पहली
बार जब आस्ट्रेलिया
आने के लिये एक भारतीय मित्र से विदा
ली तो न शुभकामना न चेतावनी, वे अपने सनकी अन्दाज मे
बोले जाओ जाओ भारतभूमि का ही जो हिस्सा हजारों
साल पहले हमसे बिछड़ गया है उससे संपर्क साधने तुम्हे जरूर
वहां जाना चाहिये। मुझे किसी पुस्तक मे पढ़ी बात
अचानक मेरे मित्र की बात का संदर्भ दे गई पर कुछ जैसे को
तैसा बोलने की खुजली मे कह डाला गुरू, न मै महाद्वीपों
की सतह का इतिहास रखता हूं न मै आस्ट्रेलिया की निर्जीव माटी
से स्नान करना चाहता हूं । मै तो वसुधैव कुटुंबकम् को
मद्देनजर रख कर आस्ट्रेलियावासियों के बीच रह कर वहां की
संस्कृति के बारे मे भी कुछ जानना चाहता हूं।
कहने
को तो कह डाला पर यहां आस्टे्रलिया आकर एक बार तो स्वयं को
पर कटे पंछी सा पाया । सच भी है एक चिड़िया, एक बछड़ा या
एक पौधा क्या करेगा जब उसे अपनी ही माटी से उखाड़ लिया
जाय ? क्या करेगा एक इंसान जब विदेश का अपरिचित आवरण
पराया सा महसूस होने लगे । इस दुनियावी परमात्मा मे भी
अपनी आत्मा को ढूंढने का प्रयास तो करेगा ही न! यही किया
यहां के तमाम भारतीयो ने। वैसे तो कहा जाता है कि यहां
प्रथम भारतीय केप्टेन कुक के साथ आया था पर आस्टे्रलिया मे
भारतवासियों का टोली मे प्रथम आगमन
उन्नीसवी शताब्दी मे हुआ जिनमे अधिकतर लोग मजदूर
थे तब भी उन्होने परिश्रम से उपजे आनन्दभाव और
पारिवारिक संस्कृति को नहीं छोडा फिर अचानक 1901 के एक्ट के तहत
नये भारतीय आने बन्द हो गये। श्वेतआस्ट्रेलिया की
नीति का बोलबाला लगभग द्वितीय महायुद्ध के अन्त तक रहा, जिससे भारतीयों की
संख्या लगभग 7000 पर आकर रूक सी गई।
दूसरा
दौर 1950 से शुरू हुआ जब एंग्लोइंडियन समुदाय को यहां
आने के लिये ढील दी
गई जिन्हे जनगणना मे बाकायदा भारतीय होने की
पहचान मिली। धीरे धीरे रंगभेद की नीति अन्तिम सांसे लेती
हुई दम तोड़ गई और 1966 से उस नवयुग का सूत्रपात हुआ
जिसमे भारतीयों को योग्यता के आधार पर आने मे कोई
कठिनाई नही हुई और अब पिछली जनगणना के अनुसार
भारतवशिंयों की संख्या 190 हजार तक पहुंच गई। फिजी मे
सैनिक विद्रोह के बाद जब वहां भारतीयों को प्रताड़ित किया
गया तो वे भी यहां आकर बस गये। इन्होने तो यहां के
भारतीय जनजीवन का नक्शा ही बदल डाला। जहां भारत से
आये प्रवासी अपने क्षेत्र मे विशिष्ट जानकारी के
बूते पर नौकरियां हांसिल करते रहे वहां फिजी भारतीय
अपने व्यवसाय व व्यापार मे काफी प्रगतिशील रहे। आज यदि
भारतीय स्त्रियां यहां साडियां और गहने खरीद पाती है तो इसमे फिजी हिन्दुस्तानियों
की व्यापारिक दक्षता का बहुत बडा योगदान है। कुछ वर्षो से जब
गुजराती व्यापारियों का अफ्रीका से आना शुरू हुआ फिर तो कहना
ही क्या! अब जब
हिन्दीसिनेमा यहां तक कि भारतीय नाइटक्लब भी
उपलब्ध हैं तो पन्द्रहबीस वर्ष पूर्व आये प्रवासी
छोटीछोटी वस्तु के अभाव का और अकेलेपन का गुजरा
जमाना याद कर सब को
चौंका देते हैं।
यहां
भारतीयों ने अपनी संस्कृति को जीवित रखने के लिये मराठी,
गुजराती, तमिल, बंगाली आदि एसोसियेशन बनाने शुरू किये
पर इतने मशगूल हो गये अपने भाषाई और क्षेत्रिय संघ मे
कि आस्ट्रेलिया सरकार के सामने एक भारतीय चेहरा बना कर खड़े
होने मे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अनुदान खोते
खोते कई अथक प्रयासों के बाद एक फेडरेशन, एक
छातासंस्था बनाने मे सफल हो गये।
तो
बात चली थी विदेशी वातावरण मे जूझने की । आक्रमण या
पलायन की
मूल प्रवृति के नियम के अनुसार कुछ लोग पलायन
का सहारा भी ले लेते हैं । जनगणना का मकसद होता है कि हर
व्यक्ति सरकार को अपने
अस्तित्व से सही पहचान करवाये जिससे सरकार को अपनी नीति
लागू करने मे सहायता मिले । यदि हिन्दीभाषी हीन भावना के
शिकार हो कर हिन्दी को अपनी मातृभाषा घोषित करने से इन्कार
कर देंगे तो वे सरकार से कैसे अपेक्षा रख सकते हैं कि
नीतिनिर्धारण के समय उनकी भाषा के साथ न्याय हो
पाायगा? मिडिया मे काफी प्रचार के बाद इस हालात मे अब
सुधार आ पाया है। भाई तेजेन्द्र शर्मा परिक्रमा मे
बताते है कि किस प्रकार यू के मे उन्हें व उनके सहयोगियों
को हिन्दी को अपना स्थान दिलाने के लिये जूझना पड़ा। यदि
हम यहां हिन्दीसेवी संस्थाओं की सदस्यता ग्रहण करने मे भी
हिचकिचायेंगे या पदाधिकारी बनने के बाद राजनैतिक दावपेच
से संस्थाओं को विघटन
के कगार पर पहुंचा देगे तो हम देर सबेर ही सही किसके पैरों
पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
ऐसा कहना भी अन्याय होगा कि यहां पर अधिकांश भारतवासी इस
परिधि मे आजाते हैं बल्कि निष्काम कर्मयोगियों की भी यहां
कमी नहीं है। कंप्यूटर जैसे अपने अपने क्षेत्र मे लगे हुये
भारतीयों को राजनीति या कूटनीति के लिये समय भी नहीं
है। अपनी संस्कृति की रक्षा के साथ साथ उन्हे
आस्ट्रेलियावासियों से मिल जुल कर रहना भी खूब आता है ।
यहां पर भारतवासी घेटो बनाकर नहीं रहते बल्की जहां भी
उन्हे काम मिलता है उसके आसपास अपना घर किराये पर ले लेते
है या खरीद लेते है। यह इसी बात का प्र्रमाण है कि वे किसी
प्रकार की असुरक्षा की भावना के शिकार नहीं हैं। जुआ़ ड्रग या
अपराध के क्षेत्र मे नहीं बल्कि आदर्श नागरिक के उदाहरण के रूप मे
प्रस्तुत किये जा सकते हैं। मुख्यतया ये अपने
क्षेत्र मे दक्षता
के आधार पर आये है; इन्हे डोल पर रह कर स्वाभिमान पर चोट
आने देना कतई पसन्द नहीं। इस तरह ये यहां की अर्थ व्यवस्था
मे सकारात्मक रूप से योगदान करते रहे हैं।
यहां
भारतवंशी किस प्रकार आस्ट्रेलियावासियों के साथ
मेलजोल बढ़ाते हैं
और किसी के आंख की किरकिरी नहीं बनते इसका एक प्रमाण पॉलिन
हेन्सन नामक रेसिस्ट मानी जाने वाली राजनेता की
टिप्पणी से मिलता है । जो पॉलिन हेन्सन यहां के मूल
निवासियों और चीन से आये प्रवासियों के प्रति काफी
अनुदार विचार रखती है जब उससे भारतवंशियों पर टिप्पणी
करने को कहा गया तो नकारात्मक बात सुनने की अपेक्षा रखने
वाले पत्रकार को हर्षमिश्रित आश्चर्य का सामना करना पड़ा। कहना
न होगा भारतवासी अपनी पहचान और
अस्मिता बनाये रख कर भी यहां की आम जनता के साथ दूध
और पानी की तरह घुलमिल जाते हैं।
अब
जरा भारतवशिंयों के बेटेबेटिया क्या करती हैं इस पर नजर
दौड़ाई जाय। अमेरिका या ब्रिटेन की तरह यहां तीसरी चोथी
पीढ़ी होने की अपेक्षा रखना व्यर्थ है क्योंकि प्रवास का मार्ग ही
अपेक्षाकृत बहुत समय बाद खुला है। प्रवासियों की संताने
जस बाप तस बेटा वाली कहावत चरितार्थ करती हैं।
हिन्दुस्तानी छात्रों का
अधिकतम प्रतिशत बेचलर्स या मास्टर्स डिग्री तक अवश्य पहुंचता
है वह भी मेडिसिन, लॉ, अभियान्त्रिकी, कंप्यूटर, कोमर्स व
व्यापार आदि के क्षेत्र मे । माता पिता बचपन से ही बच्चों मे
महत्वाकांक्षा के बीज
रोपते है जो शिक्षा के क्षेत्र मे स्पष्ट रूप से द्रष्टिगोचर होता
है।साथ ही अब तो भारत मे रहने वाले छात्रों को एक नया
स्वर्णिम मौका हाथ लगा है। यहां पर विश्वविद्यालय आर्थिक
रूप से सुदृढ़. नहीं होने से पूरी फीस देने वाले छात्रों की
कमी उन्हे अखरती है। अन्धा
क्या चाहे दो आंखे को चरितार्थ कर न केवल यहां की लगभग
दसबीस यूनी भारत के छात्रों को यहां पढ़ने के लिये
प्रोत्साहित करती हैं; भारत मे बसे छात्र भी जम कर स्टूडेन्ट
विसा लिये लक्ष्मी देकर सरस्वती की आराधना के लिये चले आते
हैं।यहां किसी भी सांस्कृतिक गतिविधि मे यही छात्र भारत की
तरोताजा हवा को लाकर उसके
झोंके से नई स्फूर्ती भर देते हैं।
भारतीयों
के लिये अमेरिका की पुकार जब मन्द हो रही है तो आस्ट्रेलिया
अब भी आवाज दे रहा है। हम राहुल सांस्कृत्यायन का दर्द समझ
सकते हैं कि जनसंख्या के भार से दबा भारत मध्ययुग की
कूपमंडूक आस्थाओं के कारण आस्ट्रेलिया की अमित भूमि व अपार
संपति की खोज से वंचित रह गया। पर अब जब भारत
समुद्र पार करने से पाप लगने जैसी सड़ी गली
मान्यताओं को तिलांजलि दे चुका है तो जागे तब से
सुबह को मान कर क्यों न आस्ट्रेलिया पर नजर दौड़ाई
जाय जो स्वर्णिम अवसरों से हमारा स्वागत करने को तैयार
है।
जनवरी 2004
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