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पर्व परिचय

 

भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
श्रीमती प्रमिला कटरपंच


गणगौर का पर्व कन्याओं और महिलाओं का एक महत्वपूर्ण पर्व हैं। भारतीय संस्कृति में यह पर्व इस सीमा तक आत्मसात हो चुका है कि इसकी महत्ता को पढ़ सकना सरल नहीं है। होली के त्यौहार के बाद से ही उन्नीस दिन तक कन्याएँ व महिलाएँ गणगौर की पूजा करती हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ला तृतीया को मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती को तथा पार्वती ने तमाम स्त्रियों को सौभाग्य वर प्रदान किया था। प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके कन्याएँ व महिलाएँ, शहर या ग्राम से बाहर सरोवर अथवा नदियों तक जाती हैं, जहाँ से शुद्ध जल और उपवनों से हरी घास-दूब तथा रंग-बिरंगे पुष्प लाकर गौरा देवी के गीत गाते हुए समूह में अपने घरों को लौटती हैं और घर आकर सब मिलकर गौराजी की अर्चना और पूजा आराधना करती हैं। गौरा पार्वती देवी का ही रूप है, जिनकी आराधना से मनवांछित फल प्राप्त करने की आकांक्षा ही गणगौर के इस पावन पर्व की आधारशिला है। कन्याओं की मनोकामना होती है कि उन्हें हर तरह से अच्छा पति मिले और विवाहित महिलाओं की इच्छा होती है कि उनका पति चिरंजीवी हों। अत: गणगौर का यह पर्व महिलाओं के सौभाग्य का लोकपर्व बन गया है।

पूजन के समय रेणूका की गौरी (गौर) बनाकर के उस पर चूड़ी, महावर, सिंदूर चढ़ाने का विशेष फल है। चंदन, अक्षत, धूप, दीप नैवेद्य से पूजन करने, सुहाग सामग्री चढ़ाने तथा भोग लगाने का नियम है। गणगौर का व्रत रखने वाली स्त्रियों को गौरा देवी पर चढ़े सिंदूर को अपनी मांग में लगाने का भी रिवाज है, जिसमें वह अपने पति के अमर रहने की कामना करती है।

जीवन की व्यस्तता जो महिलाएँ सामान्यत: होली के दूसरे दिन से उन्नीस दिनों तक गौरा देवी की आराधना नहीं कर पातीं, वे होली के १९वें दिन इस पर्व के समापन समारोह में पूजा-अर्चना करती हैं और अपने अखंड सौभाग्य की प्रार्थनाएँ प्रस्तुत करती हैं। पूजा के इन १९ दिनों में कदाचित १६ दिन नारी के सोलह शृंगारों के प्रतीक के रूप में माने जाते हैं तथा तीन दिन अतिरिक्त पूजा अर्चना के लिए रहते हैं। कन्याएँ गौरा देवी की पूजा करके अपने भावी जीवन में प्राप्त होने वाले सौभाग्य की अखंडता की कामना करती है। वे यह भी प्रार्थना करती हैं कि उन्हें उपयुक्त पति मिले, जो जीवनभर उन्हें सुख प्रदान करें।

गणगौर की कहानी भी इस दिन पूजा के समय कही जाती है। एक समय भगवान शंकर, पार्वती जी नारदमुनि को साथ लेकर पृथ्वी पर चल दिए। भ्रमण करते-करते वे तीनों एक गाँव में पहुँचे। उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीय की तिथि थी। गाँव के लोगों को जब शंकर जी और पार्वती जी के आगमन की सूचना मिली तो धनी स्त्रियाँ उनके पूजनार्थ नाना प्रकार के रुचिकर भोजन बनाने में लग गई और इसी कारण उन्हें काफी देर हो गई। दूसरी ओर निर्धन घर की स्त्रियाँ जैसी बैठी थीं, वैसे ही थाल में हल्दी, चावल, अक्षत तथा जल लेकर शिव-पार्वती पूजा के लिए वहाँ पहुँचीं। अपार श्रद्धा-भक्ति में निमग्न उन स्त्रियों को पार्वती ने पहचाना और उनकी भक्तिरूपी वस्तुओं को स्वीकार कर उन सब के ऊपर सुहागरूपी हल्दी छिड़क दी। इस प्रकार गौरी मातेश्वरी से आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ प्राप्त करके वे महिलाएँ अपने-अपने घर चली गई। तत्पश्चात कुलीन घरों की स्त्रियाँ सोलह शृंगार कर छप्पनों प्रकार के व्यंजन थाल में सजाकर आई, तब भगवान शंकर ने शंका व्यक्त कर पार्वती जी से कहा कि तुमने तमाम सुहाग प्रसाद तो साधारण स्त्रियों में बाँट दिया है, अब इन सबको क्या दोगी? पार्वती जी शिव जी ने कहा 'आप इसकी चिंता छोड दें। पहले मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया है, इसलिए उनका सोहाग धोती से रहेगा, परन्तु इन लोगों को मैं अपनी चीरकर रक्त सोहाग रस दूँगी, जिससे यह महिलाएँ मेरे समान ही सौभाग्यशालिनी बन जाएँगी।

जब कुलीन स्त्रियाँ शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना कर चुकीं तो देवी पार्वती ने अपनी उँगली चीरकर उसके रक्त को उनको ऊपर छिड़क दिया और कहा कि तुम लोग वस्त्राभरणों का परित्याग कर मायामोह से रहित रहो तथा तन-मन-धन से पति की सेवा करती रहो तथा अखंड सौभाग्य को प्राप्त करो। भवानी का यह आशीर्वचन सुनकर प्रणाम करके ये महिलाएँ भी अपने-अपने घर को लौट गई तथा पति परायण बन गई। जिस महिला के ऊपर पार्वती देवी का खून जैसा गिरा उसने वैसा ही सौभाग्य प्राप्त किया। इसके पश्चात पार्वती जी ने पति के आज्ञा से नदी में जा कर स्नान किया तथा बालू मिट्टी का महादेव बनाकर पूजन किया, भोग लगाया और उसकी परिक्रमा करके बालू के दो कणों का प्रसाद खाकर पार्वती ने मस्तक पर टीका लगाया। उसी समय बालू मिट्टी के बने महादेव की मूर्ति से स्वयं शिव जी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया कि आज के दिन जो स्त्री गौरादेवी की पूजन तथा व्रत करेगी उसके पति चिरंजीव रहेंगे। इस प्रकार गणगौर का पर्व महिलाओं के लिए अखंड सौभाग्य का प्रतीक और गणगौर का व्रत उनकी साधना का फल प्राप्त करने वाला लोकपर्व बन गया है।

गणगौर के इस पावन लोकपर्व पर यह कामना हमारे देश के लोकगीतों में प्रकट होती हैं। पूजा के लिए पुजारिन कन्याएँ गौरा जी के मंदिर में ब्रह्म मुहूर्त में जाकर द्वार खटखटाती हैं एवं कहती हैं कि हे गौरादेवी, जरा अपना दरवाजा तो खोलिए, आपकी पूजा करने के लिए हम लोग खड़े हैं। गौरा जी ने उन कन्याओं से प्रश्न करती हैं कि वह उनकी पूजा करके क्या फल चाहती हैं? भक्तिभाव से विभोर होकर वे बालिकाएँ अपने मन की बातें गौरादेवी से कह देती हैं कि उन्हें सुंदर वीर और शक्तिमान पुरुष पति के रूप में मिलना चाहिए -
गौरा री गौरा, थोड़ो खोल किवारी: यहाँ ठाड़ी थारी पूजनवारी
पूज पूजायो थंई, कंई फल मंगियो
म्हमाँगा एक छैल-छबीला साफा पहने दूल्हो, सुन्दर वीर और बलशाली और गौरा जी उनकी मनोकामना पूरी करने का वचन देती हैं तो ये कन्याएँ भाव-विभोर होकर नतमस्तक हो जाती हैं।

देश के विभिन्न प्रान्तों में गणगौर की पूजा अनेक रूपों में की जाती हैं। ब्रज क्षेत्र में महिलाएँ होली के अवसर पर गोबर की गुलेरियाँ अपनी होली में जलाकर उन जली हुई गुलेरियों में से साबुत बची गुलेरियों को निकाल कर गणगौर समझकर उनकी पूजा-अर्चना करती हैं। राजस्थान में पीली मिट्टी की गणगौर बनाकर उन्हें रूप और आकार देकर सजावटी कपड़े पहनाकर उनकी पूजा-आराधना की जाती है।

राजस्थान में यह पर्व विशेष उल्लास और धूम-धाम से मनाया जाता है। राजाओं की रियासत के समय राजस्थान के नगर-नगर में गणगौर की विशाल सवारी शाही शान-शौकत के साथ जुलूस के रूप में निकाली जाती थी और उसे शहर के बाहर किसी नदी या सरोवर में प्रवाहित कर दिया जाता था। राजस्थान की गुलाबी नगरी, जयपुर में अभी भी गणगौर की सवारी शाही तरीके से शासकीय स्तर पर निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से नर-नारी लाखों की संख्या में गणगौर के दिन जयपुर में उपस्थित होते हैं। जयपुर में गणगौरी बाजार भी बना हुआ है। मालवा में भी गणगौर का त्यौहार उल्लास और उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। कई अर्थों में मालवा की संस्कृति राजस्थान की संस्कृति से मिलती-जुलती है।

राजस्थान और मालवा में मोहल्ले और पड़ोस के अनेक परिवार के लोग मिलकर एक स्थान पर एकत्रित होकर गणगौर की स्थापना करते हैं और मोहल्ले भर की बालिकाएँ, नवविवाहित वधुएँ व अन्य सौभाग्यवती महिलाएँ मिलकर एक साथ गणगौर की पूजा-आराधना करती हैं। गली-गली में प्रात:काल की गणगौर की पूजा के लिए आती-जाती बालिकाओं के समूह संविद स्वर में गणगौर के गीत गाते दिखाई देते हैं। सिर पर पानी भरा कलश और हाथों में हरी-हरी दूब तथा रंग-बिरंगे फलों से सजी पूजा की थाली लेकर गीत गाती इन कन्याओं और महिलाओं को देखकर आप भी भाव-विभोर हो उठेंगे -

खेलण दो गणगौर
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
जो म्हारो सैयों जो है बाट
माथे न मैमद लाब
म्हारी रखड़ी रतनजड़ी
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर

 
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