जोहैन्सबर्ग
में पर्यावरण सम्मेलन और भारत का आगामी प्रवासी दिवस
मदर टेरेसा का वैटिफिकेशन (संत बनाए जाने की शुरूवात)
मुद्दे पर मुद्दे और सवाल पर सवाल, क्या हम पृथ्वीवासी अपनी
संयुक्त संहिता और सीमित खजाने के साथ धरती मां को
सहेज पाएंगे? क्या दुनिया के कोने कोने में बिखरे भारतीय,
यहूदियों की तरह भारत से दूर रहकर भी अपनी एक सशक्त पहचान
के साथ भारत से जुड़े रह पाएंगे? आज के इस अर्थवादी और
बेहद प्रतियोगी समाज में क्या भारतीय मूल का समाज एक
अग्रणीय ताकत बनकर उभर पाएगा? मदर टेरसा एक समर्पित और
साहसी आत्मा जो दिए सी प्रज्वलित अनाथों की तकलीफ का अंधेरा
समेटने अकेली निकली थी, उनका सहारा बनी थी, क्या हम
कभी उसकी निष्ठा और मेहनत का उपयुक्त सम्मान कर पाएंगे?
उस प्यास को उसी लगन के साथ जारी रख पाएंगे या बस
चुपचाप बैठ संत बना उस दिवंगत आत्मा से भी चमत्कारों की
अपेक्षा करते रहेंगे? सवालों के जवाब मिलें या न मिलें
पर इतना तो निश्चित है कि आज उस संत आत्मा के सम्मान में न
सिर्फ उनके कर्मक्षेत्र के वासी खुदको सम्मानित महसूस कर रहे हैं
वरन् हर भारतीय ही गौरवान्वित महसूस कर रहा है।
सारी नेकनीयती के बाद भी इन
सवालों के जवाब आसान नहीं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो
मगर ऐसा तो नहीं हो पाएगा जैसे संशय और मजबूरी के
अजगरों ने बुरी तरह से जकड़ रखा है हमें। भारत में प्रतिभा
और मेहनत की कमी नहीं, बस अंधी स्वार्थलिप्सा और
भ्रष्टाचार, ऐसी बेड़ियां हैं जो सदियों से हमें रोकती
आई हैं। और अब तो धीरेधीरे विश्वीकरण के साथ अपने
युगों से चले आ रहे व प्रतिष्ठित मूल्यों को भी हम पश्चिमी
सभ्यता की नकल में और आधुनिकता के नाम पर भूलने की
कोशिश कर रहे हैं। समय के साथ लिबास और रूचि में
परिष्करण व संशोधन स्वाभाविक है पर अंधी नकल तो ठोकर ही
देगी। बड़े शहरों में बढ़ते यौन अपराध इसके गवाह हैं।
गोवा में एकाकी समुद्रतट पर शराब के नशे में विदेशी
महिला के साथ व्यभिचार जघन्य जरूर पर फिर भी सोचा जा
सकता था, शायद कोई उसका ही विदेशी संगीसाथी हो पर
दिल्ली जैसे महानगर में आए दिन नेता, अभिनेता, साधू
और विद्यार्थी सभी इसमें शामिल निश्चय ही भारतीयों के
माथे पर यह एक कलंक का टीका है।
हाल ही में ब्रिटेन में आए
महिला क्रिकेट खिलाडियों के दल में से कई का गायब हो
जाना और लंदन पुलिस का सांस्कृतिक व म्यूजिकल शो में
आई लड़कियों की सेक्स स्कैडल में तलाश व पंजाब में एक
मशहूर पौप आर्टिस्ट और उसके परिवार के नाम इस चक्कर में
गिरफ्तारी का वारंट, आदि कई घटनाओं ने हमारे समाज पर,
हमारे मूल्यों पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। क्या बस
अपने घर को झाड़बुहार कर कूड़ा दरवाज़े के बाहर फेंक देने
वाला हमारा समाज अपनी सामूहिक और नागरिक जिम्मेदारियों
के प्रति कभी सचेत हो पाएगा?
आदत से मजबूर आधुनिक समाज
बस उत्सवों की तरह सम्मेलन आयोजित करता रहेगा और
दायित्व शब्दों की भीड़ में खोते रहेंगे। सोचिए कैसे
वित्तवादी इस आधुनिक समाज में जहां औद्योगीकरण किसी भी
राष्ट्र की असली उर्जा है, अमेरिका(जो विश्व का सर्वाधिक
धनाढय और सशक्त राष्ट्र है और सबसे ज्यादा पर्यावरण को
प्रदुषित करता है) हस्ताक्षर कर दे कि वह अपने उद्योग और समाज पर
नियंत्रण करेगा। नियंत्रण और संयम तो पिछड़े हुए और गरीब
देशों के लिए ही होते हैं। पेड़ों पर पेड़ कटते रहेंगे,
नदियों की कोन कहे, समुन्दर भी प्रदूषित होते रहेंगे और
सम्मेलन पर सम्मेलन भी होते ही रहेंगे। अपनीअपनी तरह से
इधरउधर छोटी बड़ी सही कोशिशें भी होंगी ही पर अब इस
बदलते पर्यावरण के बदलते परिवेश में हमें अपने मापदंड और
अपेक्षाएं दोनों ही को कुछ कम भी करना पड़ेगा शायद कुछ ऐसा
ही हुआ दिल्ली में जब शुद्धीकरण के प्रयास में सफल वहां के
वैज्ञानिकों ने कहा कि हम अपने प्रयासों से बहुत खुश हैं
क्योंकि दिल्ली के प्रदूषित आकाश में अक्सर जहां पहले बस गहरी
काली धुंध दिखाई देती थी अब तो तारों को भी देखा जा सकता
है, सही है हर बड़े अभियान की शुरूवात एक छोटे से कदम से ही
तो होती है।
भारत में अभी भी बहुत कुछ ऐसा
हो रहा है जो गौरव करने लायक है हाल ही में तरूण सत्विक का
विश्व के युवा एस्ट्रोनॉट की ट्रेनिंग के लिए चयन और
कम्प्यूटर हैकिंग को रोकने के लिए एक नामी कंपनी द्वारा अंकित की
नियुक्ति मेरे ख्याल से ऐसी ही दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां
हैं।
संडे टाइम्स के अनुसार चीन और
अमेरिका के बाद सन 2020 तक भारत तीसरे नम्बर पर विश्व की ताकत
बनकर उभरेगा। हाल ही में भारतसे आए सरकारी प्रतिनिधि मंडल
का भी कुछ ऐसा ही कहना था कि भारत अब काफी तेजी से उन्नति कर
रहा है। पहले जो हमारी सरकार विदेशी कर्जे में डूबी रहती थी,
आज उसके पास इतना अधिक कोश है कि वह खुद पिछड़े देशों को
कर्ज और दान दे रही है। इसका सीधा असर हम प्रवासियों की
जिन्दगी पर भी पड़ेगा ही। पहले जहां भारतीय मूल के लोग
एकबार भारत से बाहर निकल अनाथ और असहाय महसूस करते थे।(युगांडा,
केनिया, फिजी, बांगला देश के भारतीयों के साथ सामुहिक
दुर्व्यवहार और तत्कालीन भारत सरकार की चुप्पी इसकी गवाह है)
आज उनके लिए न सिर्फ दोहरी नागरिकता के बारे में सोच रही
है वरन उनकी अगली पीढ़ी के बारे में भी कुछ करना चाहती है।
भारत से जुड़कर उन्हें क्या मिलेगा, सिर्फ लेने का ही नहीं,
भारत भी उन्हें क्या दे सकता है ऐसे सवालों का जवाब दे रही
है। उन्हं समझाने का प्रयास कर रही है कि हजारों मील दूर बसा
भारत ही क्यों उनका अपना है? प्रवासी दिवस के नाम पर
बड़ेबड़े रंगारंग प्रवासी मेलों का आयोजन तो होगा
ही, उन्हें खुद से जोड़ने और आपस में जोड़ने के इस
प्रयास में क्या पता भविष्य की किसी एक नौ जनवरी को एक और
गांधी भारत वापस लौट पाए?
पर इन प्रयासों के साथ भारत को
कुछ और ठोस योजनाएं बनानी पड़ेंगी। सफल यहूदी जाति से
बार बार भारतीयों की तुलना अच्छी तो लगती है पर उनकी एकता,
उनकी निष्ठा से हमें अभी भी बहुत कुछ सीखना है। नागरिक की
तरह से भी और सरकार की तरह से भी। विकसित देश इंग्लैंड
वगैरह अपने मूल के व्यक्तियों से कोई वीसा शुल्क नहीं
लेते और पासपोर्ट वगैरह की चेकिंग के लिए भी एक अलग तुरंत
पंक्ति होती है। ऐसी छोटीछोटी बातें ही लोगों को जुड़ा
और अपने देश लौटे ऐसा महसूस करवा पाती हैं। इसी संदर्भ
में याद आ रही है बरसों पहले की एक घटना, अप्रैल की उमस
और भीड़ भरी सुबह और दिल्ली का इंदिरा गांधी एयरपोर्ट,
घंटे भर से पंक्ति में खड़ी और परेशान, जब मेरा नंबर
आया तो कस्टम ऑफिसर सरदार जी को भी तरस आए बिना न रह
सका। देखते ही बोले क्यों बादशाहों बड़े सुर्ख हुए पड़े हो,
क्या मदद करूं? दो सहानुभूति के शब्द सुनते ही मेरी सारी
थकान बच्चों सी मचल पड़ी। अपनापन मांगने लगी सारी
दुनिया में तो हम परेशान होते ही हैं, कम से कम अपने देश
लौट कर तो ऐसा महसूस नहीं होना चाहिए क्या लाख टके की
बात कही ऐसा कह न उन्होंने मेरा पासपोर्ट तुरंत स्टैम्प किया
वरन लाख मना करने पर भी एक ठंडी सौफ्ट डि्रन्क मंगवाकर दी। पर
शायद ऐसे सहृदय लोग भारत ही क्या, पूरी दुनिया में भी
कम ही मिलेंगे।
मां बाप के दबाव में आकर
बेमेल शादियां और फिर साल दो साल में ही तलाक एक आम
सी बात है आज के एशियन ब्रिटेन में। इंद्रजाल और पत्रिकाओं
में विज्ञापन द्वारा संयोजित ये शादियां कभी तो मां बाप
और बच्चे, सभी के दुख का कारण बनती हैं तो कभी अति
हास्यास्पद स्थितियां भी पैदा कर देती हैं। हाल ही में किसी
विज्ञापन के उत्तर में एक मनचली ने संभावित वर को न
सिर्फ ऐश्वर्या राय की फोटो भेज दी वरन् भारतीय फिल्मों
और अभिनेत्रियों से अनिभिज्ञ मुग्ध अभिलाषी से वीसा के
लिए गरीबी का बहाना बना कुछ डौलर भी वसूल कर लिए। उसके
बाद कोई भी संपर्क न होने पर जब उस विदेशी मूल के
व्यक्ति ने भारतीय पुलिस से शिकायत की तो पता चला कि वह
तस्वीरें तो भारत की मशहूर और खूबसूरत अभिनेत्री ऐश्वर्या
राय की थीं जिसपर वही नहीं, आज पूरा भारतीय समाज ही
मुग्ध है। पुलिस अभी भी इस मामले की जड़ में पहुंचने की
कोशिश कर रही है। निश्चय ही भारत के साथ साथ भारतीय नारी
भी तेजी से इक्कीसवीं सदी की तरफ बढ़ रही है। बनारस की प्रिया
पांडे ने तो अपने साहस की एक अद्भुत और प्रशंसनीय मिसाल
दी जब वह रोने धोने के बजाय अपने कायर और धोखेबाज
प्रियतम बबलू चौहान के घर(जो उससे गुप्त शादी करके मुकर
रहा था) स्वयं अपनी ही बरात लेकर पहुंच गई।
कहते हैं कि वक्त के साथ साथ
जरूरतें बदलती हैं पर परम्पराओं और रूढ़ियों से जुड़ा ब्रिटेन
का प्रवासी समाज तो आज भी अतीत की गोदी में बैठा ही खुद
को सुरक्षित और जड़ों से जुड़ा महसूस कर पा रहा है। गंगा
नहीं तो टेम्स को ही गंगा मान चढ़ावे चढ़ाता है, पूजा करता
है। यही नहीं मोक्ष की लालसा में दिवंगत आत्माओं की
अस्थियां तक उसमें विसर्जित करता है। यह बात दूसरी है कि
प्लास्टिक के रैपर में डालकर ऐसा करता है क्योंकि मन के किसी
हठी कोने को फुसलाना और तसल्ली देना चाहता है कि यह तैरती
थैली महासागर में जा पहुंचेगी और महासागर में पहुंचने
का अर्थ है गंगा में पहुंचना क्योंकि गंगा का सारा जल
महासागर में ही तो पहुंचता है। इसके पहले कि थेम्स नदी
प्रदूशित हो, लंदन ब्यूरो की काउंसिल इन थेम्स में तैरते
प्लास्टिक के थैलों से उबरने का उपाय ढूंढ़ रही है, वह भी
भारतीय भावनाओं को ठेस लगाए बगैर। जरूरी नहीं कि
जरूरतों के साथ वक्त बदल जाएं; जैसे कि यह संभव नहीं
कि हर व्यक्ति ही समय की पुकार को पहचान सके और वक्त की
धार को मनचाहा मोड़ दे सके। दिवाली और रोशनी के हर
त्यौहार की अपने पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए बताना
चाहूंगी कि कैसे यहां भारत से सात समुन्दर दूर हमने दिवाली
की तैयारियां की। दिए और पटाकों से नहीं, एक रंगारंग नृत्य
नाटिका के माध्यम से भारत दर्शन किए, भारत की संस्कृति से
बरमिंघम वासियों का परिचय करवाया।
गुजरात का गरबा, राजस्थान का
घूमर, बंगाल का माही, पंजाब का भांगड़ा, मध्य प्रदेश का
आदिवासी लोक नृत्य और पिछले पांच दशक के बॉलीवुड के
फड़कते गीत, सभी कुछ तो था वहां पर, अपने पूरे रूप रंग और
साज सज्जा के साथ। गरिमा और कला के लिए विशेष रूप से
उल्लेख करना चाहूंगी, कलाकार स्वरूप मेनन के दशावतार नृत्य
को, पर दर्शकों के मन को बिजली के करेंट की तरह जिसने छुआ,
रोमरोम को जो रोमांचित कर गया, वह था मेरा रंग दे
बसंती चोला और वंदे मातरम। हिपनोटाइज्ड तालियां लयबद्ध
सतत् बज रही थीं, रूकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। और
आंखें कलाकारों को मंत्रमुग्ध निहार रही थीं। इतने सुन्दर और
रंगारंग कार्यक्रम 'जर्नी इन्टू इन्डिया' के आयोजन के लिए 'नटराज
परफॉर्मिंग आर्टस' और कृति यूके के सभी सदस्यों को
साभार बधाई।
अक्तूबर2003
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