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शिवरात्रि के अखरोट
—बीना बुदकी
कश्मीर में शिवरात्रि का पर्व
१५ दिन तक मनाया जाता
है। पहले दिन से पंद्रहवें दिन तक का अलग–अलग महत्व
है। यों तो समस्त भारत में पर्वों का संबंध फसल पकने
के साथ रहा है, पर कश्मीर जहाँ मार्च तक बर्फ़ के ढेर
जमे रहते हैं, पैदावार होने या अखरोट के पैदा होने का
प्रश्न ही नहीं उठता, अखरोटों की फसल अगस्त–सितंबर में
जन्माष्टमी के अवसर पर काटी जाती है, फिर मार्च में
शिवरात्रि पर अखरोटों की पूजा क्यों? और फिर जब कश्मीर
अनेक फलों के लिए प्रसिद्ध है, तो केवल अखरोटों की ही
पूजा क्यों?
महाप्रकृति की मिलन अवस्था
प्राचीन योगियों तथा विद्वानों का मानना है कि
शिवरात्रि महाप्रकृति की मिलन अवस्था है। ऐसा समझा जाता
है कि महाप्रकृति अर्थात कुंडलिनी योग के
१३ स्तर हैं,
महाशिवरात्रि के अवसर पर ब्रह्म मंडल
(तारामंडल) के
योग से आकाश में तारों का ऐसा संग्रह हो जाता है, जिसे
कुंडलिनी योग कहा जाता है। यह योग मोक्ष प्राप्ति के
लिए अत्यंत शुभ समझा जाता है। कश्मीर आदिकाल से योगियों
की तपोभूमि व मोक्ष प्राप्ति का केंद्र रहा है। साधु–संत
मोक्ष प्राप्ति हेतु बाबा अमरनाथ के दर्शन करके वहीं
पहाड़ों से छलांग लगाकर इस पर्व पर मोक्ष की प्राप्ति
करते थे। बहुत पहले जब ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ
का प्रचलन था, उस समय शिवरात्रि एक दिन की पूजा–अर्चना
या हवन का दिन नहीं था। सभी गृहस्थ आश्रमवाले पुरुष व
योगी शिव को पुरुष व पार्वती को प्रकृति मान कर योग–साधना
करते थे।
हर दिन का अलग महत्व
कश्मीर की पाक्षिक शिवरात्रि के हर दिन का अपना अलग–अलग
महत्व है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन को 'हुरय
ओग दोह' कहते हैं। प्रथम से सप्तमी अर्थात 'हुरय सतम'
तक पूरे घर की सफ़ाई और कपड़ों की धुलाई की जाती है।
'हुरय ऐथम' यानी अष्टमी के दिन 'शारीका भगवती' का
जन्मदिन मनाया जाता है। आज के ही दिन उनकी स्थापना की
गई थी। अतः कलेजी व पीला चावल 'चक्रीश्वर मंदिर' पर्वत
पर ले जाते हैं और बकरे का फेफड़ा और ऊपर की नली को
छोटे–छोटे टुकड़े करके चील–कौओं को खिला देते हैं।
शाकाहारी लोग सब्ज़ी और पनीर इत्यादि बनाते हैं। अष्टमी
के दिन ऐसा माना जाता है कि कुंडलिनी का वास मध्य
स्थान पर अर्थात हृदय पर (सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला) जाता
है अतः इस दिन से
पूजा–अर्चना शुरू हो जाती है।
नवमी, दशमी व एकादशी तक प्रत्येक परिवार में सभी सदस्य
पूजा में ध्यान मग्न होने लगते हैं। प्राचीन काल में
घर के बुजुर्ग या मालिक इष्टदेव के दर्शन हेतु
ध्यानमग्न होकर द्वादशी के दिन अंतध्र्यान हो जाते थे।
अमावस्या के दिन शिव के साक्षात दर्शन करके वापस अपनी
दिनचर्या में लौट आते थे। केवल कश्मीरी हिंदू ही
शिवरात्रि को द्वादशी के दिन मनाते हैं। जबकि समस्त
भारत के हिंदू शिवरात्रि को त्रयोदशी के दिन मनाते
हैं, द्वादशी की पूरी रात शिव की पूजा–अर्चना
की जाती है।
आध्यात्मिक कार्यक्रमों के साथ–साथ सामाजिक परंपराएं
भी चलती रहती हैं। हुरय नवम यानी नवमी के दिन लड़कियाँ
अपने मायके आती हैं। उस दिन कई तरह के मांसाहारी
व्यंजन बनते हैं। हुरय दहुम यानी दशमी के दिन लड़कियाँ
नहा–धोकर शिवरात्रि के कपड़े इत्यादि लेकर ससुराल जाती
हैं। विवाह के बाद हर लड़की की पहली शिवरात्रि काफ़ी
ज़ोर–शोर से मनाई जाती है।
'बागर बाह्' यानी द्वादशी के दिन कुछ परिवारों में
रीति के तौर पर एक बरतन, लोटे या कलश को 'वागुर' माना
जाता है।
इसी दिन शिव तथा पार्वती रूपी कलशों को सजाया जाता है।
शिव रूपी कलश, जिसे 'वटकराज' भी कहते हैं, शिवजी रूपी
गगरी जिसे 'नूओंट' कहते हैं, एक और गगरी पार्वतीजी की
जिसे 'रामगुर' कहते हैं, 'डुल', 'डुलच' नामक दो बरतन
और 'सनवारि' रूप में छोटी–छोटी कटोरियों में अखरोट और
पानी डाला जाता है।
इस द्वादशी को सभी कश्मीरी हिंदू धूमधाम व श्रद्धा से
मनाते हैं। घर का एक बड़ा व्यक्ति व्रत रखता है। घर में
कई तरह के मांसाहारी व शाकाहारी व्यंजन बनते
हैं। शाम की पूजा तक ये सब्ज़ियाँ किसी को नहीं दी
जातीं। गुरुजी के आने पर पूजा होती है, तत्पश्चात सब
खाना खाते हैं। हेरथ त्रुईंश यानी त्रयोदशी के दिन को
'सलाम' कहते हैं। इस दिन सभी एक–दूसरे को शिवरात्रि की
मुबाराकबाद देते हैं। मुसलिम भाई भी मिसरी–इलायची तथा
बादाम लेकर हिंदू परिवारों में जाते और खाना खाते हैं।
हर घर में दावत का सिलसिला लगा रहता है। शिव–पार्वती
रूपी कलशों की पूजा तो होती ही है।
हेरथ चौदह यानी चौदस के दिन भी मिलना–मिलाना,
खाना–खिलाना ज़ोरों पर होता है। शिव–पार्वती के उन
कलशों तथा अन्य सभी बरतनों का पानी रोज़ बदला जाता है
और चावल के आटे की छोटी रोटियाँ तथा आलू के फिंगर
चिप्स तलकर उनकी रोज़ पूजा होती है।
'हेरच्य मावस या डून मावस' अर्थात अमावस्या
शिव–पार्वती तथा उनकी बारात रूपी सभी बरतनों में से
अखरोटों को अलग करके पानी फेंक दिया जाता है और पूजा
करने के पश्चात यही अखरोट प्रसाद के रूप में खाए तथा
बाँटे जाते हैं।
शिवदर्शन के प्रतीक
कलश में पानी में डाले हुए अखरोट शिव दर्शन के प्रतीक
हैं। क्योंकि हर अखरोट में चार गिरियाँ होती हैं,
चारों गिरियाँ आसपास जुड़ी रहती हैं। अखरोटों की इन चार
गिरियों को चार वेदों का प्रतीक माना जाता है। अखरोट
की चार गिरियाँ चार वेदों का आह्वान करती हैं। वेद, जो
सत्य का आधार हैं, उनके ज्ञान से माया जाल के बादल
छँटते हैं और हम
सात्विकता को प्राप्त
करते हैं। सात्विकता के द्वारा शिव रूपी परमब्रह्म की
प्राप्ति होती है।
इस संसार को चालित करनेवाले तीन प्रमुख तत्व हैं
सात्विक, राजसिक व तामसिक। राजसिक तत्व का कारक स्वयं
मनुष्य है, वह अपनी योग क्रियाओं व पूजा–अर्चना द्वारा
सात्विकता प्राप्त करता है। पाँच अवगुणों का मिश्रण
तामसिक तत्व अर्थात काम, क्रोध, वासना, ईर्ष्या, द्वेष
जो हर व्यक्ति के अंदर पाया जाता है। इन पाँच दोषों पर
विजय प्राप्त करके ही कोई पुरुष राजसिक व तत्पश्चात
सात्विक बन सकता है और द्वादशी के दिन सात्विक पुरुष
ही अंतर्ध्यान होकर इष्टदेव का दर्शन प्राप्त कर सकता
है। अतः चार वेदों का ज्ञान होने पर ही शिवरात्रि के
अखरोटों में शिव दर्शन संभव है।
१ मार्च
२००५ |