एक
आदमी कब तक भला बिल में छुपा रह सकता है . . .विशेषतः जब
उसके अपने ही कर्मों की कतरन सामने दरवाजे पर बिखरी पड़ी हो
और हवाएं हर दिशा में दुर्गंध फैला रही हो। शब्दों को
मनचाहा मोड़ दे रही हो। परछाइयां पीछा कर रही हो!
शायद अब इस संदर्भ में यह
सवाल इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि यह . . .कि आखिर एक
आदमी चूहा बनता ही क्यों और कैसे है?
यह सब जानने के लिए पीछे,
बहुते पीछे जाना होगा . . .चारों तरफ जब जंगल और जंगल
राज था। शातिर या सभ्य, आदमी था ही नहीं . . .विकसित ही
नहीं हुआ था . . .आदमी का वजूद ही धरती पर नहीं था। जंगल
के राजा शेर को चालाक लोमड़ी ने अपदस्थ कर दिया था और
उसकी पैनी आंखें एक होशियार और महत्वाकांक्षी बढ़ते सियार
के बच्चे पर थीं, जिसे राजा बना वह पूरे राजपाट को
मनचाहा मोड़ दे सकती थी। झटपट शेर की खाल उढ़ा उस सियार
के बच्चे से कहा, आज से तुम ही शेर हो। इस जंगल के राजा
हो। अगले पल ही दूर से आती भयानक दहाड़ से वह सियार डर
गया और गद्दी छोड़ भागा। नदी नाले पार करता, दु्म दबाए
सियार आदतन दूर कहीं जाकर छुप गया। वक्त के साथ फिरसे
हिम्मत बटोरी और खाल ओढ़े शेर बना सियार फिरसे बाहर आ
गया। भोलेभाले जानवरों ने तहे दिल से अपने राजा शेर
का स्वागत किया और सोचा कि अब वह फिरसे चैन की सांस ले
सकेंगे पर उन्हें क्या पता था कि अभी तो उनकी परेशानियों की
शुरूवात ही हुई है। काम क्रोध और मद मोह के पहिए लगा,
वीरता का कवच पहने वह राजा तो बन चुका था पर सत्ता और
ताकत के मद में पूरी तरह से भूल गया कि राजा का धर्म अपनी
और देश की रक्षा के साथ प्रजा की रक्षा करना भी है। याद भी
कैसे रख पाता वह तो शेर था ही नहीं . . .मात्र सियार था। खुद
में असुरक्षित सियार शेर का सा आत्मविश्वास और विवेक लाता
तो कहां से लाता? जो भी उसके रास्ते में आता, उसके खिलाफ
आवाज उठाता सियार उसे दंड दे निर्दयता से कुचल देता . .
.गलतियां बताने वाले का मुंह हमेशा के लिए बन्द कर दिया
जाता . . .चाहे वह उसके अपने प्रियजन और हितैषी ही क्यों न
हों? उसने तो बिल्ली मौसी तक को न छोड़ा . . .अपनी ही
सुरक्षा समिति में मात्र सावधान भर करने पर टुकड़ेटुकड़े कर
अगले दिन ही बोरे में बन्द उसे उसके ही घर भिजवा दिया।
उसकी निर्दयता और क्रूरता से चारों तरफ त्राहित्राहि मच गई।
पड़ौसियों का भी सोना मुश्किल हो गया। सब परेशान थे
और एक बार फिर लोमडी ने हस्तक्षेप करने की सोची। सियार ने
तो उसकी भी अवहेलना शुरू कर दी थी . . .उसकी बात तक नहीं
सुनता था वह। नाराज लोमड़ी ने दल बदल आक्रमण कर दिया।
जत्थे के साथ सियार को घेर लिया। घबराया सियार भागा .
. .उसके बहादुर सिपाही एक के बाद एक मारे गए और शेर की खाल
दूर जा गिरी।
अब आप खुद ही सोचिए वह
डराहारा, शिकार बना सियार बिल में न छुपता तो और क्या
करता? अब तो शेर बनकर जीने की बात छोडिए, उसे तो सियार
बनकर जीना भी मुश्किल ही नजर आ रहा था। फिर भला एक सियार
कबतक बिल में छुपा रह सकता है . . .खास करके जब शेर की खाल
बाहर दरवाजे पर . . .खुद उसके सामने ही पड़ी हो?
चलिए छोड़ें, हम भी किस तूफान
में फंसे सोच को गोलगोल घुमा रहे हैं . . .यह शेर
सियार और लोमड़ी तो आते जाते ही रहेंगे . . .जब जिन्दगी
भर जंगलों में ही रहना है तो शेर सियार और लोमडियों
की भी आदत तो पड़ ही जानी चाहिए। बस इतनी ही
सावधानी की जरूरत है कि मरे और मारे जानवरों की खाल
दूसरे जानवरों के हाथ न लग पाए। एक दूसरे की कोई चमड़ी
न उधेड़ पाए और कोई भी छद्मवेशी बारबार धोखा न दे
पाए। हमें इससे कोई फरक नहीं पड़ना चाहिए कि सियार के साथ
कैसा बर्ताव हुआ . . .जैसी करनी वैसी भरनी वाली कहावत हम
सबकी सुनी हुई है।
अब लोमड़ी ने खदेड़कर सियार
को बाहर निकाला या दवा से शान्त करके यह सब तो उसके
अपने कुनबे के सोचने की बातें हैं . . .हमें तो बस इतना
ही सोचना होगा कि शेर की खाल अभी भी बाहर ही कहीं पड़ी हुई
है और फिरसे किसी स्वार्थी भटके हाथ में एक और नया औजार
बन सकती है और दूर दिखता वह जंगल हमारे अपने घर के बहुत
पासपड़ोस तक में हो सकता है, क्योंकि हर जाने वाला कल
जिसे हम अक्सर अतीत समझकर भूल और ढक देते हैं, आनेवाला
कल बन भविष्य के आकाश से अगली सुबह ही हम तक पहुंच जाता
है . . .जो हुआ वह सही भी था या नहीं, न हम जान सकते
हैं न जानने की इतनी जरूरत। क्योंकि निश्चय और निर्णय की
सामर्थ्य हमारे हाथ में नहीं। हम तो बस आसपास घटती
घटनाओं से सीख और सतर्क ही हो सकते हैं।
इस पंचतंत्र और मायाजाल में एक
दिन हम और हमारा संसार कीड़े सा न उलटा लटक जाए . . .कैसे
हम उसे बचा सकते हैं यही और बस यही हमारा एकमात्र ध्येय
रहना चाहिए।
इधर से पलटो या उधर से,
इतिहास के जिद्दी पन्ने हमेशा एक ही जगह अड़े रहते हैं . . .हरदम
खुदको दोहराते भरमाते रहते हैं। घूमनेघुमाने का यह शौक
एकबार फिर उन्हीं पुरानी काली गुफाओं . . .राजा रानी की रिसती
कहानियों के संसार में ले आया था। प्रथम रानी एलिजाबेथ
और उसकी बदकिस्मत बहन मैरी . . .भारत के महाराजा रणजीत
सिंह और अभागा कोहिनूर हीरा। कहानी एकबार फिरसे वही थी।
किसी की महत्वाकांक्षा . . .किसी का विश्वासघात और किसीके
धोखे व कायरता की।
पर शायद यही तो मानवता का
स्वभाव, इतिहास और नियति है . . .पहले रिसते घावों को
कुरेदना . . .मरहम पट्टी कर घावों को ठीक करना और फिर से
जाकर एक और नयी चोट लगा लाना। लंडन टावर के अंधेरे
प्रांगण में बहती बर्फीली सर्द हवाओं ने हर सोच को सुन्न
कर दिया था। आहत खड़ी सोच रही थी क्या समय सर्व
शक्तिमान नहीं . . .इतना बलवान नहीं कि हमें कुछ भी सिखा
सके . . .लेश मात्र भी बदल सके? सदियां यूं ही बदलती
रहेंगी और शेर सियार लोमड़ी का परिवेश बदले सैंकड़ों
जीवन आते जाते रहेंगे . . .कुछ भी तो नहीं बदलता, न
कहानियां, न पात्र और न ही रंगमंच . . .
भारत से आए स्वजनों के साथ
पैरिस के एक बेहद महंगे, नामी और फैशनेबल नाइट क्लब
में बैठे हम वही अपने पौराणिक सफेद ऐरावत हाथी और उसपर
सवार कमल से प्रकट लक्ष्मी जी को देख रहे थे . . .बोनिहेम
नामके उस रंगारंग, भड़कीले और मादक कार्यक्रम में बेहद
लचीली कलाबाज और आधी नंगी लड़कियों के साथ नाचते
गणपति भी थे वह भी एक नहीं दर्जनों . . .पर मुझे यह
परेशानी और शर्म किस बात की . . .खुद ही तो टिकट खरीदकर पैसे
देकर आई थी और फिर सबकुछ ही तो बहुत ही कलात्मक सुरूचिपूर्ण
भी तो था . . .क्लब के पूरे तरह से ही अनुकूल . . .तीस साल
पहले देखे इस कार्यक्रम की तारीफ भी तो मैंने ही की थी . .
.मैं ही तो सबको लेकर आई थी . . .और अगर भारतीयता को
भूल एक यूरोपियन की तरह सोचूं तो कार्यक्रम कला और
मनोरंजन की दृष्टि से अति सफल और अभूतपूर्व था।
साजसज्जा कला और रूचि में अग्रणी और अद्वितीय था . . .
भारतीय संस्कृति और पौराणिक
कथा . . .वह भी पैरिस के फैशनेबल शो केस नाइटक्लब में
. . .एक गर्व की बात होनी चाहिए थी हमारे लिए . . .वैसे भी
तो पूरे विश्व को हम अपनी संस्कृति के बारे में बताना चाहते
हैं . . .यदि हम प्रचिलित होंगे तो थोड़ा बहुत दुरोपयोग
होगा ही भारत से बाहर सबसे बड़ा लंडन के नीचल्स में
बना स्वामी नारायण का भव्य व मोहक मंदिर या फिर साउथ
हॉल का गौरवमय शानदार गुरूद्वारा आते जाते हर पर्यटक से
हमारी संस्कृति की गौरव गाथा कहते हैं फिर इस मशहूर नाइट
क्लब ने मुझे उलझन में क्यों डाल दिया था . . .यही सब
तो हम चाहते हैं कि आज के इस विश्व एकीकरण के व्यापारिक
समाज में . . .खूब सारी विदेशी मुद्रा और भरपूर ख्याति
हमें मिले पर इस कीमत पर नहीं . . .देवी लक्ष्मी वह भी
अर्धनग्न और कैनकैन गर्ल्स के साथ गरिमाहीन कूदती हुई
. . .दर्जनों गणेश, मात्र एक विचित्र अलंकरण बने आगे पीछे
घूमते हुए?
पर शो के अंत में एक बार फिर
सारी नेक नीयती और खैरखयाली को पर्स में समेटे एक अच्छे
सभ्य और सहिष्णु (साहस हीन) भारतीय की तरह बिना कोई
आपत्ति उठाए, आयोजकों से शिकायत किए बगैर . . .शैम्पेन
और पैरिस के नशे में धुत् अन्य यूरोपियन्स की तरह हम भी
ताली बजाते . . .यादों के सुविनियर उठाते . . .चुपचाप घर
वापस लौट आए।
दिसम्बर 2003
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