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पर्व परिचय

पतंगों का लोक-पर्व उत्तरायण
- आस्था 

उत्तरायण के दिन १४ जनवरी से सूर्य के दैनिक परिभ्रमण का प्रयाण उत्तर दिशा की ओर शुरू होता हैं। इसलिए इस दिन को उत्तरायण कहते हैं। भौगोलिक और खगोलशास्त्र की दृष्टि से इस दिन का विशेष महत्व होता हैं।

उत्तरायण गुजरात का अत्यंत लोकप्रिय पर्व हैं। गुजरात में भी अहमदाबाद के उत्तरायण की तो बात ही अलग है। यहाँ घर के बड़े, बूढे, बच्चे सब के मन में एक अलग ही उत्साह होता है। इस दिन की तैयारियाँ ८ - १० दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं। पक्के से पक्का माँझा बनवाना यानी पक्की डोर, चुन कर रंगबिरंगी पतंगें लाने से शुरुआत होती है। खाने की तैयारियाँ भी शुरू हो जाती हैं। सूखा मेवा, तिल, मूँगफली, गुड़ की गज़क बनाते हैं। १३ जनवरी देर रात तक सब घर वाले एक साथ बैठ कर, पतंगों को डोर की किन्या बाँधकर तैयार करते हैं ताकि १४ जनवरी उत्तरायण के दिन एक क्षण भी इन छोटे-मोटे कामों में ना बिगड़े।

सुबह-सुबह सब लोग, अपनी अपनी छतों पर चढ़ जाते हैं। पतंग, डोर, खाने का सामान वगैरह लेकर। साथ में छत पर म्यूज़िक सिस्टम भी ले जाते हैं। ज़ोर-ज़ोर से गाने बजते हैं और घर का हर व्यक्ति पतंग उड़ाने के लिए तत्पर रहता है। बड़े, बूढ़े, बच्चे, महिलाएँ सब लोग बहुत ही उत्साह से पतंग उड़ाते हैं। कुछ लोग ढोल साथ में रखते हैं, कुछ लोग थाली-बेलन हाथ में रखते हैं। जब भी किसी की पतंग काटते हैं तब "हो काट्टा" कहकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं और साथ-साथ ढोल या थाली-बेलन बजाकर अपनी-अपनी खुशी व्यक्त करते हैं। आसमान जैसे दिखाई ही ना देता हो, रंगबिरंगी पतंगों से भर जाता है, अनगिनत रंगीन पतंगें आसमान पर दिखाई देतीं हैं, बहुत ही मनमोहक दृश्य होता है।

कुछ लोग गैस-चूल्हा, खाना बनाने का सामान सब कुछ ऊपर छत पर ले जाते हैं। पतंग उड़ाते जाते हैं, और साथ-साथ खाना पकाकर खाते जाते हैं। कुछ लोग बना बनाया खाना उपर ले जाते हैं, पर एक बात तय कि इस दिन खाना-पीना, सब छत पर ही होता है।

खाने में इस दिन ख़ास चीज़ें होती हैं - 'खीचड़ो-चावल' और सब तरह के कठोल को मिलाकर, धीमी आँच पर पकाया जाता है, उसमें मूँगफली का कच्चा तेल डालकर खाया जाता है। 'उंधीयुं ' यानि सब तरह की सब्ज़ियाँ मिलाकर एक स्वादिष्ट सब्ज़ी बनाई जाती है। कुछ लोग इस सब्ज़ी को, मटके में हर तरह की सब्ज़ियाँ मिलाकर, सब मसाले उस में ही डालकर, उस मटके को ज़मीन में गाड़कर, ऊपर से कोयले से की धीमी-धीमी आँच देकर पकाते हैं। साथ में गरमा-गरम जलेबी खाई जाती है। बाजरी के आटे की बड़ी-बड़ी मोटी-मोटी रोटियाँ बनाई जाती हैं जिसे रोटला कहते हैं। दही में बहुत सारा पानी मिलाकर बनाया गया पतला-सा पेय बनाते हैं जिसे छाश कहते हैं। ये ख़ास व्यंजन इस दिन के भोजन में होते ही हैं।

घर वाले, सब रिश्तेदार और मित्र, जो भी आए होते हैं, सब मिलजुल कर खाना खाते हैं, इस दिन आमंत्रण देने की ज़रूरत नहीं होती, जो जिसके घर गया हो, उसे वहीं सब के साथ मिलकर खाना खा लेना होता है। सब खाने की चीज़ें और थालियाँ, ऊपर छत पर ही रखी होती हैं, अपने आप ले लेकर खाना होता है, एक अलग ही मज़ा होता है, इस तरह सब के साथ मिल कर खाना खाने का।

ये तो हुई सिर्फ़ दोपहर के खाने की बात। बाकी दिनभर, कुछ ना कुछ तो खाते ही रहते हैं। उनमें ख़ास तिल, मूँगफली, सूखा मेवा और गुड़ से बनी गज़क होती है। गन्ने और झींझरा यानी भूनें हुए हरे चने भी इस पर्व के भोजन का विशेष अंग हैं। आज के दिन फलों में ख़ास जामफल और मीठे बेर खाए जाते हैं। इस तरह पूरा दिन हँसी-खुशी, हँसते-गाते और पतंग उड़ाते हुए बीत जाता है।

पतंगबाज़ी रात तक जारी रहती है। हालाँकि दिन भर के हंगामे के बाद शाम को इसका ज़ोर थोड़ा हल्का हो जाता है। रात के समय सब लोग सफ़ेद रंग की पतंग उड़ाते हैं। पतंग की डोर के साथ मोमबत्ती का फानूस, जो रंगबिरंगे काग़ज़ का बना होता है, बाँधा जाता है। ऐसे ८-१० फानूस, जिन में जलती हुई मोमबत्ती होतीं हैं, एक लाईन में धीरे-धीरे ४ से ५ फूट के अंतर से छोड़ा जाता है। अंधेरी रात में, आकाश में, जलती हुई ८-१० मोमबत्तियों के फानूस का दृश्य देखने लायक होता है। इस तरह उत्तरायण का दिन पूरा होता है गुजरात में।

अहमदाबाद में तो लोग दूसरे दिन यानी कि १५ जनवरी के दिन, "बासी उत्तरायण" भी इतने ही उत्साह से मनाते हैं। पूरा शहर अपने आप छुट्टी रख लेता है, स्कूल - दफ्तर सब खाली होते हैं।

फरवरी २००२

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