यम द्वितीया का पर्व कार्तिक
शुक्ल पक्ष द्वितीया अर्थात कार्तिक महीने के उजाले पाख के
दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन प्रातःकाल चंद्र-दर्शन की
परंपरा है और जिसके लिए भी संभव होता है नो यमुना नदी के जल
में स्नान करते हैं। स्नानादि से निवृत्त होकर दोपहर में बहन
के घर जाकर वस्त्र और द्रव्य आदि द्वारा बहन का सम्मान किया
जाता है और वहीं भोजन किया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से
कल्याण या समृद्धि प्राप्त होती है। बदलते हुए समय को देखें तो
यह व्यस्त जीवन में दो परिवारों को मिलने और साथ समय बिताने का
सर्वोत्तम उपाय है। ऐसा कहा गया है कि यदि अपनी सगी बहन न हो
तो पिता के भाई की कन्या, मामा की पुत्री, मौसी अथवा बुआ की
बेटी – ये भी बहन के समान हैं, इनके हाथ का बना भोजन करें। जो
पुरुष यमद्वितीया को बहन के हाथ का भोजन करता है, उसे धन,
आयुष्य, धर्म, अर्थ और अपरिमित सुख की प्राप्ति होती है। यम
द्वितीय के दिन सायंकाल घर में बत्ती जलाने से पूर्व, घर के
बाहर चार बत्तियों से युक्त दीपक जलाकर दीप-दान करने का नियम
भी है।
कायस्थों में इस
दिन चित्रगुप्त और कलम-पूजा का भी विधान है।
श्री चित्रगुप्तजी कायस्थों के आराध्य देव हैं। पौराणिक आख्यान
के अनुसार श्री चित्रगुप्तजी की उत्पत्ति ब्रह्माजी की काया से
हुई है। सृष्टि रचना के पश्चात जब पितामह ब्रह्मा ने धर्मराज
को धर्मप्रधान मानकर जीवों के शुभाशुभ कर्मों का न्याय कर
योग्य फल देने का अधिकारदिया, तब धर्मराज ने इस अत्यंत कठिन
कार्य के लिए ब्रह्माजी से प्रार्थना कर ऐसे सहायक की माँग की
जो न्यायी, बुद्धिमान, चरित्रवान व लेखाकर्म में विज्ञ हो।
ब्रह्माजी ने धर्मराज की प्रार्थना को उचित समझकर उनके मनोरथ
को पूर्ण करने के लिए ध्यान लगाया। फलतः लंबी तपस्या के बाद
ब्रह्माजी की काया से हाथ में कलम-दवात लिए विलक्षण तेजस्वी
पुरुष की उत्पत्ति हुई। इस तेजस्वी पुरुष ने ब्रह्माजी से अपना
नामकरण करने का निवेदनकिया। तब ब्रह्माजी ने कहा कि 'तुम
विचित्र रूप में मेरे चित्त में गुप्त रहे अतः तुम्हारा नाम
चित्रगुप्त है। चूँकि तुम मेरी काया से प्रकट हुए हो, मेरी
काया में तुम्हारी स्थिति है इसलिए तुम कायस्थ हो।'कुछ विद्वान
कायस्थ शब्द को कार्यस्थ का अपभ्रंश मानते हैं। कार्यस्थ का
शब्दशः अर्थ है 'जिस पर सारा कार्य स्थिर (निर्भर) हो।' श्री
चित्रगुप्तजी गुप्त रहकर सृष्टि के क्रियाकर्म (पाप-पुण्य) का
लेखा-जोखा रखते हैं व धर्मराज को न्याय करने में सहयोग देते
हैं। पुण्य सलिला शिप्रा के पावन तट पर धार्मिक, पौराणिक व
ऐतिहासिक नगरी उज्जयिनी (उज्जैन) श्री चित्रगुप्त की तपस्या
स्थली रही है। पद्मपुराण के अनुसार परमपिता ब्रह्माजी की आज्ञा
से श्री चित्रगुप्तजी तपस्या हेतु उज्जयिनी पधारे थे। यहाँ
अंकपात क्षेत्र में इसी स्मृति का प्रतीक श्री चित्रगुप्तजी का
अत्यंत प्राचीन मंदिर भी है।
उत्तर और मध्य भारत में यह पर्व भातृ द्वितीया 'भैयादूज' के
नामक से जाना जाता है, पूर्व में 'भाई-कोटा', पश्चिम में 'भाईबीज'
और 'भाऊबीज' कहलाता है। इस पर्व पर बहनें प्रायः गोबर से
माँडना बनाती हैं, उसमें चावल और हल्दी के चित्र बनाती हैं तथा
सुपारी, फल, पान, रोली, धूप, मिष्ठान्न आदि रखती हैं, दीप
जलाती हैं। इस दिन यम द्वितीया की कथा भी सुनी जाती है।
कथा:
सूर्य भगवान की स्त्री का नाम संज्ञा देवी था। इनकी दो
संतानें, पुत्र यमराज तथा कन्या यमुना थी। संज्ञा देवी पति
सूर्य की उद्दीप्त किरणों को न सह सकने के कारण उत्तरी ध्रुव
प्रदेश में छाया बन कर रहने लगीं। उसी छाया से ताप्ती नदी तथा
शनीचर का जन्म हुआ। इधर छाया का यम तथा यमुना से विमाता सा
व्यवहार होने लगा। इससे खिन्न होकर यम ने अपनी एक नई नगरी
यमपुरी बसाई, यमपुरी में पापियों को दण्ड देने का कार्य
सम्पादित करते भाई को देखकर यमुनाजी गो लोक चली आईं जो कि
कृष्णावतार के समय भी थी।
यमुना अपने भाई यमराज से बडा
स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि वह उसके घर आकर
भोजन करें। लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण
यमुना की बात को टाल जाते थ। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर एक
दिन सहसा यम को अपनी बहन की याद आई। उन्होंने दूतों को भेजकर
यमुना की खोज करवाई, मगर वह मिल न सकीं। फिर यमराज स्वयं ही
गोलोक गए जहाँ विश्राम घाट पर यमुनाजी से भेंट हुई। भाई को
देखते ही यमुनाजी ने हर्ष विभोर होकर उनका स्वागत सत्कार किया
तथा उन्हें भोजन करवाया। इससे प्रसन्न हो यम ने वर माँगने को
कहा –
यमुना ने कहा – हे भइया मैं आपसे यह वरदान माँगना चाहती हूँ कि
मेरे जल में स्नान करने वाले नर-नारी यमपुरी न जाएँ।
प्रश्न बड़ा कठिन था, यम के
ऐसा वर देने से यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। भाई को
असमंजस में देख कर यमुना बोलीं – आप चिंता न करें मुझे यह
वरदान दें कि जो लोग आज के दिन बहन के यहाँ भोजन करके, इस
मथुरा नगरी स्थित विश्राम घाट पर स्नान करें वे तुम्हारे लोक
को न जाएँ।
इसे यमराज ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने बहन यमुनाजी को
आश्वासन दिया – ‘इस तिथि को जो सज्जन अपनी बहन के घर भोजन नहीं
करेंगे उन्हें मैं बाँधकर यमपुरी ले जाऊँगा और तुम्हारे जल में
स्नान करने वालों को स्वर्ग होगा।’ तभी से यह त्यौहार मनाया
जाता है। |