पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर
श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण तथा पत्नी श्रीसीता सहित वनवास ग्रहण
किया। वन में रावण नामक महा शक्तिशाली राक्षसराज ने जानकी जी
का हरण कर लिया। श्रीराम जी भाई लक्ष्मण सहित किष्किंधा पहुँचे
और सुग्रीव की सहायता से बजरंग बली हनुमान द्वारा सीता जी की
खोज करवाई। सीता जी का पता चलने पर प्रभु श्रीराम ने वानर-भालुओं
की सेना तैयार की और लंका की ओर प्रस्थान किया। समुद्र पर पुल
बाँध वे लंका में प्रवेश किया और कुंभकर्ण, मेघनाद, रावण आदि
का संहार हुआ। श्रीराम ने लंका का राज्य जीतकर रावण के भाई
विभीषण को दे दिया और स्वयं चौदह वर्ष पूरे हो जाने पर भगवती
सीता, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, जांबवान, अंगद आदि के साथ
पुष्पक विमान पर बैठकर अयोध्या वापस लौटे। उनके वापस लौटने की
खुशी में अयोध्या वासियों ने घी के दीये जलाए और दीपावली मनाई।
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२-श्री
लक्ष्मी से संबंधित पौराणिक कथा |
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इसी दिन समुद्र मंथन के समय
क्षीर सागर से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं और भगवान विष्णु को
अपना पति स्वीकार किया था।
कथा इस प्रकार है-
एक बार भगवान शंकर के अंशभूत महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचर
रहे थे। घूमत-घूमते वे एक मनोहर वन में गए। वहाँ एक विद्याधर
सुंदरी हाथ में पारिजात पुष्पों की माला लिए खड़ी थी, वह माला
दिव्य पुष्पों की बनी थी। उसकी दिव्य गंध से समस्त वन-प्रांत
सुवासित हो रहा था। दुर्वासा ने विद्याधरी से वह मनोहर माला
माँगी। विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे
दी। माला लेकर उन्मत्त वेषधारी मुनि ने अपने मस्तक पर डाल ली
और पुनः पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।
इसी समय मुनि को देवराज इंद्र
दिखाई दिए, जो मतवाले ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ
बहुत-से देवता भी थे। मुनि ने अपने मस्तक पर पड़ी माला उतार कर
हाथ में ले ली। उसके ऊपर भौरे गुंजार कर रहे थे। जब देवराज
समीप आए तो दुर्वासा ने पागलों की तरह वह माला उनके ऊपर फेंक
दी। देवराज ने उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसकी
तीव्र गंध से आकर्षित हो सूँड से माला उतार ली और सूँघकर
पृथ्वी पर फेंक दी। यह देख दुर्वासा क्रोध से जल उठे और देवराज
इंद्र से इस प्रकार बोले, ''अरे ओ इंद्र! ऐश्वर्य के घमंड से
तेरा ह्रदय दूषित हो गया है। तुझ पर जड़ता छा रही है, तभी तो
मेरी दी हुई माला का तूने आदर नहीं किया है। वह माला नहीं,
श्री लक्ष्मी जी का धाम थी। माला लेकर तूने प्रणाम तक नहीं
किया। इसलिए तेरे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी
शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।'' यह शाप सुनकर देवराज इंद्र घबरा
गए और तुरंत ही ऐरावत से उतर कर मुनि के चरणों में पड़ गए।
उन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने की लाख चेष्टाएँ कीं, किंतु
महर्षि टस-से-मस न हुए। उल्टे इंद्र को फटकार कर वहाँ से चल
दिए। इंद्र भी ऐरावत पर सवार हो अमरावती को लौट गए। तबसे तीनों
लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन
एवं सत्वरहित हो जाने पर दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी।
देवताओं में अब उत्साह कहाँ रह गया था? सबने हार मान ली। फिर
सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान
विष्णु की शरण में जाने की सलाह दी तथा सबके साथ वे स्वयं भी
क्षीरसागर के उत्तर तट पर गए। वहाँ पहुँच कर ब्रह्मा आदि
देवताओं ने बड़ी भक्ति से भगवान विष्णु का स्तवन किया। भगवान
प्रसन्न होकर देवताओं के सम्मुख प्रकट हुए। उनका अनुपम तेजस्वी
मंगलमय विग्रह देखकर देवताओं ने पुनः स्तवन किया, तत्पश्चात
भगवान ने उन्हें क्षीरसागर को मथने की सलाह दी और कहा, ''इससे
अमृत प्रकट होगा। उसके पान करने से तुम सब लोग अजर-अमर हो
जाओगे, किंतु यह कार्य है बहुत दुष्कर अतः तुम्हें दैत्यों को
भी अपना साथी बना लेना चाहिए। मैं तो तुम्हारी सहायता करूँगा
ही...।''
भगवान की आज्ञा पाकर देवगण
दैत्यों से संधि करके अमृत-प्राप्ति के लिए प्रयास करने लगे।
वे भाँति-भाँति की औषधियाँ लाएँ और उन्हें क्षीरसागर में छोड़
दिया, फिर मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नागराज को नेती
(रस्सी) बनाकर बड़े वेग से समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया।
भगवान ने वासुकि की पूँछ की ओऱ देवताओं को और मुख की ओर
दैत्यों को लगाया। मंथन करते समय वासुकि की निःश्वासाग्नि से
झुलसकर सभी दैत्य निस्तेज हो गए और उसी निःश्वास वायु से
विक्षिप्त होकर बादल वासुकि की पूँछ की ओर बरसते थे, जिससे
देवताओं की शक्ति बढ़ती गई। भक्त वत्सल भगवान विष्णु स्वयं
कच्छप रूप धारण कर क्षीरसागर में घूमते हुए मंदराचल के आधार
बने हुए थे। वे ही एक रूप से देवताओं में और एक रूप से दैत्यों
में मिलकर नागराज को खींचने में भी सहायता देते थे तथा एक अन्य
विशाल रूप से, जो देवताओं और दैत्यों को दिखाई नहीं देता था,
उन्होंने मंदराचल को ऊपर से दबा रखा था। इसके साथ ही वे नागराज
वासुकि में भी बल का संचार करते थे और देवताओं की भी शक्ति
बढ़ा रहे थे।
इस प्रकार मंथन करने पर
क्षीरसागर से क्रमशः कामधेनु, वारुणी देवी, कल्पवृक्ष, और
अप्सराएँ प्रकट हुईं। इसके बाद चंद्रमा निकले, जिन्हें महादेव
जी ने मस्तक पर धारण किया। फिर विष प्रकट हुआ जिसे नागों ने
चाट लिया। तदनंतर अमृत का कलश हाथ में लिए धन्वंतरि का
प्रादुर्भाव हुआ। इससे देवताओं और दानवों को भी बड़ी प्रसन्नता
हुई। सबके अंत में क्षीर समुद्र से भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट
हुईं। वे खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके अंगों की
दिव्य कांति सब ओर प्रकाशित हो रही थी। उनके हाथ में कमल शोभा
पा रहा था। उनका दर्शन कर देवता और महर्षिगण प्रसन्न हो गए।
उन्होंने वैदिक श्रीसूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन
करके दिव्य वस्त्राभूषण अर्पित किए। वे उन दिव्य वस्त्राभूषणों
से विभूषित होकर सबके देखते-देखते अपने सनातन स्वामी
श्रीविष्णु भगवान के वक्षस्थल में चली गई। भगवान को लक्ष्मी जी
के साथ देखकर देवता प्रसन्न हो गए। दैत्यों को बड़ी निराशा
हुई। उन्होंने धन्वंतरि के हाथ से अमृत का कलश छीन लिया, किंतु
भगवान ने मोहिनी स्त्री के रूप से उन्हें अपनी माया द्वारा
मोहित करके सारा अमृत देवताओं को ही पिला दिया। तदनंतर इंद्र
ने बड़ी विनय और भक्ति के साथ श्रीलक्ष्मी जी ने देवताओं को
मनोवांछित वरदान दिया।
कहते हैं कि राजा बलि के
कारागर में श्री लक्ष्मी जी सब देवताओं के साथ बंधन में थीं।
आज के दिन ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या को भगवान विष्णु जी ने
वामन अवतार धारण कर उन सबको बंधन से छुड़ाया था। बंधन मुक्त
होते ही सभी देवता भगवती श्री लक्ष्मी जी के साथ क्षीर-सागर
में जाकर सो गए थे।
अतः कार्तिक कृष्ण अमावस्या
को भगवान गणेश जी व भगवती लक्ष्मी जी की सुंदर नई मूर्तियों का
पूजन किया जाता है। उनके शयन (सोने) का सुंदर प्रबंध किया जाता
है, जिससे वे क्षीर-सागर न जाकर अपने घर में ही प्रतिष्ठित
रहें।
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४- भारतीय संवत्सर
की रचना |
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इसी दिन राजा विक्रमादित्य ने
अपने संवत की रचना की थी। बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाकर
मुहूर्त निकलवाया था कि नया संवत चैत्र सुदी प्रतिपदा से चलाया
जाए।
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५-भगवान महावीर
का निर्वाण दिवस |
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दीपावली भगवान महावीर की
पुण्यतिथि भी है। उनका जन्म भारत के
बिहार के प्रांत के एक राजवंश में करीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व
हुआ था। भारत की सामाजिक और धार्मिक दुर्व्यवस्था को देखकर
इनके ह्रदय में अपार दुःख होता था। दुःखित प्राणियों के उद्धार
की चिंता इनके मन में हर समय रहती। तीस वर्ष की अवस्था में
अपने कुटुंब-परिवार से नेह-नाता तोड़कर तथा अपने अतुलित
राजवैभव को परित्याग करके उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। बंधन मुक्त
होकर कई वर्षों के कठोर तप से
उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। वे वीतराग और सर्वज्ञ हो
गए। अब इन्होंने जगत को उपदेश देना आरंभ किया। अहिंसा और सत्य
का प्रचंड प्रचार किया। सामाजिक और धार्मिक सुधार का घोर
आंदोलन किया जिससे रूढ़ियों और कुरीतियों का विध्वंस हुआ।
अंततः बहत्तर वर्ष की अवस्था में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को
पावापुरी में इनका निर्वाण (मोक्ष) हुआ।
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६- स्वामी
दयानंद सरस्वती की पुण्यतिथि |
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दीपावली आर्यसमाज के संस्थापक
स्वामी दयानंद सरस्वती की भी पुण्य तिथि है। गुजरात प्रांत के मोरवी राज्य
के अंतर्गत टंकारा नामक स्थान में स्वामी दयानंद का जन्म संवत
१८८१ वि. में हुआ था। बचपन में आपका नाम मूलशंकर था। माता पिता
ने जब इन्हें गृहस्थाश्रम की बेड़ियों में जकड़ देना चाहा तो
वे घर से निकल भागे और नैष्ठिक ब्रह्मचारी बन गए। नाम
रखा गया शुद्ध चैतन्य। सन्यास की दीक्षा ले लेने के बाद उनका
नाम 'शुद्ध चैतन्य' से 'स्वामी दयानंद' हुआ।
उन्होंने बंबई में
सर्वप्रथम आर्यसमाज की स्थापना की, सामाजिक और धार्मिक
बुराइयों को दूर करने का बीड़ा उठाया, स्त्रियों की सामाजिक
अवस्था में सुधार के लिए काम किया, विधवा विवाह को
प्रोत्साहित किया तथा
बाल-विवाह का विरोध किया। ३० अक्तूबर १८८३ को दीवाली की रात स्वामी
दयानंद जी परमात्मा की गोद में चले गए।
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७- सिखों के छठे
गुरु हरगोविंद जी की कारामुक्ति |
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सिखों के छठे गुरु हरगोविंद
जी भी इसी दिन कारावास से मुक्त हुए थे। आप पाँचवें गुरु श्री
गुरु अर्जुनदेव जी के इकलौते पुत्र थे। सिखों पर मुगलराज्य के
कोप की दिनोंदिन वृद्धि होती जाती थी। आपके पिता श्रीगुरु
अर्जुनदेव जी शहीद हो ही चुके थे। इसलिए श्री गुरु हरगोविंद जी
ने यह निश्चय किया कि संतस्वरूप के साथ-साथ वीरता का वेश धारण
करना भी आवश्यक है। इसलिए जब वे गुरु गद्दी पर विराजे तो भारत
की अधोगति को देख स्वरक्षा और देश के उद्धार के लिए आपने
उन्होंने
गले में दो खड्ग धारण किए- एक मीरी का, दूसरा पीरी का। सब
सिखों को आपने शस्त्र धारण करने की आज्ञा दी और भक्ति ज्ञान के
साथ-साथ शूरवीरता का उपदेश देना आरंभ किया। संवत. १६६५ में
श्री हरिमंदिर साहिब के सम्मुख आपने एक राजसिंहासन बनवाया और
अपना ठाट-बाट पूरा राजाओं का सा बना लिया। यह स्थान अब भी
श्रीअकाल-तख़्त के नाम से प्रसिद्ध है। श्री अमृतसर को
सुरक्षित बनाने के लिए आपने यही एक किला भी बनवाया, जो अब 'लोहगढ़'
के नाम से प्रसिद्ध है।
एक बा हरगोविंद जी के कुछ
दुश्मनों की झूठी शिकायत पर जहाँगीर ने गुरु साहब को उनके कुछ
साथियों के साथ ग्वालियर के किले में
कैद कर लिया। इससे गुरु साहब की मान-मर्यादा घटी नहीं किंतु और
बढ़ी। दूर-दूर से श्रद्धालु जन गुरु साहब के दर्शनार्थ
ग्वालियर पहुँचने लगे। कई मुसलमान साधु-फकीरों के समझाने पर
जहाँगीर को झूठ का पता चला और गुरु जी की
निर्दोषता उसके सामने साबित हो गई। जहाँगीर ने गुरु साहब को
छोड़ने की आज्ञा दे दी, परंतु गुरु साहब ने कहला भेजा कि जब तक
हमारे दूसरे साथी, जो क़िले में कैद हैं, नहीं छोड़े जाते तब तक
हम भी बाहर नहीं आ सकते। लगभग साठ छोटे-बड़े हिंदू राजा, कवि,
पंडित आदि इस क़िले में कैद थे। इस पर जहाँगीर ने आज्ञा दी कि
जितने राजा गुरु साहब का पल्ला पकड़ कर बाहर आ जाएँ वे सब छोड़
दिए जाएँ। इस पर गुरु साहब ने साठ पल्लों का एक जामा बनवा कर
पहना और प्रत्येक कैदी गुरु साहब का एक-एक पल्ला पकड़कर बाहर आ
गया। वह दीपावली का दिन था। उसी समय से गुरु हरगोविंद साहब का नाम 'बंदीछोर' प्रसिद्ध
हुआ।
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