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लोकपर्व साँझी
—प्रमिला कटरपंच
क्वार मास की समाप्ति पर
ब्रज क्षेत्र में घर–घर साँझी
के लोकगीत गाकर कार्तिक महीने का स्वागत किया जाता है।
यों अभी क्षेत्रीय परम्परा की रूपरेखा अपने अनवरत गति
से प्रवाहित हो रही है, परन्तु "साँझी" तो
साहित्यकारों तथा शोधकारों के लिये स्वयं में गंभीर और
महत्वपूर्ण विषय है। साँझी का यह त्यौहार अनंत
चतुर्दशी के दूसरे दिन से प्रारंभ होकर १९ दिन तक
मनाया जाता है, जिसमें सोलह दिन साँझी के और तीन दिन
कोट के होते हैं।
कदाचित सोलह दिन तक पुजने वाली साँझी और उसकी पूजा में
गाये जाने वाले लोकगीतों में यदा–कदा मिलने वाली झलक
में नारी के सोलह
श्रृंगार के पृष्ठभूमि में सुहाग की भावना पढ़ी जा सकती
है।
प्रत्यक्षतः कोई कहानी जनसाधारण में साँझी से सम्बद्ध
नहीं की गई है, परन्तु लोकगीतों की निर्मात्री नारी के
हृदय की अस्पष्ट भावनाएँ जब एक होकर गूँजती हैं तो एक
कहानी सी गढ़ ली जा सकती है – साँझी एक युवती का प्रतीक
है, जो अपनी शादी के पश्चात् ससुराल वालों की कष्टदायक
गतिविधियों से घबराकर अपने मायके में "चंदा भइया" तथा
"तरैया भाभी" के साथ रहकर जीवन–यापन करने लगती है।
"कोट" (संभवतः साँझी के पतिदे) ने अनेक संदेश
भेजकर साँझी को अपने पास ससुराल आ जाने का परामर्श
दिया, परन्तु जब सभी प्रयत्न विफल रहे और "मुड़फोरे
बामन" की भी एक न चली तो स्वयं "कोट" नारी रूप धारण
करके आये और "साँझी" को मनाकर अपने साथ ले जाने में
सफल रहे। नारी जीवन के लक्ष्य रूप में अपने सुहाग
(सौभाग्य स्वरूप पति) की प्राप्ति की भावना पर
आधारित साँझी का यह त्यौहार आज भी ब्रज क्षेत्र में तो
घर–घर उत्साहपूर्वक मनाया जाता है, लेकिन राजस्थान और
मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी साँझी का त्यौहार
महिलाओं में
प्रचलित है। ब्रज की संस्कृति का तो यह एक अंग ही बन
गया है।
बृक्ष क्षेत्र राजस्थान और मालवा के भागों में
कहीं–कहीं खड़िया व रंगों से साँझी की मूर्ति बनाकर
पूजा होती है, लेकिन राधा–कृष्ण के क्षेत्र ब्रज में
गोबर से प्रतिदिन अलग–अलग शृंगार के साथ साँझी की
प्रतिमा का रूप बदलता है। फूल–पत्ती और चमकीली भुड़–भुड़
से प्रतिमा को सजाकर अधिकाधिक सजीव बनाया जाता है।
कहीं–कहीं ब्रज क्षेत्र के मंदिरों में पानी के ऊपर
रंग–बिरंगी साँझी विशेष रूप से प्रदर्शित की जाती है।
पास–पड़ोस की छोटी–बड़ी लड़कियाँ मिलकर पूजा की आवश्यक
सामग्री साथ लेकर बैठती हैं। सबेरे–सबेरे ब्रह्म
मुहूर्त में शहर के बाहर बाग–बगीचों और सरोवरों से हरी
घास – दूब, रंग–बिरंगे फूल और पवित्र जल लेकर आती हैं
और इन्हीं सब सामग्रियों से वे साँझी की पूजा करती
हैं। भावविभोर होकर गीतों द्वारा संध्या के समय साँझी
की पूजा अर्चना की जाती है। "आरतो री आरतो, साँझी बहना
आरतो" दीपक जलाकर, पुष्प चढ़ाकर वे साँझी की आरती
उतारती हैं और पूजा अर्चना का क्रम आगे बढ़ता है।
पंजाब और हरियाणा में नवरात्र के पहले दिन गोबर और
मिट्टी से साँझी की प्रतिमा बना कर उसको दरवाज़े के पास
दीवार से टिका कर रखा जाता है। नौ दिन तक हर शाम इसकी
पूजा की जाती है। लोकगीत गाए जाते हैं और खीर का भोग
लगा कर उसको प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है। दसहरे
के दिन मूर्ति को पानी में विसर्जित किया जाता है।
साँझी मनाए जाते समय साँझी के भाई का भी स्मरण भी किया
जाता है जो भाई–बहन के आदर्श स्नेह का प्रतीक है।
साँझी के अनेक लोकगीत प्रचलित हैं जिनमें लोक जीवन का
मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। संबंधों के मधुर
आकर्षण, दैनिक जीवन की कठिनाइयों का वर्णन, महिलाओं और
पुरुषों के शृंगार घर तथा घर व सवारियों के सुंदर
वर्णनों से ओतप्रोत ये गीत सहज ही जन सामान्य के मन
में घर कर जाते हैं।
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