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मंडी का शिवरात्रि मेला
राजमाधो
की जलेब
- नरेश पंडित व
सुनील राणा
हिमाचल प्रदेश के मंडी नगर में
मनाया जाने वाला शिवरात्रि का त्यौहार आसपास के अनेक
नगरों में जुड़ा भावनाओं से भरपूर लोकोत्सव है। फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी
से प्रारंभ होने वाले उत्सव में आसपास के सौ से भी अधिक
देवी-देवता दूर दूर से आकर एकाकार होते हैं।
महाशिवरात्रि का प्रमुख आकर्षण मेलों के दौरान निकलने
वाली शोभायात्रा होती है जिसे राजमाधो की जलेब कहते
है। शिवरात्रि के
आखिरी दिन देव कमरूनाग मेले में आकर सभी देवताओं से
मिलते हैं, वहीं पर उत्तरशाल के ही एक और प्रमुख देवता
आदिब्रह्मा का गुर भी शहर की रक्षा व समृद्धि की कामना
से कार बाँधता है।
इतिहास
इस मेले के प्रारंभ के विषय में अनेक मान्यताएँ हैं।
ऐसी ही एक मान्यता के अनुसार १७८८ में मंडी रियासत की
बागडोर राजा ईश्वरीय सेन के हाथ में थी। मंडी रियासत के तत्कालीन नरेश
महाराजा ईश्वरीय सेन, कांगडा के महाराज संसार चंद की
कैद में थे। शिवरात्रि के कुछ ही दिन पहले वे लंबी कैद
से मुक्त होकर स्वदेश लौटे। इसी खुशी में ग्रामीण भी
अपने देवताओं को राजा की हाजिरी भरने मंडी नगर की ओर
चल पडे। राजा और प्रजा ने मिलकर यह जश्न मेले के रूप
में मनाया। महाशिवरात्रि का पर्व भी इन्हीं दिनों था
और शिवरात्रि पर हर बार मेले की परंपरा शुरू हो गई। मुक्ति के
इस अवसर पर आयोजित उत्सव ने मंडी
शिवरात्रि महोत्सव का रूप ले लिया।
दूसरी मान्यता के अनुसार मंडी के पहले राजा बाणसेन शिव
भक्त थे, जिन्होंने अपने समय में शिवोत्सव मनाया। बाद
के राजाओं कल्याण सेन, हीरा सेन, धरित्री सेन, नरेंद्र
सेन, हरजयसेन, दिलावर सेन आदि ने भी इस परंपरा को बनाए
रखा। अजबर सेन, स्वतंत्र मंडी रियासत के वह पहले नरेश
थे, जिन्होंने वर्तमान मंडी नगर की स्थापना भूतनाथ के
विशालकाय मंदिर निर्माण के साथ की व शिवोत्सव रचा।
छत्र सेन, साहिब सेन, नारायण सेन, केशव सेन, हरि सेन,
प्रभृति सेन राजाओं के शिव भक्ति की अलख को निरंतर जगाए रखा।
राजा अजबरसेन के समय यह उत्सव एक या दो दिनों के लिए
ही मनाया जाता था।
किंतु
राजा सूरज सेन (१६३७)
के समय इस उत्सव को नया आयाम मिला।
ऐसा
माना जाता है कि राजा सूरज सेन के अट्ठारह पुत्र हुए।
ये सभी राजा के जीवन काल में ही मृत्यु को प्राप्त हो
गए। उत्तराधिकारी के रूप में राजा ने एक चाँदी की
प्रतिमा बनवाई जिसे माधोराय नाम दिया। राजा ने अपना
राज्य माधोराय को दे दिया। इसके बाद शिवरात्रि
में माधोराय ही शोभायात्रा का नेतृत्व करने लगे। राज्य
के समस्त देव शिवारात्रि में आकर पहले माधोराय और फिर
राजा को हाजिरी देने लगे। इसके बाद के शासकों में राजा श्याम सेन शक्ति के
आराधक थे, जिन्होंने शिव शक्ति परंपरा को सुदृढ किया।
शिवोत्सव का एक बडा पडाव शक्ति रूप श्यामकाली भगवती माँ
टारना के साथ जुडा हुआ है।
इस दौरान सिद्ध पंचवक्त्र, सिद्धकाली, सिद्धभद्रा के
शैव एवं शक्ति से जुडे मंदिरों का निर्माण हुआ। शमशेर
सेन, सूरमा सेन, ईश्वरीय सेन, जालिम सेन, तलवीरसेन,
बजाई सेन के पश्चात भवानी सेन के द्वारा भी शिवोत्सव
शिवरात्रि के पर्याय के रूप में इस ढंग से मनाया जाने
लगा कि पूरा नगर इसमें सम्मिलित हो गया।
प्रकृति के स्वागत का पर्व
फाल्गुन का महीना बर्फ के पिघलने के बाद वसंत के
प्रारंभ का होता है। इस समय
व्यास नदी में बर्फानी पहाडियों के निर्मल जल की
धारा मंडी के घाटों में बहने लगती है, फाल्गुन माह
का स्वागत पेड पौधों की फूल-पत्तियाँ करने लगती हैं और
देऊलु अपने देवता के रथों को रंग-बिरंगा सजाने लगते हैं तो
नगर के भूतनाथ मंदिर में शिव-पार्वती के शुभ विवाह की
रात्रि को नगरवासी मेले के रूप में मनाना शुरू करते
हैं।
लोग महीनों घरों में बर्फबारीव ठंड के कारण दुबके रहने
के बाद बसंत ऋतु का इंतजार करते हैं तथा बसंत में जैसे
ही शिवरात्रि का त्यौहार आता है तो वे सजधज कर मंडी की
तरफ कूच शुरू कर देते हैं। जहाँ उन्हें अपनों
से मिलने की ललक होती है वहीं पर वह सात दिन तक मेले
का खूब आनंद भी उठाते हैं।
मंडी में पुराने इक्कासी
मंदिर शिव व शक्तियों के हैं, जिनमें बाबा भूतनाथ व
अर्धनारीश्वर भी शामिल हैं। जहाँ भगवान शिव के सभी
मंदिर शिखर शैली में मौजूद हैं वहीं पर शक्तियों के
मंदिर मंडप शैली में हैं। मंडी में भगवान शिव के ११रुद्र रूप हैं जबकि नौ शक्तियाँ हैं जिनमें
श्यामाकाली, भुवनेश्वरी, चिंतपूर्णी, दुर्गा, काली में
भद्राकाली, सिद्धकाली, महाकाली शामिल हैं।
देवी
देवताओं की यात्रा और सवारियाँ
मंडी में
शिवरात्रि को उत्सव के रूप में मनाने का इतिहास चाहे
जो भी रहा हो परंतु इस बात में कोई अतिश्योक्तिनहीं है
कि जहाँ प्रदेश में मेलों का प्रारंभ करती शिवरात्रि
का इंतजार लोगों को रहता है वहीं पर इसमें देवता भी
पीछे नहीं हैं। प्रदेश के मध्य भाग स्थित मंडी जनपद के
अंचलों में ग्रामीण देवताओं की पालकियाँ सजने लगती
हैं। लोग महीने भर पहले से मंडी के शिवरात्रि मेले में
जाने की तैयारी में जुट जाते हैं और उसके साथ ही ज्यों
ही माँडव्य ऋषि की तपोस्थली भगवान शंकर के पूजन की
विधि शुरू होती है, त्यों ही दूसरी तरफ वर्ष भर से एक
दूसरे को मिलने का आतुर देवताओं का मिलन देव संगम का
आभास करवाता है।
सैकडों की संख्या में देवी-देवताओं के रथ व उनके साथ
आए देव सेवकों का आपसी मिलन, ढोल नगाड़ों, करनालों,
रणसिंघों की गूंजती आवाजों से आठ दिन तक थिरकने वाली
मंडी का यह पर्व जहाँ अभूतपूर्व तो होता ही है रोमाँचक
भी कम नहीं होता।
मंडी के मुख्य राज देव माधो की पालकी के साथ
देवी-देवताओं की पालकियों का गले मिलना, देवताओं का
नाचना, झूमना, रूठना, मनाना सब नई दुनिया जैसा लगता
है। मेले में जहाँ लोगों को
यहाँ की संस्कृति व देव मान्यता का आभास होता है वहीं
पर्यटकों को यहाँ के खानपान का भी पता चलता है।
मेले के दौरान जहाँ एक ओर ऐतिहासिक पड्डल मैदान में
देवी-देवता आपस में मिलने में व्यस्त होते हैं, वहीं
पड्डल मैदान के दूसरे छोर पर व्यापारिक दृष्टि से लगाई
गई दूकानों पर व्यापार होता है। प्रशासन द्वारा
दूरदराज से आए लोगों व पर्यटकों के मनोरंजन के लिए
प्रदर्शनियों के साथ-साथ रात के समय रात्रि महोत्सव का
आयोजन भी किया जाता है। देव कमरूनाग का प्रतीक चिह्न
भी मेले से ठीक एक दिन पहले मंडी पहुँच कर माँ टारना
मंदिर की परिक्रमा में विराजमान हो जाता है। इसके साथ
ही मंडी में एक के बाद एक चलने वाले अनेक प्रादेशिक
मेलों का शुभारंभ भी हो जाता है।
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