हमारे
पुराणों, वेदों से लेकर मध्यकालीन निबंधों में शिवरात्रि-व्रत
का उल्लेख बखूबी हुआ है पर इस व्रत का पालन करने के लिए कुछ
नियम हैं - यथा अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा का पालन।
शांतमन, तपस्वी तथा क्रोधहीन होना भी बहुत आवश्यक है।
शिवरात्रि-पर्व की ऐसी महिमा है कि संप्रदाय-भेद-भाव को
त्यागकर सभी मनुष्य इसका एक समान पालन करते हैं।
वेदों व
हमारे पौराणिक ग्रंथों में भगवान शिव की पूजा-अर्चना विभिन्न
रूपों में वर्णित है। भगवान शिव सगुण-साकार मूर्ति-रूप तथा
निर्गुण निराकार अमूर्त रूप में भी वंदनीय हैं। महादेव, नटराज,
पशुपति, नीलकंठ, योगीश्वर, महेश्वर आदि कई नामों व रूपों में
भगवान शिव की आराधना की जाती है। ये सब एक ही ईश्वर के कई
रूप-नाम हैं और सभी रूपों में पूजा-अर्चना का अर्थ एक ही है।
शर्व, रूद्र, भीम, उग्र, ईशान, पशुपति, भव तथा महादेव ये
क्रमश: पृथ्वी, तेज, आकाश, सूर्य, क्षेत्रज्ञ, जल, वायु तथा
चंद्रमा के रूपों को मूर्तियों के रूप में परिलक्षित करते हैं।
शिवरात्रि-पर्व के अवसर पर शिवलिंग की पूजा की विशेष महिमा है।
पूजा से पूर्व सर्वप्रथम शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की जानी
चाहिए। नर्मदेश्वर तथा वाणलिंग को स्व-प्रतिष्ठित करने की
आवश्यकता नहीं है। इसी तरह स्वयंभु लिंग और ज्योतिर्लिंग आदि
की पूजा में भी आवाहन, विसर्जन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। केवल
पार्थिव लिंग-पूजन में प्रतिष्ठा तथा आवाहन-विसर्जन आवश्यक
होता है।
शिवपूजा और
शिवरात्रि व्रत में थोड़ा अंतर है, 'व्रत' शब्द को हम आसान
शब्दों में कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि जीवन में जो भी वरणीय
है और अनुष्ठान द्वारा मन, वचन, कर्म से प्राप्त करने योग्य
है, वही व्रत है। इसी कारण प्रत्येक व्रत के साथ कोई न कोई कथा
जुड़ी है। इन कथाओं से यह प्रमाणित होता है कि व्रत मानव-जीवन
की धर्म-पिपासा की तृप्ति तथा उसकी आशाओं को पूर्ण करने के लिए
बीच-बीच में करने वाला अनुष्ठान भर नहीं है, बल्कि यह मनुष्य
के व्यावहारिक जीवन का एक प्रधान अंग बन गया है। शास्त्रों के
अनुसार भगवान शिव के व्रत का फल अनंत है। जिसकी संपूर्ण
इंद्रियाँ भगवान शिव के ध्यान में लगी रहती हैं वह मोक्ष को
प्राप्त करता है। जिसके हृदय में भगवान शिव की लेशमात्र भी
भक्ति है, वह समस्त देहधारियों के लिए वंदनीय हैं।
माघ मास की
कृष्ण चतुर्दशी को 'शिवरात्रि' कहा जाता है। ईसान-संहिता के
अनुसार इस दिन आदिदेव महादेव कोटि सूर्य के समान दीप्तिसंपन्न
हो शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए थे। अतएव शिवरात्रि-व्रत में
उसी महानिशा-त्यापिनी चतुर्दशी की पूजा की जाती है। शिवरात्रि
को 'शिवतेरस' भी कहते हैं। आशुतोष शंकर की यह प्रिय तिथि है और
शिव के भक्तों के लिए इस तिथि की विशेष महिमा है।
यहाँ पर
'महानिशा' शब्द व्यापक अर्थ लिए हुए है। चतुर्दशी तिथियुक्त
चार प्रहर रात्रि के मध्यवर्ती दो प्रहरों में पहले की अंतिम व
दूसरे की आदि घड़ियों को ही महानिशा की संज्ञा दी गई है। इस
दिन उपवास कर जो रात्रि-जागरण कर सच्चे मन से शिव की स्तुति
करता है वह निं:सदेह स्वर्ग-लोक में स्थान पाता है। व्रत-कथा
में यह भी उल्लेख है कि रात्रि के चार प्रहरों में चार बार
शिवजी की पूजा की जाती है। प्रथम में दूध द्वारा शिव की ईशान
मूर्ति को, दूसरे प्रहर में दही द्वारा अघोर मूर्ति को, तृतीय
में घृत द्वारा वामदेव मूर्ति को तथा चतुर्थ प्रहर में मधु
द्वारा सद्योजात मूर्ति को स्नान करा कर उनकी आराधना करनी
चाहिए।
शास्त्रों व
पुराणों में शिव-व्रत तथा उससे जुड़े प्रसंगों का विस्तृत
विवरण उपलब्ध है। शास्त्रों का कार्य यह भी है कि जो ज्ञान
नहीं है उसे ज्ञात कराया जाए। शिवरात्रि के व्रत में कौन-सा
गूढ़ अर्थ छिपा है, इसे जानने से पूर्व, इसके पीछे जो कथाएँ -
प्रसंग-जुड़े हैं, उन्हें जान लेना ज़रूरी है।
स्कंदपुराण
में वर्णित कथा के अनुसार वाराणसी में एक दुष्ट व्याघ्र रहता
था। उसका काम जंगली जीव व पक्षियों का शिकार करना था। एक बार
जंगली सूअर के शिकार के मोह में उसने रात्रि-जागरण करने का
सोचा, एक पात्र में जल लेकर वह बेल के वृक्ष पर चढ़ गया जिसकी
जड़ में एक अति प्राचीन शिवलिंग स्थापित था। उस दिन शिवरात्रि
थी तथा सवेरे ही शिकार की तलाश में निकल पड़ने के कारण उसने
कुछ खाया भी नहीं था। इस प्रकार उसका व्रत भी हो गया।
रात्रि-जागरण की इच्छा से रात्रि-भर बेल की पत्तियाँ नीचे
फेंकता रहा और जल से मुँह भी धोता रहा। परिणाम-स्वरूप आजीवन
दुष्कर्म करने पर भी मृत्यु-पश्चात व्याघ्र को शिवलोक की
प्राप्ति हुई।
गरूड़पुराण
की एक कथा के अनुसार निषादों के राजा सुंदरसेन ने भी एक दिन
अनजाने में शिवलिंग को नहलाया, पूजा की और रात्रि-जागरण किया।
आगे चलकर जब वह मरा और यमदूतों ने उसे पकड़ा, तब शिव के सेवकों
ने उसे छुड़ाया। इस तरह पापरहित होकर उसे मोक्ष की प्राप्ति
हुई। इसी तरह अग्निपुराण में सुंदरसेन नाम के बहेलिए की कथा का
उल्लेख है तो पदमपुराण व लिंगपुरान में निषाद की कथा का वर्णन
है। इन सभी कथाओं का सार एवं संदेश एक ही है कि जो व्यक्ति
रात-भर जागरण कर बेल-पत्रों से शिव की आराधना करता है वह अंत
में आनंद व मोक्ष को प्राप्त कर स्वर्गलोक में स्थान पाता है।
शिवरात्रि-पर्व में उपवास एक प्रधान अंग है। 'उपवास' शब्द का
अर्थ है 'किसी के समीप रहना' सो यहाँ पर इसका अर्थ है 'शिव के
समीप रहना', शिव का अर्थ भी 'कल्याण' है। 'नम: शिवाय' का भाव
यही है कि हम उस उच्च कल्याणकारी- परोपकारी सत्ता को नमन करते
हैं जो सृष्टि के प्रत्येक अंग को संचालित करती है। यह शिव ही
है जो जगत की रक्षा के लिए विषपान का कष्ट उठाते हैं। शिव का
यह रूप नीलकंठ कहलाता है। वे संपूर्ण विधाओं के प्रणेता, समस्त
भूतों के अधीश्वर, वेदों के अधिपति, ब्रह्म-बल के प्रतिपालक
तथा सृष्टि-रचयिता हैं। इसलिए शिवरात्रि-पर्व हमें आनंद की
असीम संभावनाओं के समीप ले जाता है। आवश्यकता है तो केवल उस
अंत:करण की जो हमें इस आनंद का पूर्ण अनुभव करा सके। |