'भारत की संस्कृति, भारत का आतिथ्य,
भारत देश . . .कमाल है . . .बस कमाल है।'
यह भाव विभोर उद्गार थे युवक पॉल विल्मट के जो
अभीअभी हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता के माध्यम से भारत
घूमकर आए थे और परिसर था बरमिंघम का भारतीय उच्चायोग।
एक सहज और सादा सा व्यक्तित्व जो अपने परिचय में लिखता
है 'बचपन से ही भारत से प्रेम करता रहा हूं। आधुनिक भारत को
जानने के लिए हिन्दी पढ़ रहा हूं।'
यादें तीसचालीस साल पहले
ले जाती हैं जब किशोरावस्था में ब्रिटेन और
ब्रिटेनवासियों को जानने के लिये अंग्रेजी और अंग्रेजी
साहित्य ठीक से पढ़ने का संकल्प किया था क्योंकि जानना चाहती
थी कैसा होगा वह देश . . .वहां के वासी . . .क्या था उनके
चरित्र में जिसके तहत भारत जैसे बृहद और बड़े भूखंड . . .एक
चिंतनशील गौरवमय समाज को गुलाम बनाकर रख पाए ये
लोग। क्या था वह जिसके रहते पांच हज़ार मील और कई
महासागर दूर बसा एक छोटा सा टापू तीन महासागर से घिरी
सीमाओं से सज्जित देश को एक विभाजित और कलंकित इतिहास
दे गया।
बात पुरानी थी पर यादें ताज़ी क्योंकि किशोरावस्था
की वह सबकुछ जानने की ललक, वह असीम को, खुद की
पहचानने की तीव्र जिज्ञासा जानीपहचानी थी। तब हम यह
कहां सोच पाते हैं कि जो जरूरी है वही करना चाहिए, तब तो
हम वह करते हैं जो हमारा मन चाहता है। शायद इसीलिए उस
उम्र में व्यवहार में एक तीव्रता और निश्छलता रह पाती है . .
.सामाजिक गणित के जोड़घटानों में फंसकर तबतक हम भटके
जो नहीं होते। किसी भी देश या समाज के हों . . .युवा
बस युवा ही होते हैं . . .जोशीले और दुरूस्त। जेसिका बाथ
भी शायद ऐसे ही सोच रही थीं जब उन्होंने कहा कि 'भारत
और ब्रिटेन के बीच ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है इसलिए भारत को
और करीब से जानने के लिए मैंने हिन्दी पढ़ना शुरू किया।'
आयु और काल की सीमाएं लांघ
मस्तिष्क उन तरूणतरूणियों से पूर्णतः जुड़ रहा था और मन
भारत से। और . . .और . . .और सुनना और जानना चाह रहा
था उनसे, उनके बारे में . . .अपने भारत के बारे में। हां
तो क्या देखा तुमने . . .क्या समझा और कैसा पाया तुमने
मेरे देश को . . .क्या क्या अच्छा लगा तुम्हें और क्या क्या खराब
मेरे भारत में? क्या अब भी बस तुम उसे घास के झोपड़ों
और मक्खीमच्छरों से भरा घासपूस खाने वालों का गरीब
और पिछड़ा देश ही कहोगे जहां हर जगह बस गर्मी, गर्द और
गरीबी ही नज़र आती है?
उनमें से कई ऐसे थे जो पहली
बार भारत गए थे और पहला अनुभव ही ज्यादातर सही होता है।
बाद में तो हमारी पसंद और नापसंद अनुभवों और विचारों
में मनचाहे रंग भर देती हैं। अनायास ही याद आ रहा था वह
दिन जब मैं यहां ब्रिटेन में आई थी। सुन्दर से देश को
देखकर लगा था यह बाग बगीचे, यह मनोहारी देश, बड़ी
बड़ी इमारतें, सड़कें, बाज़ार सब मेरे देश को लूटकर,
पूरे विश्व का शोषण करके खड़ी की गई हैं पर तुरंत ही मां का
मुस्कुराता चेहरा याद दिलाता कि नफरत का कीड़ा घुन की तरह खा
जाएगा मुझे . . .किसी सन्त ने भी तो कहा है . . .बीती ताहे
बिसार दे आगे की सुध लेय। जीवन सृजन से हैं और
सृजन बस प्यार का
पर्याय है जैसे कि नफरत या विध्वंस मौत का।
नफरत का चश्मा उतारते ही दुनिया
के कोनेकोने में एक भारत नज़र आने लगा, जानी
पहचानी चीजें और पहचाने से लोग नज़र आने लगे।
जीवन की इस जिगसॉ को आज भी बस उसी पुरानी भारतीय
नज़र से ही जोड़ पाती हूं और यही एक धरोहर या दर्शन है
जो हर फिसलन में संभाल पाती है . . .अंधड़पानी वाले
देश में सशक्त छत्रछाया देती है . . .मेरा कवच है। वैसे
भी अब तो इंग्लैंड बहुत बदल गया है। तेजेन्द्र भाई के पास
हिन्दी में पता लिखा पत्र भारत से सही सलामत पहुंच गया है
यानी कि अब यहां ब्रिटेन में न सिर्फ भारतीयों ने वरन
हिन्दी ने भी अपनी पहचान बना ली है।
नोटिंघम की शिक्षिका और
भारतीय उपमूल की मोहिन्द्रा जी (जो पहली बार भारत गई थीं)से
पूछने पर कि आपको भारत में क्या अच्छा लगा था, गद्गद् होकर बोलीं थीं कि 'वहां का सानिध्य . . .वहां का सत्कार . .
.बच्चों की बड़ों के प्रति इज्जत . . .पूरे परिवार का एकसाथ
मिलजुलकर रहना . . .यह सब मुझे बहुत ही अच्छा लगा . .
.काश यहां हमारे यहां भी ऐसा ही हो पाता।'
आंख सजल थीं और मन पूर्णतः
संतुष्ट। कोई कुछ भी कहे, लिखे, पढ़े . . .मेरे भारत में
अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो लोगों को खींचता हैं . . .अच्छा
लगता है।
भारतीय मूल के दूसरे सैलानी
अनुज अग्रवाल कुछ और ही भाव लेकर वापस लौटे . . .मां
कहलाने वाली गाय कूड़े कचरे में भूखी मुंह मार रही थी और
तरूण कवि मन द्रवित था। अनुज ने हिन्दी के प्रति रूझान का कारण
बताते हुए कहा कि ' मैं हिन्दी के माध्यम से भारत के साहित्य
और इतिहास को समझना चाहता हूं।'
आइए देखते हैं क्या चीज थी वह
जिसने इन सब प्रबुद्ध और जिज्ञासु बच्चों को हिन्दी की तरफ
. . .भारत की तरफ खींचा?
नीरज पाल का कहना है कि 'भारतीय
संस्कृति को गहराई से समझने के लिए मैंने हिन्दी पढ़ना
आरंभ किया। भारत का इतिहास, साहित्य और संस्कृति को
समझने के लिए मैं हिन्दी पढ़ रहा हूं।'
सही ही तो है भाषा सिर्फ भाषा
और वह भी बस हिन्दी ऐसा अलग कोई मुद्द्रा कभी हो ही नहीं
सकता। सबकुछ समग्र दृष्टि से जोड़कर और सही संदर्भ में ही
देखा जा सकता है। भाषा तो बस जुड़ने का माध्यम होती है।
भाषा का ध्येय होता है लोगों तक पहुंचना, उन्हें समझना
और खुद को समझाना . . .दूसरे शब्दों में भाषा का अर्थ
होता है परिवार . . .मित्र . . .देश; और देश का अर्थ होता है
अपना समाज, हमारे अपने लोग जो हमारी अपनी एक बड़ी सी
धरती, इस विश्व में रहते हैं। शायद यही वजह है कि भाषा का
पतन हमारा पतन है। और शायद यही भेदभाव मिटाने वाली
बातें हमारे ऋषि मुनि और अग्रज हमें समझा रहे थे जब वह
अद्वैत भाव पढ़ा रहे थे। अहं ब्रह्मास्मि समझा रहे थे। खुदको
जगमय और जग के कणकण को खुद सा देखने को कह रहे थे
. . .भगवान को अपने सा और अपने को भगवान सा देखो यह
याद दिला रहे थे . . .यह कोई घमंड या भगवान का अपमान
करने वाली बाते नहीं . . .एक बहुत ही उदार संस्कृति और चिंतन
के साथ ही ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।
सोचिए यदि हम सभी ऐसा सोच
पाएं तो क्या कभी कोई लड़ाई या दुर्व्यवहार हो पाएगा। दूसरे
के साथ हीन या अनादरित व्यवहार कर पाएंगे हम . . .नहीं,
क्योंकि तब तो दूसरे के दुख भी हमारे अपने ही होंगे और यदि
एक बार दूसरों से इतना जुड़ पाए, उन्हें खुदसा प्यार कर पाए
तो हम भी तो उसी भगवान से ही करूणामय और सक्षम होंगे
क्योंकि प्यार से बड़ी न कोई शक्ति होती है ना ही प्रेरणा।
वैसे भी वही तो हमारा पिता है और अपने अंश लेकर ही तो
हमें यहां इस धरती पर भेजता है और यही साधारण सी बात है
जिसे विचारक बड़ेबड़े शब्दों में पूर्व का दर्शन कहते हैं।
शायद हमारी संस्कृति में यह सबके प्रति प्यार और समझ ही वे
गौरवमय मोती हैं जो सदियों से विदेशियों को अपनी
तरफ खींचते आए हैं चाहें वह तत्वज्ञानी बुद्ध हों, मर्यादा
पुरूषोत्तम राम, या जन मानस में रमे फक्कड़ कबीर या फिर
स्वयं आनंदमय योगेश्वर कृष्ण। इन सभी का एक ही प्रयास था
समाज के सहिष्णु तृणमूल आदर्शों को प्रस्थापित करना
जिससे द्वैत में अद्वैत को समझा जा सके . . .विविधता में
एकता देखी जा सके। हर युग में समाज को एक गांधी
मिल सकें।
भारतभ्रमण से लौटी दूसरी बालिका
केट
सुलीवान ने कहा कि 'किसी देश या संस्कृति को उसकी भाषा के
बिना नहीं जाना जा सकता और जब से मैंने हिन्दी पढ़ना
शुरू किया है, भारतीय संस्कृति के प्रति मेरा रूझान बढ़ता
गया।'
जबकि भारत में करीबकरीब एक
सितारे सा विशिष्ट महसूस करने वाले गेब्रियल सिंगर कहते
हैं कि 'भारत की फिल्में और संगीत से मुझे बहुत प्रेम है
इसलिए मैं हिन्दी पढ़ रहा हूं।'
आमी शाह जिनका नज़रिया
व्यावहारिक था और जिन्हें हिन्दी सीखने में आम के आम और
गुठलियों के दाम दिखलाई पड़ रहे थे, कहती हैं कि 'अधिक
लोगों तक पहुंचने के लिए मैंने हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया।
अब हिन्दी मेरी डीफिल के शोध में भी काम आएगी।' काश
दिवंगत धर्मयुग सम्पादक, महान लेखक और हिन्दी के अनन्य
सेनानी डा धर्मवीर भारती जी यह सब सुन पाते? उनकी आंखें तो हर साल इसी दुख
में रोती रहीं कि हर साल उनके पांच हज़ार हिन्दी के पाठक कम हो
जाते हैं।
करिश्मा सेठी कहती हैं कि ' मैं
अपने परिवार और भारत के लोगों से बातचीत करने के लिए
हिन्दी सीख रही हूं।' आशा वालिया जिन्होंने भारत जाने से
पहले कहा था कि 'मुझे भारतीय संस्कृति से बहुत प्यार है
इसलिए मैं हिन्दी पढ़ रही हूं।' भारत से लौटकर बोली कि अब
मैं हिन्दी पढ़ाना चाहूंगी जिससे कि और लोग भी भारत को
समझ सकें।' निष्कर्ष जो भी हो, भारत से लौटकर सभी बहुत
खुश थे . . .सभी की चमकती आंखें और मुस्कराते चेहरे यही
बता रहे थे कि भारत उन्हें बहुत पसंद आया था और शायद यही
वजह थी कि अगले साल के लिए ये बच्चे मिलकर एक और बच्चे
को भारत जाने के लिए स्पोंसर करना चाहते हैं जिससे कि और
बच्चे भी भारत के सौंदर्य और गरिमा से परिचित हो सकें।
केट तो भारत के नैसर्गिक सौंदर्य से इतना प्रभावित हुई कि
मनोहारी विशाखापट्टनम् में समुद्र के किनारे पहाड़ी पर अपने
लिए एक बंगला खरीदना चाहती हैं।
बच्चे ही नहीं, भारत और
ब्रिटेन के बीच माध्यम बनकर बड़े भी कम खुश नहीं हैं।
अपने सशक्त और सक्षम कंधों पर हिन्दी का बीड़ा उठाए पद्मेश
जी का मन तो इन बच्चों के साथ भारत घूमता एक भावभीनी
कविता के रूप में तरल हो बह आया।
लेकर आए हैं हम आज तुम्हारे द्वारे
अंग्रेजी के आसमां से हिन्दी के सितारे
पश्चिम से बहती पुरवाई
आज तुम्हारे घर को आई
तन इनका कुछ भी बोले
मन है भारत की परछाई
पढ़ सको तो पढ़ लो
देख सको तो देख लो
थेम्स की घटाओं को
गंगा के किनारे।
सितम्बर का महीना यानी कि 14
सितम्बर . . .14 सितम्बर यानी कि हिन्दी दिवस और इसका मतलब
यहां ब्रिटेन में हिन्दी प्रेमी और उत्साहियों द्वारा कार्यक्रमों
पर कार्यक्रम। मेलेसे समारोहों का आयोजन। यही नहीं,
आयोजन पर आयोजन . . .रोज एक नया दिन, नई उमंग . .
.रोज ही सब काव्य रस वैतरिणी और ज्ञान गंगा के किनारे।
फिर भला यह सितम्बर ही क्यों अपवाद होता। इसमें होने वाले
चार कवि सम्मेलनों ने मिलवाया कई चमकदार सितारों से .
. .श्री केसरी नाथ त्रिपाठी, महाश्वेता चतुर्वेदी, शोभा
बाजपेई . . .कई यादगार पंक्तियां जैसे कि उदीयमान
कवियित्री और गीतकार रितु गोयल की . . .बेटियों से महकता है
सावन . . .बेटियों से गूंजता हैं आंगन . . .बेटियां तो
अरधास होती है। या फिर गज़लकार भाई मंगल नसीम की
गज़ल तरोताजा . . .क्या सीरत क्या सूरत थी . .मा ममता की
मूरत थी। . . .पांव छुए और काम हुए मा तो एक महूरत थी . .
.या फिर . . .मफसूल उड़ानों में उड़ना उतर आना, पालतू
पक्षियों के पर नहीं होते . . .सितम्बर के महीने को आकाश के
सितारों से भी ज्यादा झिलमिल कर दिया था इन जगमग
सितारों ने . . .मंत्रमुग्ध सी सबकुछ समेटकर हमेशा के लिए
हृदय में रख लेना चाहती हूं।
तरल आंखों के साथ विदा की घड़ी
भी आ ही गई। बारबार याद दिलाते हुए कि हर अच्छी चीज को भी
कभी न कभी खत्म होना ही पड़ता है। खुद को तसल्ली देती हूं
भगवान ने चाहा तो फिर मिलेंगे . . .वैसे भी जहां चाह
वहां राह . . .और फिर सुनते हैं वैज्ञानिकों ने तो अब
जल्द ही (अगले दस सालों में) सितारों तक पहुंचने के लिए
एक ऐस्किलेटर की भी योजना बना डाली है। हंसिए या चौंकिए
मत . . यह कवि की कल्पना नहीं एक वैज्ञानिक सच है कार्बन के
इस श्यूट या नली द्वारा हम जब भी चाहें अपने मनचाहे
चांदसितारों तक आ जा सकते हैं और फिर हमारे अपने यह
सितारे तो बस भारत ही लौट रहे थे . . .वैसे भी सोचिए
दिल में बसी दिल्ली दूर कहां?
सितम्बर2003
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