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पर्व परिचय


संबोधि का पर्व : बुद्धपूर्णिमा
 
- रामचंद्र सरोज

ईसा पूर्व छटी शताब्दी तथा उसके आसपास का समय भारतीय इतिहास का ऐसा काल-खंड है जिसमें राजनीति, धर्म, दर्शन तथा समाज के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए और चिंतन की नयी दिशाओं का अनावरण हुआ।

बुद्ध पूर्णिमा को राजकुमार सिद्धार्थ को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। गया में, निरंतर सात दिनों तक अश्वत्थ (पीपल) के नीचे समाधिस्थ रहने के बाद, आठवें दिन बैसाख की पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसे 'संबोधि' कहते हैं। इसलिए गया को 'बोधि गया' तथा अश्वत्थ वृक्ष को 'बोधि वृक्ष' कहा जाता है। इस बुद्धत्व की प्राप्ति के पूर्व उनके जीवन एवं तपश्चर्या की प्रारंभिक कड़ियाँ लुम्बिनी, कपिलवस्तु एवं उरूबेला से जुड़ी हुई हैं।

कौशल राज्य के अधीनस्थ कपिलवस्तु राज्य के निर्वाचित शाक्य राजा शुद्धोदन की पत्नी महामाया का मातृकुल का नगर देवदह था। प्रसव के पूर्व वहाँ जाते समय, लुम्बिनी के शाल वन में, उन्हें प्रसव-पीड़ा हुई और वहीं एक शाल वृक्ष के नीचे शिशु सिद्धार्थ का जन्म हुआ। अशोक का प्रस्तर-स्तंभ अब भी वहाँ हैं, जिस पर 'हिंद बुधे जाते साक्य मुनीत' अर्थात यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ - अंकित है। 'मज्झिम-निकाय' के अनुसार जन्म के एक सप्ताह बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया और उनका लालन-पालन उनकी मौसी, जो शुद्धोदन की दूसरी पत्नी बनी - के द्वारा हुआ। डॉ. उमेश मिश्र के
अनुसार जन्म की तिथि ५६३ ई.पू. की वैशाखी - पूर्णिमा है।

अनेक शास्त्रों के अध्ययन एवं शास्त्रों में निपुणता प्राप्त कर लेने के बाद, 'प्रब्रज्या ग्रहण करने के भय से' उनका विवाह, केवल सोलह वर्ष की अल्पायु में, शाक्यवंश की ही राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। 'ललित-विस्तार' के अनुसार देवदूतों द्वारा क्रमश: व्याधिग्रस्त व्यक्ति, जर्जर शरीर वाला वृद्ध, शव लेकर जाते हुए लोग तथा काषायवस्त्रधारी साधु को देखकर, उनका महानिष्क्रमण हुआ। उनतीस वर्ष की अवस्था में, उन्होंने रात्रि में, अपने परिवार का त्याग किया। कपिलवस्तु से दूर आने पर, उन्होंने अपने केश काटे और काषायवस्त्र धारण किया। इसके उपरांत उन्होंने अनेक स्थानों में भ्रमण किया, अनेक सन्यासियों से, अनेक प्रकार से ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु न तो उन्हें मानव की समस्याओं का कोई उत्तर प्राप्त हुआ और न उन्हें संतुष्टि ही हुई। मगध जनपद के 'उरूबेला' में निरंजना नदी के तट पर, लगभग छह वर्षों तक, कठिन तपश्चर्या करने के दौरान शारीरिक यंत्रणा के दौर में वह अत्यंत जीर्ण एवं अशक्त हो गये। अन्न-त्याग के साथ श्वास-क्रिया को भी अवरोधित किया और मृत्यु के निकट पहुँच गये।

उन्होंने तपश्चर्या से विराम लिया। उरूबेला में ही सुजाता द्वारा प्रस्तुत भोजन को स्वीकार किया। उनके साथ के अन्य तपस्वी उन्हें पथ-भ्रष्ट समझकर उनका साथ छोड़कर चले गये। सिद्धार्थ ऋषिपत्तन होते हुए गया पहुँचे और यहीं, जैसा कि कहा जा चुका हैं, 'संबोधि' की प्राप्ति हुई। बोधि गया में बर्मा, चीन, जापान, तिब्बत तथा थाईलैंड की विशिष्ट शैलियों वाले बौद्ध
मंदिर हैं। महाबोधि मंदिर में बुद्ध की स्वर्ण मंडित प्रतिमा है, जो बोद्धों के आकर्षण का केन्द्र है।

'संबोधि' के बाद उन्होंने निरंजना नदी में स्नान किया। सर्वप्रथम उन्होंने शूद्रवर्गीय तपस्सु तथा भल्लि को उपदेश देकर दीक्षित किया। इन अनुयायियों के साथ काशी के ऋषि पत्तन (सारनाथ) में उन्होंने, उन पांच तपस्वियों को भी दीक्षा दी, जो उनका साथ छोड़कर चले गये थे। बौद्ध साहित्य में इस प्रसंग को 'धर्म चक्र प्रवर्तन' के नाम से स्मरण किया जाता है। 'संयुक्त निकाय' में 'धर्मचक्र-प्रवर्तन' अर्थात तथागत बुद्ध के प्रथम उपदेश का तात्पर्य इस प्रकार है- उनका भ्रमण जारी रहा। सामान्य जनता के अतिरिक्त अनेक राजा-सम्राट भी उनके धर्म में दीक्षित हुए। वह अपने पिता के राज्य कपिलवस्तु पहुँचे। उन्होंने अपनी मौसी गौतमी, पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल तथा नवविवाहिता पत्नी सुंदरी के प्रेम में आसक्त अपने चचेरे भाई नंद को दीक्षित किया। नंद के संदर्भ में यह कहा जाता है कि बलात उसका सिर मुंडित कर उसे दीक्षित किया गया। उसकी पत्नी प्रतीक्षारत रही। वह फिर लौटकर नहीं जाने पाया। अश्वघोष ने उस प्रसंग को अपने '
सौदरनंद' काव्य का विषय बनाया है। मोहन राकेश ने इसी प्रसंग को लेकर 'लहरों के राजहंस' नामक नाटक की रचना की।

वैशाली की गणिका आम्रपाली तथा श्रावस्ती के दुर्दांत दस्यु अंगुलिमाल को दीक्षित कर, उन्होंने अपने व्यक्तित्व के दिव्य प्रभावलय का परिचय दिया। भिक्षु संघ, भिक्षुणी संघ, तथा संघाराम की स्थापना तथा अनेकश: व्यक्तियों के दीक्षित होने के साथ, उन्हें विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनके चचेरे भाई देवदत्त का विरोध इतना प्रबल था कि बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर भी, उसने भगवान बुद्ध की हत्या के लिए तीन बार प्रयास किया, किंतु हर बार असफल रहा। दरअसल, वह बुद्ध का
स्थान लेना चाहता था।

बुद्ध के प्रधान शिष्यों में सारिपुत्र (ब्राह्मण), आनंद (बुद्ध के चचेरे भाई), मौद्गल्यायन (चिंतक तथा विद्वान), उपालि (नापित), सुनीति (भंगी), बिम्बिसार (मगध के शासक), अजातशत्रु (बिम्बिसार के पुत्र), जीवक (प्रसिद्ध वैद्य) तथा प्रसेनजित (कोसल के राजा) आदि का नाम आता है। शिष्याओं में गौतमी (मौसी), यशोधरा (पत्नी), नंदा (गौतमी की पुत्री), खेमा (बिम्बिसार की पत्नी), आम्रपाली (वैशाली की गणिका) तथा विशाखा (अंग जनपद की श्रेष्ठिपुत्री) के नाम प्रसिद्ध हैं।

बुद्ध का देहावसान अस्सी वर्ष की अवस्था में हुआ (असीतिको में वयोवत्तति - महानिब्बाण सुत्त)। जब वह वैशाली में थे, तभी वेलुग्राम में अस्वस्थ हो गये। मल्लों के शालवन में भिक्षुकों को अंतिम उपदेश देकर प्राण त्याग किया। यह तिथि ४८३ ई.पू. की वैशाख की पूर्णिमा थी। तथागत के निर्वाण के बाद, लगभग छह सौ वर्षों तक उनकी मूर्तियाँ नहीं बनीं। बाद में मूर्तियाँ बनाने की प्रथा चल पड़ी।

श्री लंका, बर्मा, थाईलैण्ड, तिब्बत, चीन, कोरिया, लाओस, वियतनाम, मंगोलिया, भूटान, कंबोडिया, नेपाल, जापान, और अनेक पाश्चात्य देशों के बौद्ध धर्म अनुयायी बुद्ध पूर्णिमा के धार्मिक कृत्यों को उत्साह के साथ धूमधाम से संपन्न करते हैं। बौद्ध धर्म का प्रमुख स्थल होने के कारण सारनाथ में इस पर्व का आयोजन बड़े स्तर पर किया जाता है। बुद्ध पूर्णिमा खुशी का त्यौहार है पर शोरगुल इस पर्व पर नहीं किया जाता। ध्यान और अर्चना में शांति और गंभीरता मिश्रित प्रसन्नता का प्राधान्य रहता है। इस पर्व में सौंदर्य और सजावट का अपना पक्ष है। बौद्ध देशों में गाँव, सड़कें, गलियाँ, मंदिर और घरों में सजावट की जाती है। उनपर सजी हुई बल्बों की कतारें, टिमटिमाते हुए दिये, सुंदर दीपदान और आकर्षक लालटेनें सहज ही देखने वालों का मन मोह लेती हैं।

 
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