण
के पंचम अध्याय में स्वयं ब्रह्मा जी ने कहा है कि
अन्य स्थलों पर किए गए पापों का क्षय गंगा के पवित्र
जल में स्नान करने से होता है, तीर्थों में किए गए
पापों का क्षय काशी में होता है और काशी में किए गए
पापों का क्षय बैद्यनाथ के दर्शन से होता है।
इस
पवित्र यात्रा में न कोई अमीर, न कोई गरीब किसी
जाति-पाति का बंधन भी नहीं रह जाता। हर कोई बोल-बम का
उद्घोष करते हुए, बाबा के द्वार पहुँचने को आतुर रहता
है। सुल्तानगंज से जल उठाने से पहले प्रत्येक
काँवरिया इस श्लोक का पाठ करते हैं - कामदं कामलं
विध्मि कामंर शिवाधामदा। नापर कामदा दत्य त्रैलोक्य
स चराचरे।।
ऊबड़-खाबड़ और वीरान जंगलों-पहाड़ों से होते हुए, पैदल
काँवर लिए वे बाबा बैद्यनाथ-धाम आते हैं और कामना लिंग
पर गंगा का पवित्र जल चढ़ाते हैं। जल चढ़ाने का यह
क्रम महीने भर तक चलता है। बैद्यनाथधाम आनेवाले
शिवभक्त केसरिया रंग में रंगे होते हैं तथा कंधे पर
अपने सामर्थ्य के अनुसार काँवर लिए रहते हैं। यह
दृश्य अपने-आप में रोमांचित करनेवाला होता है। जिधर
नजर उठाएँ आपको सभी शिवभक्त केसरिया रंग में ही
मिलेंगे। चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, या फिर बच्चा या
महिला। विश्व का कोई ऐसा मेला नहीं है जहाँ एक ही रंग
का वस्त्र पहन कर लोग आते हों। पर बैद्यनाथधाम का
श्रावण-मेला ही एकमात्र मेला है, जहाँ एक ही रंग का
वस्त्र पहन कर लोग आते हैं। केसरिया रंग सौभाग्य,
एकता और प्रेम का प्रतीक है। काँवरियों में बूढ़े,
जवान, बच्चे और महिलाएँ शामिल रहते हैं। इन काँवरियों
को बम कहने की परंपरा है। काँवरियों में सर्वाधिक
संख्या उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश
और कोलकाता से आए श्रद्धालुओं
की होती है। इस दौरान सभी काँवरिये चाहे वह किसी भी
राज्य के हों, एक दूसरे को नाम से नहीं बल्कि बम कह
कर ही संबोधित करते हैं।
काँवरिया मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं। पहला
साधारण्ा बम, वे अपने घर से किसी वाहन से भागलपुर
जिले के
सुल्तानगंज पहुँचते हैं। वहाँ नियमपूर्वक स्नान एवं
पूजा-पाठ कर गंगा का पवित्र-जल भरते और रास्ते में
रूकते, उठते, बैठते, सोते, खाते-पीते चार-पाँच दिनों
में बाबा के धाम यानी बैद्यनाथधाम पहुँचते हैं और उन
पर गंगा-जल चढ़ाते हैं। इस मेले में सबसे बड़ी संख्या
साधारण काँवरियों की होती है, जिनकी संख्या प्रतिदिन
करीब ७०-८० हजार तक होती है। सोमवार के दिन ऐसे
श्रद्धालुओं की संख्या एक लाख से अधिक हो जाती है।
दूसरे काँवरिये
वे होते हैं, जो डाक-बम के नाम से जाने जाते हैं। डाक
काँवरियों की यात्रा भी कम कठिन नहीं है। श्रद्धालु
पूर्ववत सुल्तानगंज पहुँचते हैं और वहाँ नियमपूर्वक
स्नान करके काँवर उठाते हैं। सुल्तानगंज से चलने के
बाद वे कहीं नहीं रूकते निरंतर चलते रहते हैं। डाक बम
१४-१६ घंटे तक बैजनाथधाम में गंगा जल चढ़ाने के बाद ही
रूकते हैं।
काँवरियों
का जो तीसरा रूप है वह है खड़ा बम-काँवर। खड़ा बम
काँवर में भी जल लेकर जाने का प्रचलन है। इसमें
काँवरिये तीर्थ-यात्री तो आराम करते हैं, लेकिन उनके
काँवर को आराम नहीं कराया जाता और इसके लिए भाड़े का
आदमी काँवर को अपने कंधे पर लेकर रातभर हिलाता डुलाता
रहता है। खड़ा बम काँवर ले जाना बहुत की कठिन कार्य
है। फिर भी, त्रिकालदर्शी विश्वनाथ की असीम कृपा से
उनके भक्त खड़ा काँवर ले ही जाते हैं। खड़ा बम २४
घंटे या ३६घंटे में ही,
सुल्तानगंज से बाबाधाम
पहुँचते हैं और बाबा के कामना लिंग पर जल चढ़ाते हैं।
एक माह तक चलने
वाले इस विश्व प्रसिद्ध श्रावण-मेला में आनेवाले
कांवरिये कई तरह से बाबा भोलेनाथ के पास जल लेकर
पहुँचते हैं। इनमें सबसे कठिन यात्रा डंडी-काँवरियों
की होती है जो १०५ किलोमीटर की यात्रा दंडवत करते हुए
करीब २०-२३ दिनों में पूरी करते हैं। काँवर ले जाने
वाले काँवरियों को कुछ आवश्यक नियमों का पालन बड़ी
कड़ाई से करना पड़ता है। जैसे काँवर से काँवर न
टकराये, सो कर उठने पर स्नान के उपरांत ही काँवर को
स्पर्श करें, किसी काँवरिये को बाएँ छोड़ कर आगे न
बढ़ें आदि।
काँवरिया पवित्र
गंगा जल लेकर सबसे पहले बाबा के मंदिर के सिंहद्वार पर
पहुँचते हैं। उसके बाद वे चन्द्रकूप को छूते हुए
मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करते हैं। इसके बाद वे
मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। परिक्रमा में
कुल बाइस मंदिर हैं। पार्वती-मंदिर, जगतजननी-मंदिर,
गणेश-मंदिर, संध्या-मंदिर, काल भैरव-मंदिर, हनुमान-
मंदिर, मनसा मंदिर, सरस्वती-मंदिर, सूर्य-मंदिर, मां
बगला, राम-लक्ष्मण, जानकी आदि। बाबा बैद्यनाथ के
मंदिर के गुम्बज पर सोने के कलश, ध्वजा और त्रिशूल
चमकते रहते हैं। यहाँ से पार्वती मंदिर तक लाल कपड़े
के पाग बँधे हुए हमेशा झूलते रहते हैं। मंदिर का पट
खुलने पर भक्तगण जल चढ़ाते हैं। भीतरी भाग में, बाबा
का दिव्य प्रस्तरयुक्त ज्योर्तिलिंग है। लिंग के
चारों ओर चाँदी मढ़ी है। इस मंदिर के एक कोने में अखंड
यानी कभी नहीं
बुझने वाला दीप प्रकाशमान रहता है।
कहा जाता है कि बड़े-बड़े पत्थरों की चट्टानों से इस
विशाल मंदिर का निर्माण महाशिल्पकार भगवान
विश्वकर्मा ने हजारों वर्ष पूर्व किया था। इस धाम के
मंदिर बनने के पीछे कई प्रकार की कहानियाँ साधुओं,
इतिहासकारों एवं जनश्रुति से सुनने में आता है। कहते
हैं कि लंकाधिपति रावण भगवान शिव के परम भक्तों में
से एक था। रावण ने जब शिव को अपनी कठोर तपस्या और
मस्तकों की बलि से प्रसन्न किया तब उसने शिवजी से
अपनी राजधानी लंका चलने का वरदान मांगा। महादेव ने
एवमस्तु, तो कह दिया पर एक शर्त रखी यदि तुम कहीं
मुझे धरती पर रखोगे तो मैं वहाँ से आगे नहीं चलूंगा।
लंकाधिपति रावण ने यह शर्त झट स्वीकार ली और
त्रिकालदर्शी शिवजी को लेकर वह चल पड़ा। चलते-चलते वह
जब दारूकवन (देवघर) पहुँचा, तब शिवलिंग वहीं स्थापित
हो गया। उसने शिवलिंग को उठाने की पूरी कोशिश की। मगर
वह पूर्णत: विफल रहा। तब जब उसने दारूण तप किया तब
त्रिकालदर्शी शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि
तुमने मेरा वचन न मानकर लिंग निपातित कर दिया। अत: मैं
अब उठ नहीं सकता। मैं यहीं तुम्हारे नाम से स्थिर
रहूँगा। इसलिए
तुम्हारे लिए यही सर्वोत्तम है कि तुम पूजा-अर्चना
यहीं करो।
शिव-पुराण
के अनुसार, दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव के अपमानित
होने पर सती ने देह त्याग किया तो त्रिकालदर्शी शिवजी
सती के शव को लेकर प्रचंड तांडव नृत्य करने लगे।
नृत्य करने के क्रम में विभिन्न स्थानों पर सती के
विभिन्न अंग कट-कट कर जहाँ-जहाँ गिरे, वे स्थान
शक्तिपीठ कहलाए। बैद्यनाथधाम में सती का हृदय गिरा
जहाँ शिव ने सती का दाह संस्कार किया, जो शक्तिपीठ
कहलाया।
जनश्रुति के अनुसार भगवान राम ने गंगा जलभरकर
ज्योर्तिलिंग पर चढ़ाया था तभी से यहाँ जल चढ़ाने की
परम्परा चली आ रही है। शिवभक्तों के मन में एक धारणा
है कि जो इस धाम पर आकर त्रिकालदर्शी शिवजी एवं कामना
ज्योर्तिलिंग पर जल चढ़ाते हैं, उनकी हर मनोकामना
पूर्ण हो जाती है। पुराणों में वर्णित गंगा के दक्षिण
में हृदय-पीठ पर स्थापित कामना-लिंग की ऊपरी छत पर
जहाँ चन्द्रकांत मणि है, वहीं रावणेश्वर महादेव हैं
और यहीं रावणेश्वर महादेव की पुष्टि होती है।
उत्तर, वाहिनी गंगा की गोद में खिलौने जैसी एक पहाड़ी
है जिस पर अजगैबीनाथ का प्राचीन मंदिर एक महान तीर्थ
स्थल है। प्रत्येक साल सावन माह में लोग इस मंदिर
में पूजा-अर्चना करते हैं।
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