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शस्त्र पूजा के कारण ही दशहरे को मुख्य रूप से क्षत्रियों का पर्व माना गया
है, क्यों कि राम भी क्षत्रिय थे और ख़ास तौर पर प्राचीन भारतीय व्यवस्था में
सुरक्षा एवं युद्ध का कार्य क्षत्रिय करते थे।
इस प्रसंग से अन्य घटनाएँ भी जुड़ी हैं, जो शक्ति
एवं शस्त्र पूजा की परंपरा को पुष्टि प्रदान करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इंद्र
भगवान ने दशहरे के दिन ही असुरों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत का युद्ध भी इसी
दिन प्रारंभ हुआ था तथा पांडव अपने अज्ञातवास के पश्चात इसी दिन पांचाल आए थे, वहाँ
पर अर्जुन ने धनुर्विद्या की निपुणता के आधार पर, द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था।
ये सभी घटनाएँ शस्त्र पूजा की परंपरा से जुड़ी हैं।
दशहरे के दिन शमी वृक्ष की पूजा भी की जाती है। इस
सबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।
एक कथा के अनुसार जब राजा विराट की गायों को
कौरवों से छुड़ाने के लिए अज्ञातवासी अर्जुन ने अपने अज्ञातवास के दौरान शमी की
कोटर में छिपाकर रखे अपने गांडीव धनुष को फिर से धारण किया, तो पांडवों ने शमी
वृक्ष की पूजा कर गांडीव धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष का आभार प्रदर्शन किया, तभी
से शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की पूजा भी होने लगी।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार राजा रघु के पास एक
साधु दान प्राप्त करने हेतु आया। जब रघु अपने खज़ाने से धन निकालने गए, तो खज़ाना
खाली पाया। फलत: रघु क्रोधवश इंद्र पर चढ़ाई करने को तैयार हो गए। इंद्र ने रघु के
डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परंपरा
कायम हुई कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को
अपनी पगड़ी में ले लेते हैं।
शस्त्र पूजा की यह परंपरा भारत की रियासतों में
बड़ी धूमधाम से मनाई जाती रही हैं। रियासतों में शस्त्रों के साथ जुलूस निकाला जाता
था। राजा विक्रमादित्य ने दशहरा के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना, पूजा की थी।
छत्रपति शिवाजी ने भी इसी दिन देवी दुर्गा को प्रसन्न करके तलवार प्राप्त की थी,
ऐसी मान्यता है। तभी से मराठा अपने शत्रु पर आक्रमण की शुरुआत दशहरे से ही करते थे।
महाराष्ट्र में शस्त्र पूजा आज भी अत्यंत धूमधाम
से होती हैं और इसे 'सीलांगण एवं अहेरिया' के नाम से पुकारा जाता है। अर्थात मराठे
इस दिन अपने शस्त्रों की पूजा कर दसवें दिन 'सीलांगण' के लिए प्रस्थान करते थे। 'सीलांगण'
का अर्थ होता है 'सीमोल्लंघन' अर्थात वे दूसरे राज्य की सीमा का उल्लंघन करते थे।
इसमें सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा की जाती थी, उसके
पश्चात पेशवा पूर्व निश्चित खेत में जाकर मक्का तोड़ते थे और तब वहाँ उपस्थित लोग
मिलकर उस खेत को लूट लेते थे। दशहरे के दिन एक विशेष दरबार भी लगाया जाता था,
जिसमें बहादुर मराठों की पदोन्नति की जाती थीं।
राजपूतों (राजपूताना) में भी सीलांगण प्रथा
प्रचलित थी। किंतु 'सीलांगण' से पूर्व वे 'अहेरिया' करते थे अर्थात इस दिन वे
शस्त्र एवं शमी वृक्ष की पूजा कर विजय के रूप में दूसरे राज्य का 'अहेर' करते थे।
अर्थात शिकार मानकर आक्रमण करते थे। साथ ही दुर्गा अथवा राम की मूर्ति को पालकी में
रखकर जुलूस के रूप में सीमा पार करते थे। महिलाएँ भी इस अवसर पर पूजा करती हैं एवं
व्रत रखती हैं।
जब सीमोल्लंघन वास्तविक युद्ध में
बदल गया
सीमोल्लंघन की परंपरा कभी-कभी वास्तविक युद्ध का
रूप ले लेती थी। सन १४३४ में जब बूँदी एवं चित्तौड़गढ़ के राज परिवार इसी तरह 'अहेरिया'
खेल रहे थे उसी दिन हांडा सेनाओं ने सिसौदिया सेनाओं पर धावा बोल दिया जिसमे राणा
कुंभा को अपनी जान गँवानी पड़ी।
इसी तरह की एक अन्य घटना अमरसिंह के समय हुई।
अमरसिंह अपने पिता राणा प्रताप की मृत्यु के पश्चात १५५० में चित्तौड़ की गद्दी पर
आसीन हुए थे। उन्होंने अपने पहले दशहरे पर 'अहेरिया' खेलने के बजाय उत्ताला दुर्ग
में रुके मुगल सैनिकों के शिकार का प्रण किया, जिसमें उनके कई सरदार मारे गए।
राजपूतों में आज भी 'अहेरिया' की परंपरा है।
शस्त्र पूजा की परंपरा के अंतर्गत ही हैदराबाद,
मैसूर, मध्य प्रदेश की रियासतें भी दशहरे के अवसर पर विशाल जुलूस निकालती थीं।
विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय के दशहरे एवं जुलूस का वर्णन तत्कालीन पुर्तगाली
यात्री 'पेई' ने भी किया है। हैदर अली एवं टीपू सुलतान भी इस परंपरा को मनाते थे
तथा इस दिन कुश्ती, मुक्केबाजी एवं हाथी दंगल आदि कार्यक्रमों का आयोजन भी होता था।
इस दिन भैसों की बलि भी दी जाती थी, जो महिषासुर वध का प्रतीक माना जाता था।
भारतीय सेना में भी शस्त्र पूजा
चूँकि वर्तमान समय में रियासती व्यवस्था समाप्त हो
गई है। अत: शस्त्र पूजा की यह परंपरा अब उस रूप में नहीं मनाई जाती है, किंदु इसका
स्थान हमारी सेनाओं ने ले लिया है। भारतीय सेना ने सभी रेजीमेंटों में शस्त्र पूजा
अत्यंत ही धूमधाम से की जाती है। विशेष तौर पर जाट, राजपूत, मराठा, कुमाऊँ एवं
गोरखा रेजीमेंट तो शस्त्र पूजा अत्यंत उल्लास एवं धूमधाम से करते हैं। नवरात्र से
प्रारंभ कर दशहरे के दिन अर्थात १० दिन तक सभी शस्त्रों की पूजा-अर्चना की जाती है।
अंतिम दिन रात में ११ बजकर ५६ सेकैंड पर देवी दुर्गा के लिए काले बकरे की बलि दी
जाती है। इस दिन सेना में बड़ा खाना होता है। शस्त्र पूजा के साथ हमारे सैनिक पंडित
के निर्देश से शमी वृक्ष की पूजा भी करते हैं।
इस प्रकार आज भले ही रियासतों के रूप में शस्त्र
पूजा की परंपरा कायम न हो, किंतु हमारी सेना के जवानों द्वारा की जानेवाली शस्त्र
पूजा रियासतों के समय मनाई जानेवाली शस्त्र पूजा से कम नहीं हैं। इस दिन हमारे
सैनिकों में एक नई शक्ति जागृत होती है, जो किसी भी शत्रु को कुचल देने में सक्षम
हैं।
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