आज महालया है। सुबह-सुबह उठ गया है सारा मुहल्ला।
रेडियो पर चल रहा है चंडी पाठ और घर-घर से आ रही है आवाज़ 'या देवी सर्वभूतेषु
शक्तिरुपेण संस्थिता' उनींदी आँखों से शाल ओढे घर का हर सदस्य सुन रहा है चंडी पाठ
रेडियो के सामने बैठा। घर में टी.वी. होने पर भी रेडियो पर चंडी पाठ सुनने की प्रथा
को तोड़ना आसान नहीं। चंडी पाठ में महिषासुरमर्दिनी की कथा एक मधुर और लयबद्ध सुर
में संस्कृत और बांग्ला में मंत्रोच्चारण के साथ सुनाते हैं बीरेंद्र कृष्ण भद्र।
आज वे तो जीवित नहीं मगर उनकी आवाज़ अमर है। कथा कुछ इस तरह से है -
असुर महिष ने घोर तपस्या की और ब्रह्म देव प्रसन्न
हो गए। महिष ने अमरता का वरदान माँग लिया मगर ब्रह्म देव के लिए ऐसा वरदान देना
संभव नहीं था तब महिषासुर ने वरदान माँगा कि अगर उसकी मृत्यु हो तो किसी औरत के
हाथों। उसे विश्वास था कि निर्बल महिला उस शक्तिशाली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
ब्रह्म देव ने वरदान दे दिया और शुरू हो गया महिषासुर का उत्पात। सभी देवता उससे
हार गए और इंद्र देव को भी अपना राजसिंहासन छोड़ना पड़ा। महिषासुर ने ब्राह्मणों और
निरीह जनों पर अपना अत्याचार बढ़ा दिया। सारा जग त्राहि-त्राहि कर उठा और तब सभी
देवों ने मिलकर अपनी-अपनी शक्ति का अंश दे कर देवी के रूप में एक महाशक्ति का
निर्माण किया। नौ दिन और नौ रात के घमासान युद्ध के बाद देवी दुर्गा ने महिषासुर का
वध किया और वो महिषासुरमर्दिनी कहलाईं। इस कथा को सुनते-सुनते चंडी पाठ के दौरान
आँखों में पानी भर आना एक अदभुत मगर स्वाभाविक-सी बात है। महालया के दिन ही माँ
दुर्गा की अधूरी गढ़ी प्रतिमा पर आँखें बनाईं जाती हैं जिसे चक्षु-दान कहते हैं। इस
दिन लोग अपने मृत संबंधियों को भी याद करते हैं और उन्हें 'तर्पण' अर्पित करते हैं।
महालया के बाद ही शुरू हो जाता है देवीपक्ष और जुट जाते हैं सब लोग त्यौहार की
तैयारी में, ज़ोर-शोर से।
माना जाता है कि हर साल दुर्गा अपने पति शिव को
कैलाश में ही छोड़ अपने बच्चों गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ सिर्फ़
दस दिनों के लिए पीहर आती हैं। उनकी प्रतिमा की पूजा होती है सातवें, आठवें और
नौवें दिन। छठें दिन या षष्ठी के दिन दुर्गा की प्रतिमा को पंडाल तक लाया जाता है।
दुर्गा की प्रतिमाएँ एक महीने पहले से गढ़नी शुरू हो जाती हैं और उससे भी पहले से
तैयार होने लगते हैं पंडाल। बंगाल का कुमारटुली प्रसिद्ध है दुर्गा की सुंदर
प्रतिमाएँ गढ़ने के लिए जहाँ मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाईं जाती हैं और विदेशों तक
में भेजी जाती हैं। कलकत्ता में होने वाली दुर्गा पूजाओं में लगभग ८० प्रतिशत
प्रतिमाएँ कुमारटुली से बन कर आती हैं। लकड़ी के ढांचे पर जूट और भूसा बाँध कर
तैयार होता है प्रतिमा बनाने का आधार और बाद में मिट्टी के साथ धान के छिलके को
मिला कर मूर्ति तैयार की जाती है। प्रतिमा की साज-सज्जा बड़ी मेहनत के साथ की जाती
है जिसमें नाना प्रकार के वस्त्राभूषण उपयोग में लाए जाते हैं।
आजकल मूर्ति को सुंदर और कलात्मक बनाने के लिए न
सिर्फ़ सिल्क के वस्त्र बल्कि अन्य अनेक तरह की वस्तुओं का प्रयोग होने लगा है। इसी
तरह पंडाल भी न जाने कितने तरह के बनने लगे हैं। अमृतसर का स्वर्ण मंदिर हो या
पैरिस का ईफ़िल टावर- कलकत्ता में बाँस और कपड़े से बने ये दुर्गा पंडाल आप को धोखे
में डाल सकते हैं। पंडाल को रोशनी से सजाया जाता है और सारा शहर जगमग कर उठता है।
षष्ठी के दिन प्रतिमा को पंडाल में लाकर रखा जाता है और शाम को 'बोधन' के साथ
दुर्गा के मुख से आवरण हटाया जाता है। महाषष्ठी के दिन घर की औरतें उपवास रखती हैं
और शाम को मैदे से बनी पूरियाँ खाती हैं। उपवास तो नहीं मगर 'लुचि-तरकारी' यानि
पूरी सब्ज़ी खाने के इस रस्म में घर के सभी लोग भाग लेते हैं। इस दिन नए कपड़े
पहनने का रिवाज़ है और छोटे बच्चे नए कपड़े पहने हर जगह चहकते दिखाई देते हैं। पास
के पंडाल में मूर्ति के दर्शन कर आना आज से शुरू होता है जो लगातार चार दिन तक चलता
है।
दुर्गा पूजा के ये चार दिन। हर जगह खुशी और
उल्लास। लोग हर रोज़ सुबह उपवास रख माँ दुर्गा के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करने
दुर्गा पंडाल जाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। इन दिनों
हर सुबह पुष्पांजलि के निर्धारित समय पर पंडाल पहुँचने के लिए घर में भागमभाग और
पुष्पांजलि का कभी भी निर्धारित समय पर न हो पाना जैसे इन दिनों का हिस्सा होता है।
सुबह-सुबह ही दुर्गा पंडाल में महिलाओं को लाल पाड़ की साड़ी पहने पूजा के काम में
व्यस्त देखा जा सकता है। कोई महाभोग की तैयारी करती दिखाई देती हैं तो कोई फूल की
माला गूँथती। लोगों की भीड़ और धूप बाती की आध्यात्मिक गंध के साथ ढाक (ढोल) की
आवाज़ पूरे वातावरण को पवित्र कर देती हैं। माँ दुर्गा की आरती होती है और उसके बाद
उन्हें भोग लगाया जाता है। दोपहर को सभी उपस्थित जनों को खिचड़ी और तरकारी का
प्रसाद खिलाया जाता है। दुर्गा पूजा के इन दिनों में स्थानीय कलाकारों को अपनी
प्रतिभा प्रदर्शित करने का पूरा अवसर मिलता है और हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम
आयोजित होते हैं।
महाअष्टमी या नवरात्रि के आठवें दिन का अपना महत्व
है। अष्टमी के दिन होती है संधिपूजा। संधिपूजा का एक निश्चित मुहूर्त होता है और उस
मुहूर्त में बलि चढ़ाई जाती है। पुराने ज़माने में लोग बकरे की बलि चढ़ाते थे मगर
ये प्रथा अब ना के बराबर रह गई है। ज़्यादातर जगहों पर किसी फल जैसे कुम्हड़े आदि
की बलि चढ़ाई जाती है। मंत्रोच्चारण के साथ १०८ जलते दीयों के बीच उस संधिक्षण की
बलि के लिए लोग निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों के लिए सारा जग जैसे शांत
हो जाता है। कहते हैं उस संधिक्षण में माँ के प्राण आते हैं। पूजा के नवें दिन या
महानवमी को आरती भोग आदि के साथ-साथ शाम को पंडाल में तरह-तरह के कार्यक्रमों और
प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। नवमी के दिन सुबह एक छोटी लड़की को साड़ी
पहना कर सजाकर उसकी पूजा की जाती है जिसे 'कुमारी पूजा' कहते हैं। उस कुमारी पूजा
को देख कर वहाँ उपस्थित हर दूसरी छोटी लड़की 'कुमारी' के भाग्य से ईर्ष्या करती है।
शाम को 'धूनुचि नाच' प्रतियोगिता में लड़के हिस्सा
लेते हैं। 'धूनुचि' मिट्टी के बड़े सुराहीनुमा प्रदीप होते हैं जिनमें नारियल के
छिलकों को जलाया जाता है और 'धूनो' नामक सुगंधित पदार्थ डाल कर उन प्रदीपों को हाथ
में ले कर लड़के अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। एक साथ 4-5 धूनुचि ले कर और
उसमें से गिरती आग के बीच नाचते ये जोशीले लड़के जैसे माँ दुर्गा को खुश करने में
कोई कसर नहीं छोड़ते। बीच-बीच में उस गिरती आग को आसपास खड़े लोग ज़मीन पर से हटा
देते हैं ताकि नाचने वाले का पाँव न पड़ जाए उन चिंगारियों पर। कभी-कभी इस मतवाले
माहौल में लड़के ढाकिए से ढाक ले कर बजाने लगते हैं अपने को ज़मीन पर नहीं पाते।
धूनुचि नाच के अलावा 'शंख वादन' प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें बिना साँस लिए
सबसे देर तक जो शंख बजाता है उसे विजयी घोषित किया जाता है। शंख वादन प्रतियोगिता
में साधारणत: महिलाएँ हिस्सा लेती हैं। अगले दिन दशमी को सुबह माँ दुर्गा की पूजा
के साथ ही उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ विसर्जित कर दिया जाता है मगर प्रतिमाओं का
विसर्जन होता है शाम को जब हर प्रतिमा के साथ एक बड़ी भीड़ होती है। प्रतिमा के
विसर्जन से पहले, विवाहित महिलाएँ माँ दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती
हैं और वहाँ होली की ही तरह सुहागिनें सिंदूर से खेलती हैं। माहौल कुछ ऐसा बन जाता
है जैसे लाड़ली बेटी दुर्गा मायके से ससुराल जा रही हो और सभी उसे विदा करने आए
हों।
विजयादशमी के दिन छोटे अपने से बड़ों के पैर छू कर
आशीर्वाद लेते हैं और मुँह मीठा करते हैं। लोग एक दूसरे से मिलने सबके घर जाते हैं
और ये प्रक्रिया कई दिनों तक चलती रहती हैं। इस तरह संपूर्ण होती है दुर्गा पूजा और
शुरू होता है फिर एक लंबा इंतज़ार साल भर का। कलकत्ता के अलावा भारत के अन्य
प्रदेशों में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी दुर्गा पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाई
जाती है। अक्तूबर का महीना और शरद ऋतु की ठंड के आते ही जैसे मन में कहीं एक खुशी
का-सा आभास होने लगता है। दुर्गा पूजा के संपूर्ण होते ही प्रतिमा के विसर्जन के
बाद शांतिजल (एक तरह का पूजा का जल जो पुजारी बिल्वपत्र से सब पर छिड़कते हैं) लेने
आए लोगों का नि:स्तब्ध पंडाल को देख मन का उदास हो जाना जैसे स्वाभाविक-सा जान
पड़ता है। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में चाहे राम के वनवास से आगमन पर दशहरा
मनाया जाता हो या दुर्गा देवी द्वारा महिषासुर के वध को याद किया जाता हो भारतीय
अपनी परिष्कृत सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हर जगह गर्व के साथ इन परंपराओं का निर्वाह
कर रहे हैं।
१६
अक्तूबर २००५
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