छठ का पर्व तीन
दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन
शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की
विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी
मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी (
पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन
दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी
करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान
रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं
यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर
ही सोते हैं।
पर्व के पहले
दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें
सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर
खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर
कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा
होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर
चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर
बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ
अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और
देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत
की तैयारी करती हैं।
छठ पर्व पर
दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने
के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के
बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद
के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में
इसे बाँटा जाता है।
तीसरे यानी छठ
के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की
तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी
टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, में पूजा का सभी सामान डाल
कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से
एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक,
तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का
सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को
एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच
प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का
पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले
जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ
रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन
ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-
काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय
नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा
बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं
और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते
हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर
पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं।
सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ
जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं।
कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु
अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले
कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से
मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू
होता है।
सूर्य देव की
प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य
देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही
सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक
खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं।
शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया
जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा
का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का
सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत
खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।
छठ पूजा में
कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ
मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है
इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह
बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते
हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी
किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर
छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है।
कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया
जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी
प्यारी है।
रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली - बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां
छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व
पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता
है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी
समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से
प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस
पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस
दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। मात्र दिल्ली से इस
वर्ष 6 लाख लोग छठ के अवसर पर बिहार की तरफ गए। देश के साथ-साथ
अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को
धूम धाम से मनाते हैं। पटना में
इस बार कई लोगों ने नए प्रयोग किए जिसमें अपने छत पर छोटे
स्वीमिंग पूल में खड़े हो कर यह पूजा की उनका कहना था कि गंगा
घाट पर इतनी भीड़ होती है कि आने जाने में कठिनाई होती है और
सुचिता का पूरा ध्यान नहीं रखा जा सकता। लोगों का मानना है कि
अपने घर में सफाई का ध्यान रख कर इस पर्व को बेहतर तरीके से
मनाया जा सकता है। छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है--
केरवा जे फरेला
गवद से ओह पर सुगा मंडराय
उ जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहाय |