रंगाली बिहु : गीतों का रसभाव
- अजयेन्द्र नाथ त्रिवेदी
समय के प्रभाव
को कुछ देर के लिए झुठला देने में समर्थ ' बिहु' असम
का सर्वाधिक लोकप्रिय उत्सव है। इसे उत्तर भारत का
'लोक महोत्सव' भी कहा जाता है।
उल्लास का उन्नयक
व्युत्पत्ति की दृष्टि से ' बिहु' संस्कृत शब्द '
विषुव' से निष्पन्न माना गया है। वर्ष में यहां तीन
'बिहु' आयोजित किये जाते हैं - माघ, काति तथा बोहाग।
माघ मास में आयोजित होनेवाला ' बिहु' 'माघ बिहु' कहा
जाता है। यह मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित होता है।
असमिया मास के नववर्ष के साथ वैशाख में आता है 'बोहाग
बिहु'। काति (कार्तिक) मास के विषुव को आयोजित होता है
'काति बिहु'। वस्तुत: सभी ' बिहु' सूर्य के किसी न
किसी राशि में प्रवेश करने के अवसर पर आयोजित किये
जाते हैं। 'माघ बिहु' स्नान करने नारियल, तिल और धान
के विभिन्न घरेलू पकवान बनाने-खाने का त्यौहार होने के
कारण (भोग का) 'भोगाली बिहु' कहलाता है।
काति (कार्तिक) माह में जब खेतों में फसलें लगी होती
हैं और घर में अनाज का अभाव होता है तब 'काति बिहु'
(पूजा-पाठ और उपवास का बिहु होने के कारण) 'कंगाली
बिहु' कहलाता है।
बहाग (वैशाख) मास का ' बिहु' तो इन सबसे अनूठा एक
अद्भुत त्योहार बनकर आता है। इस ' बिहु' में आनंद ही
आनंद होता है। इसे 'रंगाली बिहु' भी कहा जाता है।
वस्तुत:'रंगाली बिहु' पूर्वोत्तर भारत के जनजीवन के
उल्लास का उन्नायक है।
बिहु का आत्मा : प्रणय
चौदह-पंद्रह अप्रैल को 'रंगाली बिहु' मनाया जाता है।
नृत्य तथा गीत 'रंगाली बिहु' का सर्वस्व है। यह असमिया
समाज के आनंदोत्सव का पर्याय है। आनंदातिरेक से भरा
असमिया व्यक्ति अपनी भावाभिव्यक्ति ' बिहु-बिहु
लागिसे' कहकर करता है। यह ' बिहु-बिहु' लगना ही '
बिहु' की अनन्य विशेषता है जिसके कारण यह त्यौहार इस
समाज के अन्य सभी त्यौहारों से एक अलग पहचान रखता है।
'रंगाली बिहु' की आत्मा है - नृत्य, गीत और संगीत। '
बिहु' श्रृगार रस प्रधान नृत्य है। इसमें
युवक-युवतियां सामूहिक रूप से भाग लेते हैं। युवतियां
असम के विश्व प्रसिद्ध मूगा रेशम की मेखला-च र (असम
की, महिलाआें का परंपरागत परिधान) पहनती हैं और युवक
धुति (धोती)- गंजी। वे अपने सिर पर अथवा कमर में गमोसा
(गमछा) लपेटे रहते हैं। इस नृत्य के साथ आंचलिक
वाद्यों यथा-पेपा, गगना, तका आदि के संगीत पर उन्मादक
अदाआें के साथ ' बिहु गीत' गाया जाता है। ये गीत बहुधा
पारंपारिक ही होते हैं। पर आधुनिक गीत भी अब ' बिहु
नृत्य' के समय गाये जाने लगे हैं।
असम का वसंतोत्सव
'रंगाली बिहु' असम में वसंतोत्सव की तरह मनाया जाता
है। इस समय नया वर्ष आता है, पेड़ नये पत्तों से सज
जाते हैं और शीत बीत जाने से नदी, निर्झर, तालाब और
पेड़ों की छांव सब भले लगने लगते हैं। एक पारंपारिक
'बिहु गीत में' इसका वर्णन कुछ यंू है :
चोते गोए-गोए बहाग पाले हि
फुलिसे कपोफुल गछत।
आमार नाचोनी गाते-तते नाइ
हुनि धुलिया धुलत सेओट।
अर्थात : चोत यानि चैत्र चला गया और बहाग (असमिया
कैलेंडर का पहला माह) आ गया। पेड़ों पर कपोफुल
(आर्किड़ की एक परजीवी किस्म) खिल गये। छुला (ढोल) की
आवाज सुन मेरी नर्तकी अब नाच-नाच उठती है।
असम में हथकरथे पर कपड़ा बुनने की अति प्राचीन परंपरा
रही है। बहाग की आहट को ही असम की कन्याएं 'बिहुआन'
(बिहु से अवसर पर भेंटस्वरूप देने के लिए हाथ करघे पर
बना गमोसा) बुनने लगती है। कोई-कोई इस पर अपने लिए
मूगा (असम का प्रसिद्ध रेशम) की मेखला बुन रही होती
है। एक असमिया बाला इस अवसर गाती है और बुनती है -
ओतिकै सेनेहर मुगारे मोहुरा
ओतिकै सेनेहर माकू
तातुकै सेनेहर बहाग बिहुटी
नेपाली केने कोई थाकु।
उपर्युक्त गीत में कोई बाला कहती है कि उसे 'मूगा
फिरकी' बेहद प्रिय हैं। उससे भी ज्यादा उसे करघे के
'शटल' की आवाज प्यारी है। पर इन सबसे प्यारा है उसे
'बहाग बिहु'। अत: वह उसे क्यों नहीं मनाये? एक अन्य '
बिहु गीत' में करघे पर काम करती एक बाला अपने प्रियतम
के संकेत पर मिलने जाने को उत्कट हो जाती है। पर उसके
सामने
' बिहुआन' तैयार करने का समयबद्ध काम पड़ा है। प्रियतम
के सीटी बजा देने पर अपनी पीड़ा वह यंू व्यक्त करती है
--
खिटिकि-खिटिकि के तांत बहि थाकोंते
खुहुरी मारिले तात
तोमार उसरलै जाऊं केनेकरी
शकरूए निदिए बाट।
एक असमिया बाला ' बिहु' के आगमन पर सबको तो अपने-अपने
कामों में लगी देखती है और स्वयं अपने प्रियतम से
मिलने का अवसर नहीं निकाल पाती है।
ऐसे में यह गीते उसके मुख से अनायास ही फूट पड़ता है :
-
गा धुई भगते गुरू करे सेवा
घाटय सेवा करे नाव
मोंय चिंता करूँ मोर सोनामुआक
केनेकै अकले पाव।
अर्थात : भक्त स्नान-ध्यान कर गुरू की सेवा कर रहा है।
मांझी अपनी नाव की व्यवस्था में लगा है। पर मेरी चिंता
तो मेरा प्रेमी है। मैं उसे किस प्रकार अकेले में पाऊं
यही सोचती हंू।
नयनाभिराम असम के मुखमंडल पर उन्नत नासिका की तरह
शोभित है महाबाहु ब्रह्मपुत्र। असमिया साहित्य की सभी
विधाआें में ब्रह्मपुत्र का वर्णन मिलता है। ' बिहु
गीतों' में ब्रह्मपुत्र का उल्लेख न हो ऐसा संभव ही
नहीं वस्तुत: ' बिहु नृत्य' के ज्यादातर कार्यक्रम
ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित बिहुतलियों में होते हैं।
एक बिहु गीत में ब्रह्मपुत्र के निर्मल जल और चमकीली
बालुकाराशि को निहारता एक प्रेमी कह रहा है :
लुइतरे बालि बगि ढेकेढ़की
काइस कनी पारे लेखी
गात जुई जलिसे सरियह फुलिसे
सेनाइक बिहुतलीत देखी।
अर्थात् लुइत (स्थानीय लोग ब्रह्मपुत्र को लुइत भी
कहते हैं) की रेत स्वच्छ और सफेद है। यहां कछुए अंडे
दे रहे हैं, सरसों फूल रही है। ऐसे में जब मैं अपनी
प्रेयसी को बिहुतली में देखता हंू तो शरीर में
कामनाआें की अग्नि जल उठती है।
प्रतीक पुष्प : नाहर
शीत बीतते ही असम का वन-प्रांतर नये फूलों से सज जाता
है। इस मौसम का 'प्रतीक पुष्प' है - नाहर। पेड़ों पर
खिलनेवाले इसके फूलों में मादक सुगंध होती है। वातावरण
की गर्मी और वायुमंडल में नाहर की मादक गंध पाते ही
स्थानीय युवक मदमस्त हो निकल पड़ते हैं। मस्ती के मारे
युवकों की टोली पेपा (भैंसे के सींघ से बना एक सुषिर
वाद्य) बजाकर अपनी प्रेयसियों को ' बिहुनृत्य' में
शामिल होने का निमंत्रण देते हैं। ' बिहु' के आगमन और
नाहर के विकसन के इस काल में जब प्रेमी पेपा की धुन
छेड़ता है तो प्रियतमा बेबस हो उठती है। एक उदाहरण लें
:
आजि बोले बिहु कालि बोले बिहु
नाहर फूल फुलिबर बतर।
पेपार मात सुनी याकिब नोआरूं
थेकेसी भागी जाऊं जतर।
' बिहु गीत' में जहां प्रकट रूप से प्रणय निमंत्रण
दिये जाते हैं वहीं सांकेतिक भाषा में काम वासना को
उभारनेवाले भाव भी व्यक्त किये जाते हैं। ऐसे में एक '
बिहु गीत' में यौन समागम की भावना या सांकेतिक वर्णन
कुछ इस प्रकार किया गया है:
हाती पानी खाले होवांगे दिहांगे
घोरा पागी खाले रोइ
सेनाइ पानी खाले पिरिति निजरात
थिये गरास खोपनी लै।
असमिया भाषा के इस ' बिहु गीत' में जो भाव सहज व्यक्त
कर दिया गया है हिंदी गद्य में उसका भावार्थ देना भी
अशोभन हो सकता है।
' बिहु गीतों' में मुख्यत: जहां अभिधार्थ में भावों की
अभिव्यक्ति हुई है वहीं कई गीतों में व्यंग्यार्थ का
सहारा लिया गया है। व्यंग्यार्थ में किया गया एक वर्णन
द्रष्टव्य है : -
आेंहते सलाले पात
आमार आइटी बरनटी सलाले लले रंगा रिहा गात।
इस गीत में एक युवक 'बहाग' के बदलते मौसम की और संकेत
करता और कहता है कि इस मौसम में पेड़ों पर नये पत्ते
निकल आये हैं और साथ ही निकल आते हैं हमारी प्रेमिका
के अंग। उसने अपने शरीर पर लाल ' रिहा' (वक्ष को
ढंकनेवाली कुमारियों की ओढ़नी) धारण कर रखी है। यहां
प्रेमिका पर तरूणाई के आगमन को सांकेतिक रूप में
व्यक्त किया गया है।
प्रकृति और जीवन का यथार्थ
' बिहु गीतों' में यदि प्रकृति और काम भावनाआें की
चर्चा है। इसमें जीवन के यथार्थ को भी भुलाया नहीं गया
हैं। ग्रामीण अंचल को रेखांकित करता एक ' बिहु गीत'
उल्लेखनीय है : -
तुमि करी जावा रोबानी दाबानी
मैनो बाइ जाम हाल।
तुमि लागाई जाबा बिहुरे गामोसा
मैनो पाति दिम एइ साल।।
इस गीत में कृषक पति अपनी पत्नी से कहता हैं कि तुम
रोपनी, दांवनी करना और मैं हल चलाऊंगा। इस पर पत्नी
कहती है कि अपनी सिर पर वह गमोसा धारण कर लेना जो
मैंने इस ' बिहु' में बुन दिया है।
प्रीति का संदेश
' बिहु गीतों' को विषय बनाकर काम करनेवाले तथा इस विषय
पर अपना विख्यात शोध पत्र प्रस्तुत करनेवाले प्रसिद्ध
असमिया विद्वान डॉ. प्रफुल्ल दत्त गोस्वामी के अनुसार,
' बिहु' समाज के सामान्य कल्याण की भावना से प्रेरित,
सामाजिक प्रकृति का एक त्योहार है। यदि हम ' बिहु
गीतों' का अध्ययन करें तो डॉ. गोस्वामी की उक्ति का
यथार्थ हमें मिलेगा। असमिया समाज ' बिहु' के नाम पर
एकात्मता का बोध सदियों से करता रहा है। विविध
जातियों, संस्कृतियों और विश्वासों के लोगों के मिलने
से बना असमिया समाज आज तभी तो ' बिहु' के नाम पर 'एक
मन', 'एक भाव' होकर थिरक उठता है। तभी तो चाहे वह
सुदूर पूर्व असम का डिब्रूगढ़ हो या सीमांत का
गोवालपाड़ा, ' बिहु' का प्रभाव सब पर एक-जैसा पड़ा है।
डॉ. भूपेन हजारिका के शब्दों में ही चाहें तो कह सकते
हैं, ' बिहु' मिलाप्रीति (मेलप्रीति) का त्यौहार है और
इस अवसर पर गाये जानेवाले गीतों में मिलाप्रीति का
स्वर प्रमुक स्थान रखता है। ' बिहु' के हर दूसरे गीत
के मुखड़े में पिरिती (प्रीति) शब्द प्राय: मिलता ही
है। एक ' बिहु गीत' में तो कहा ही गया है : -
प्रथमे ईश्वरे पृथिवि रूजिले
लगते रूजिले जीव
सेइजन ईश्वरे पिरिती करिले
आमी न करिम किय।
अर्थात ईश्वर ने पहले बनायी-पृथ्वी। फिर बनाये जीव। उस
ईश्वर ने ही जब प्रेम किया (पृथ्वी या जीव से) तो हम
क्यों न करें? आज हमारे जीवन में इस पिरिती (प्रीति)
की अत्यंत आवश्यकता है। हमारी कामना है कि ' बिहु
गीतों' में अभिव्यक्त पिरिती का यह भाव समस्त असम ही
नहीं समस्त भारत के लोगों में हर वर्ष भरे।
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Aaija baaolao ibahu kaila baaolao ibahu
naahr fUla fuilabar batr.
popar maat saunaI yaaikba naaoAa$M
qaokosaI BaagaI jaa}M jatr.
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ivaWana Da^• p`fulla d%t gaaosvaamaI ko Anausaar¸ '
ibahu' samaaja ko saamaanya klyaaNa kI Baavanaa sao
p`oirt¸ saamaaijak p`kRit ka ek %yaaohar hO. yaid
hma ' ibahu gaItaoM' ka AQyayana kroM tao Da^•
gaaosvaamaI kI ]i> ka yaqaaqa- hmaoM imalaogaa.
Asaimayaa samaaja ' ibahu' ko naama pr eka%mata ka
baaoQa saidyaaoM sao krta rha hO. ivaivaQa
jaaityaaoM¸ saMskRityaaoM AaOr ivaSvaasaaoM ko
laaogaaoM ko imalanao sao banaa Asaimayaa samaaja
Aaja tBaI tao ' ibahu' ko naama pr 'ek mana'¸ 'ek
Baava' haokr iqark ]zta hO. tBaI tao caaho vah
saudUr pUva- Asama ka iDba`UgaZ, hao yaa saImaaMt ka
gaaovaalapaD,a¸ ' ibahu' ka p`Baava saba pr
ek–jaOsaa pD,a hO.
Da^• BaUpona hjaairka ko SabdaoM maoM hI caahoM tao
kh sakto hOM¸ ' ibahu' imalaap`Iit ³maolap`Iit´ ka
%yaaOhar hO AaOr [sa Avasar pr gaayao jaanaovaalao
gaItaoM maoM imalaap`Iit ka svar p`mauk sqaana rKta
hO. ' ibahu' ko hr dUsaro gaIt ko mauKD,o maoM
ipirtI ³p`Iit´ Sabd p`aya: imalata hI hO. ek ' ibahu
gaIt' maoM tao kha hI gayaa hO : –
p`qamao [-Svaro pRiqaiva $ijalao
lagato $ijalao jaIva
sao[jana [-Svaro ipirtI kirlao
AamaI na kirma ikya.
Aqaa-t [-Svar nao phlao banaayaI–pRqvaI. ifr
banaayao jaIva. ]sa [-Svar nao hI jaba p`oma ikyaa
³pRqvaI yaa jaIva sao´ tao hma @yaaoM na kroMÆ Aaja
hmaaro jaIvana maoM [sa ipirtI ³p`Iit´ kI A%yaMt
AavaSyakta hO. hmaarI kamanaa hO ik ' ibahu gaItaoM'
maoM AiBavya> ipirtI ka yah Baava samast Asama hI
nahIM samast Baart ko laaogaaoM maoM hr vaYa- Baro.
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