मकर
संक्रांति- परंपराएँ और मान्यताएँ
—अश्विनी केशरवानी
मकर संक्रांति प्रत्येक
वर्ष माघ माह में जनवरी माह के तेरहवें, चौदहवें या
पन्द्रहवें दिन ( जब सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि
में प्रवेश करता है) मनाया जाता है। मकर संक्रांति के
दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है।
इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं।
पृथ्वी का एक राशि से
दूसरी राशि में प्रवेश 'संक्रांति' कहलाता है और
पृथ्वी का मकर राशि में प्रवेश करने को मकर संक्रांति
कहते हैं। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की
ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की
ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से
उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने
लगती है। इस समय शीत पर धूप की विजय प्राप्त करने की
यात्रा शुरू हो जाती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय
में ठीक इसके विपरीत होता है।
वैदिक
मान्यताएँ-
वैदिक काल में उत्तरायण
को 'देवयान' तथा दक्षिणायन को 'पितृयान' कहा जाता था।
मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिए गए द्रव्य को ग्रहण
करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी
मार्ग से पुण्यात्माएँ शरीर छोड़कर स्वर्गादि लोकों में
प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।
पौष मास में देवगण सो
जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं
होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से
देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से
मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह
प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैं।
विभिन्न प्रांतों में मकर संक्रांति-
संपूर्ण भारत में मकर
संक्रांति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है।
बंगाल में
भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है।
असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर
संक्रांति मनाया जाता है।
महाराष्ट्र प्रांत
में इस दिन तील-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा है।
लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते
हैं :- 'तीळ गूळ घ्या आणि गोड़ गोड़ बोला' अर्थात तिल
गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो'। इस दिन महिलाएँ आपस में
तिल, गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं।
हरियाणा और पंजाब में
इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा
होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल
और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को
तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूँगफली, तिल की
गजक, रेविड़याँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं।
बहुएँ घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी माँगते हैं। नई
बहू और नवजात बच्चे के लिए लोहड़ी को विशेष महत्व होता
है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग
का भी लुत्फ उठाया जाता है।
तामिलनाडु में मकर
संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल
सामान्यत: तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा
करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी
की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की
जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आँगन में
मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल
कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवेद्य चढ़ाया जाता
है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते
हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत
किया जाता है।
दान
और स्नान की परंपरा-
छत्तीसगढ़ में मकर
संक्रांति को खिचड़ी अऊ तिलगुजिहा के तिहार कहा जाता
है। इस दिन नदियों में स्नान के बाद तिल और खिचड़ी के
दान के बाद खाने की प्रथा है।
धर्मशास्त्र के
अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक
अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया
दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए
लोग उत्तर प्रदेश बिहार तथा
मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर भी गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान
करके तिल, गुड़, मूँगफली, चावल आदि का दान करते हैं। इस
दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष
महत्व होता है। इलाहाबाद में माघ मास
में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते
हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में
स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैं। प्रलय काल में भी
नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। इस
अवसर पर उसकी पूजा-अर्चना से सारे पाप नष्ट हो जाते
हैं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
मकर संक्रांति के
अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। ऐसा माना
जाता है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त
करने के लिए व्रत किया था। इस दिन गंगा सागर में
स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग
कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में
केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहाँ लोगों की अपार भीड़
होती है। इसीलिए कहा जाता है- 'सारे तीरथ बार-बार
लेकिन गंगा सागर एक बार।' इस पर्व में शीत के
प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए तिल को शरीर में मलकर
नदी में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। तिल
उबटन, तिल हवन, तिल का व्यंजन और तिल का दान, सभी पाप
नाशक है। इसलिए इस दिन तिल, गुड़ और चीनी मिले लड्डू
खाने और दान करने का विशेष महत्व होता है। यह पुनीत
पर्व परस्पर स्नेह और मधुरता को बढ़ाता है।
मकर
संक्रांति में अर्द्धकुम्भ स्नान-
कुंभ स्नान स्वास्थ्य
की दृष्टि में उत्तम है। 'मृत्योर्मामृतम्गमय' का
संदेश देने वाले कुंभ और सिंहस्थ स्नान की परंपरा अति
प्राचीन है। हर १२ वें साल में प्रयाग, हरिद्वार,
उज्जैन और नासिक में महाकुंभ और छठवें वर्ष में अर्द्ध
कुंभ होता है। सहस्रं कार्तिके स्नानं, माघे स्नान
शतानि च। बैशाखे नर्मदा कोटि: कंभ स्नाने तत् फलम्।।
अर्थात् कार्तिक मास में एक हज़ार और माघ मास में सौ
बार गंगा स्नान से तथा बैसाख में नर्मदा में एक करोड़
बार स्नान करने से जो पुण्य मिलता है वह माघ मास में
महाकुंभ के अवसर पर मात्र अमावस्या पर्व में स्नान
करने से मिल जाता है। प्रति छ: वर्ष में प्रयाग में
अर्द्ध कुंभ होता है और इस वर्ष प्रयाग में अर्द्ध
कुंभ का संयोग है। प्रयागराज तीनों लोकों में प्रसिद्ध
है। इससे पवित्र तीर्थस्थल अन्य कोई नहीं है। तभी तो
कहा गया है :- प्रयाग राज शार्दुलं त्रिषु लोकेषु
विश्रुतम्। तत् पुण्यतमं नास्त्रि त्रिषु लोकेषु भारत्।।
प्रयागराज में सूर्य पुत्री यमुना, भागीरथी गंगा और
लुप्त रूपा सरस्वती के संगम में जो व्यक्ति
स्नान-ध्यान करता है, कल्पवास करके पूजा-अर्चना करता
है, गंगा की मिट्टी को अपने माथे पर लगाता है, वह
राजसू और अश्वमेघ यज्ञ का फल सहज ही प्राप्त करता है।
गंगा
तीर नागा साधुओं का जमावड़ा-
पूरे शरीर में भस्म
लगाये, नंगे वदन, लंबी दाढ़ी और बड़ी-बड़ी लटें वाले नागा
साधुओं की भीड़ गंगा के तीर अर्द्ध कुंभ और महाकुंभ के
अवसर पर विशेष रूप से होती है। आठवीं शताब्दी में आदि
गुरु शंकराचार्य द्वारा नागा अखाड़ा का निर्माण किया
गया था, जिसका उद्देश्य अपने अनुयायी बनाना और शत्रुओं
के खिलाफ़ आंदोलन करना प्रमुख था। आगे चलकर नागा
साधुओं के भी कई समूह बन गए। कुंभ पर्व में जब ये
एकत्रित होते हैं तब इनके आपसी मन मुटाव इनके झगड़े का
कारण होता है। इन साधुओं के द्वारा कुंभ पर्व में शाही
स्नान किया जाता है। जब इन साधुओं की भीढ़ शाही स्नान
के लिए गंगा तीर की ओर बढ़ती है तब इनके हट के कारण
आपसी झगड़े होते हैं और सीधे सादे श्रद्धालु बेमौत मारे
जाते हैं।
मकर
संक्रांति में पतंग उड़ाने की विशिष्ट परंपरा-
मकर संक्रांति को
पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर
मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का
उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया
है। बाल कांड में उल्लेख है- 'राम इक दिन चंग उड़ाई,
इंद्रलोक में पहुँची गई।' त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग
हैं जब श्रीराम ने अपने भाइयों और हनुमान के साथ पतंग
उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में
पहुँच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की
पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी- 'जासु चंग अस
सुन्दरताई। सो पुरुष जग में अधिकाई।।' पतंग उड़ाने वाला
इसे लेने अवश्य आएगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी पतंग
वापस नहीं आया तब श्रीराम ने हनुमान को पतंग लाने
भेजा। जयंत की पत्नी ने पतंग उड़ाने वाले के दर्शन करने
के बाद ही पतंग देने की बात कही और श्रीराम के
चित्रकूट में दर्शन देने के आश्वासन के बाद ही पतंग
लौटाई। 'तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग। खेंच
लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।।' इससे पतंग उड़ाने की
प्राचीनता का पता चलता है। भारत में तो पतंग उड़ाया ही
जाता है, मलेशिया, जापान, चीन, वियतनाम और थाईलैंड आदि
देशों में पतंग उड़ाकर भगवान भास्कर का स्वागत किया
जाता है। |