माँ रेणुका जी मेला हिमांचल के जिले सिरमौर में मनाया
जाने वाला एकमात्र राज्यस्तरीय मेला है जिसके उदघाटन
और समापन पर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल स्वयं
आ कर देवताओं की अगवानी व विदाई करते हैं। रेणुका
तीर्थ स्थल जिला सिरमौर के मुख्यालय नाहन से मात्र ४०
किलोमीटर तथा चण्डीगढ़ से क़रीब १२५ किलोमीटर है। नाहन
से ददाहू होते हुए रेणुका जी पहुँचने के लिए गिरिगंगा
को पार करना पड़ता है। इस नदी की उत्पत्ति को यहाँ के
लोग एक दंतकथा से जोड़ते हैं जिसके अनुसार कोई ऋषि
हरिद्वार की तीर्थ यात्रा करके कमंडल में गंगा का
पवित्र जल ले कर कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे। शिमला
जिले में कोटखाई नामक स्थान के समीप उनका पैर फ़िसल गया
और गंगा जल से भरे पात्र से कुछ जल गिर गया। उनके मुँह
से निकला "ये गिरि गंगा"। उनके यह शब्द ब्रह्मवाक्य
हुए। उसी समय वहाँ से एक जलधारा निकली जो आज गिरि गंगा
के नाम से प्रसिद्ध है। यह नदी सिरमौर को दो भागों में
बांटती है जो "गिरिवार" और "गिरिपार" के नाम से
प्रसिद्ध हैं, रेणुका जी से ४ कि .मी .दूर जटोन नामक
स्थान में नदी के पानी को सुरंग द्वारा "गिरि बाता"
जल–विद्युत योजना बनाई गई है। यह नदी सिरमौर में बहने
वाली नदियों में सबसे उपयोगी है। गिरिगंगा को पावन नदी
समझकर हज़ारों श्रद्धालु इसमें स्नान करते हैं।
इसी के साथ बालगंगा नदी है और गिरि तथा बालगंगा के
संगम पर एक कुंड है जिसका पानी बिलकुल नीला है। यहाँ
स्नान करने से एकदम ताज़गी आ जाती है। गिरि नदी आगे जा
कर जलाल नदी से मिलती है, इस स्थान को प्रयागराज कहते
हैं। यह स्थान त्रिवेणी के नाम से चर्चित है। इस
त्रिवेणी को लोग बड़ी श्रद्धा के भाव से मानते और यहाँ
स्नान करते हैं। इसमें स्नान करने वालों का मत है कि
जो पुण्य प्रयागराज के स्नान करने में प्राप्त होता है
वही पुण्य इस स्थान में प्राप्त होता है। वैसे रेणुका
स्नान से पहले इस स्थान के स्नान को बहुत ही शुभ माना
जाता है।
गिरि नदी को पार करने के बाद एक पनचक्की है, उसके पास
एक कावेरी–वृक्ष की जड़ में शिवलिंग है। इस शिवलिंग पर,
जिसे पंचमुखा सोमेश्वर देवता कहा जाता है, पानी की
बूँदें हर समय टपकती रहती हैं। इसी के सामने स्थित
पहाड़ी को पुंचभाइया के नाम से और देवता को "सिरमौर
देवता" के नाम से जाना और पूजा जाता है। पंचमुखा
सोमेश्वर से थोडी दूर लगभग १०० मीटर की दूरी पर फिर एक
शिवलिंग है इस लिंग का नाम "कपिलेश्वर" है। यह लिंग इस
बात के लिए विख्यात है कि श्रद्धापूर्वक गाय के दूध से
लिंग को स्नान करवाने के बाद पुत्रहीन को एक साल के
अवधि के अंदर पुत्र–रत्न की प्राप्ति होती है। इसके
साथ ही लिंग को अन्य तरह से स्नान कराने पर अलग–अलग फल
लाभ होते हैं जैसे गंगा जल से स्नान कराने पर समस्त
पाप धुल जाते हैं एवं मिश्री के शरबत से स्नान कराने
पर धन लाभ की प्राप्ति होती है।
परशुराम तथा रेणुका देवी के पुराने मंदिर तालाब के
किनारे रेणुका झील के पैरों के समीप स्थित हैं। यहाँ
रेणुका झील का पानी परशुराम तालाब से आकर मिलता है,
जिसे धुनुतरर्थ कहते हैं। बताया जाता है कि इस स्थान
का बड़ा धार्मिक महत्तव है। आजकल लोग इसे रेणुका माँ के
चरणों का स्थान के नाम से पुकारते हैं। यहाँ पर विशेष
कर वही स्त्रियाँ आती हैं जो निःसंतान होती हैं, अतः
ज़्यादातर यहाँ पर 'स्त्रियों' की ही भीड़ होती है।
पुराने मंदिर के पास ही एक मंदिर रेणुका मठ है जिसका
जीर्णोद्धार किया गया है। इसमें रेणुका की मूर्ति रखी
हुई है। लोगों का यह मत है कि यह मंदिर गोरखों ने
बनवाया था।
इसके बाद रेणुका झील की ओर जंगलों की चुनरी से ढके दो
पर्वतों के बीच झील की परिक्रमा मंदिर की ओर से
प्रारंभ होती है। जिसके चारों ओर पक्का रास्ता बना हुआ
है, और जब पेड़ों के अंदर से सूर्य की किरणें जल पर
पड़ती हैं और जल का रंग भिन्न–भिन्न स्वरूप बदलता है तो
उसकी सुंदरता देखते ही बनती है। यहीं पर स्नान करने के
लिए एक खुला घाट पुरुषों के लिए और दूसरा तीन ओर
दीवारों से बंद स्त्रियों के लिए बना है, जो महिलाघाट
और पुरुषघाट के नाम से जाने जाते हैं। इस झील में
तरह–तरह की सुंदर मछलियाँ हैं जिन्हें श्रद्धालु लोग
प्यार से आटे की गोलियाँ और अन्य खाद्य सामग्री
खिलाते हैं। इसी परिक्रमा के दौरान रास्ते में विश्राम
हेतु कई पड़ाव भी आते हैं तथा एक सुंदर पिकनिक स्थल भी
है जहाँ बैठने की सुविधा के अलावा कई सुंदर कला
कृतियाँ भी बनी हुई हैं, जिन्हें शिमला आर्ट कालेज के
मूर्तिकार सन्नत कुमार ने बनाया है। इसी परिक्रमा के
दौरान आगे चलकर एक विशाल पीपल का वृक्ष आता है जिसके
तने पर लोग अपना नाम गोद कर लिख देते हैं जो नामों से
अटा पड़ा हुआ है।
नौका से सैर करने वाले यहाँ से वापस मुड़ जाते हैं
क्योंकि आगे का रास्ता दलदल एवं घास से भरा है, लेकिन
यहाँ के जंगल के खट्टे नीबू को चखने से नहीं चूकते
जिसका स्वाद चटपटा होता है। आगे चलने पर माता का सिर
स्थल आता है जहाँ पर नरसल की घास अधिक मात्रा में पाई
जाती है जिसमें भक्त परांदे बांधते हैं मानों कि वह
माता की चोटी को संवार रहे हों। ऊपर जंबू के टीले से
नीचे झील की ओर देखने से झील का आकार स्पष्ट स्त्री के
आकार की भांति नज़र आता है। परिक्रमा के दौरान दूसरी ओर
से परिक्रमा प्रारंभ करने पर पक्षियों का गुजंन मधुर
संगीत का आभास भी कराता है एवं रात्रि के दौरान जंगली
जानवर प्रायः नज़र आते हैं। कई बार तो मृगों को अपने
झुंड़ के साथ झील के आसपास विचरण करते एवं झील को पार
करते भी देखा जा सकता है। झील की सुंदरता, शांत स्वच्छ
वातावरण, पशु पक्षी के सुंदर गुंजन, कुचालें भरते जीव,
सारस, वन मुर्गे आदि जीवन को एक अनोखा संदेश देते हुए
आनंद प्रदान करते हैं। यहाँ अगर आप बैठ गए तो जनाब
उठने का मन नहीं करता। यह झील लगभग २० हेक्टेअर में
फैली है जिसमें से ५ हेक्टेअर का क्षेत्र सूख गया है।
इसके अलावा इस झील की गइराई ५ से लेकर १३ मीटर के लगभग
है।
झील के दोनों ओर विशिष्ट पर्वत हैं। ददाहू की ओर से
दाईं ओर के पर्वत का नाम धार टारन है। दूसरी ओर का
पर्वत महेंद्र पर्वत के नाम से प्रसिद्ध है। रेणुका से
जम्मु गाँव जाते समय एक टीला मिलता है जिसे तपे का
टीला बोलते हैं। लोगों के अनुसार इसे तपे का टीला
इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस टीले पर भृगु का आश्रम
था। इस पर जमदग्नि ऋषि ने तपस्या की थी। माता के पैरों
के पास आकर परिक्रमा पूरी हो जाती है। इस स्थान को
"शालीपाल" कहते हैं।
शालीपाल के पास 'चूड शिखर' सिरमौर की सबसे ऊँची चोटी
है जहाँ से शिमला आदि को सामने से देखा जा सकता है।
इसकी ऊँचाई समुद्रतल से २५५३ मीटर है। यहाँ प्रत्येक
पर्वत के ऊँचे शिखर पर किसी ना किसी देवी देवताओं का
निवास स्थान है। यहाँ के पुराने लोगों की यह सोच थी कि
अगर ऊँचे शिखर पर देवी देवताओं का वास रखा जाय तो इससे
देवता की नज़र पूरे गाँव पर रहती है और हर विपत्ति से
पूरा गाँव बचा रहता है। ग्राम जम्मु जो रेणुका की
प्रत्येक घटना से जुड़ा है, एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
इसके एक किलोमीटर की दूरी पर एक तालाब है जिसे 'कर्ण'
या 'करना' का जोहड़ कहा जाता है। तपे के टीले के मध्य
वनदेवी की गुफ़ा है जिससे बारह महीने एक छोटी धारा
बहती रहती है। यहाँ से रेणुका तथा जम्मु का टीला दिखाई
देता है।
जिला सिरमौर के रेणुका मेले की परंपरा सदियों पुरानी
है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, शांत वादी केवल
रेणुकावासी, सिरमौरियों, हिमाचलियों की ही नहीं अपितु
समस्त आर्य जाति की पवित्र धरोहर है। यहाँ के मेले को
मानने और इसमें शामिल होने के लिए लोगों में असीम
लालसा रहती है और यही कारण है कि मेले में आने से पूर्व
लोग अपनी तैयारियाँ आरंभ कर देते हैं। मेले के पीछे
प्रत्येक माता को अपने पुत्र से मिलने, लड़कियों को
देवठन त्योहार मनाने, व्यापारियों को समान
बेचने–ख़रीदने, युवक युवतियों को मेले में मिलने,
बच्चों को मिठाइयाँ व खिलौने खरीदने, भक्तों की
रेणुका यात्रा तथा स्नान करने तथा कृषकों को अपनी
पैदावार बेचने के बाद अपने लिए आवश्यक वस्तु ख़रीदने का
आकर्षण हर साल बना रहता है।
रेणुका मेले में दशमी के दिन ग्राम जम्मु, जहाँ
परशुराम का प्राचीन मंदिर है, में भगवान परशुराम की
सवारी बड़ी धूम–धाम से खूब सजा–धजा के निकाली जाती है।
इस सवारी में पुजारी के साथ वाद्य यंत्र होते है एवं
चाँदी की पालकी में भगवान की मूर्ति होती है जिसे गिरि
नदी ले जाया जाता है। इस शोभायात्रा में ढोल, नगाड़े,
करनाल, रणसिंगा, दुमानु आदि बाजे बजाते हैं एवं उसके
पीछे लोकप्रिय तीर–कमानों का खेल "ठोड़ा", नृत्य दल,
स्थानीय नृत्य प्रदर्शन व अन्य सांस्कृतिक झलकियाँ
दिखाई देती हैं। इस शोभा यात्रा के दौरान मार्ग में
चढ़ावा चढ़ाने वालों की इतनी भीड़ होती है कि लोग देवता
को भेंट हेतु दूर से ही पैसों और कपड़ों का चढ़ावा चढ़ाते
हैं। इस दिन झील में नाव चलाने की अनुमति नही है इसलिए
नौका विहार के प्रेमी झील की ओर हसरत भरी निगाह डालते
हुए दूसरे दिन का इंतज़ार करते हैं। लोग मंदिरों में
जाकर माता रेणुका व भगवान परशुराम को माथा टेकते हैं।
यह मेला पूर्णमासी तक चलता रहता है। पूर्णमासी के
स्नान को बहुत महत्तव दिया जाता है जिस कारण लोग इसी
दिन के स्नान के लिए उमड़ पड़ते हैं। इसके अलावा मेले
में पहलवानों की कुश्तियाँ, सरकस, झूले, जादूघर,
प्रदर्शनी, सिनेमा का भी बोलबाला रहता है। शाम के समय
आतिशबाजी छूटती है एवं रात्रि के समय लोक संपर्क विभाग
तथा अन्य संस्थाओं, आयोजकों के प्रयास से विभिन्न
प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता
है। तरह–तरह के परिधानों से सुसज्जित लोगों की भीड़ से
बाज़ार और दुकानों
में रौनक बनी रहती है।
हर जगह लोग तरह–तरह की वस्तुएं ख़रीदते, खाते और आनंद
लेते नज़र आते हैं।
यहाँ के लिए पांवटा साहिब, दिल्ली, चंडीग़ढ, शिमला,
अंबाला, यमुनानगर, आदि से सीधी बसें मेले पर आती हैं।
यात्रियों के ठहरने के किसान भवन, वन विभाग एवं
सार्वजनिक विभाग के विश्राम गृह हैं। इसके अलावा अलग
से आश्रम और विश्राम–गृह साधु–संतों के लिए भी है। इस
तीर्थ का प्राकृतिक सौंदर्य, स्वच्छ पर्यटक स्थल,
धार्मिक महत्तव, शांत और निच्छल वातावरण बरबस ही हर
वर्ष विद्वानों, भक्तों, प्रकृति प्रेमियों,
युवक–युवतियों, बच्चों–बू.ढ़ों को अपने आप ही अपनी ओर
शक्तिशाली चुंबक की भांति खींच लेता है, जो कि
धीरे–धीरे रेणुका मेले के रूप में बदल जाता है।
१६ नवंबर २००५ |