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परिक्रमा लंदन पाती

बूमरैंग

—शैल अग्रवाल

प्रकृति हो, पृथ्वी हो या फिर जिन्दगी, जो कुछ भी हम इन्हें देते हैं, सुदर्शन चक्र की तरह या हवा में फेंकी फिरकनी–सा सबकुछ ज्यों–का–त्यों ही ये हमें वापस कर देती हैं . . .सारी अच्छाई और बुराइयों को दुगने जोश की हवा में लपेटकर। एक अच्छा बीज बोने से सेंकड़ों फूल खिल आते हैं और यदि लालच व लापरवाही से आसमान की नीली चादर में छेद हो जाए तो समस्त विश्व की जिन्दगी तारतार हो जाती है। आज सदियों से शान्त खड़े पर्वतों के उंचे और गौरवमय हिमशिखरों ने पिघलना शुरू कर दिया है और मरूस्थलों का विस्तार बदल रहा है। मौसम अपनी सुनियंत्रित समय–तालिका भूल चुका है। सूखे और बाढ़ों की बेतरतीब भरमार देखकर लगता है कि यह कोई प्रकृति का कोप नहीं, साक्षात शिव के डमरू की टंकार है जो शान्त नहीं की गई तो प्रलयकारी तांडव में बदल जाएगी।

ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रान्स, जर्मनी . . .चारों तरफ ही एक असह्य तापमान और चटकते सूखे पेड़ों और मैदानों में रोज नयी–नयी बुश फायर . . .असह्य नुकसान, पशु, पक्षी, इन्सान सभी का। भू–विदों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान बदल रहा है और हमें इस अनियमितता की आदत डालनी पड़ेगी . . .बाढ़, भूकम्प, सूखा सबकी ही। हर तरह के प्रकोप और वह भी एकसाथ ही क्योंकि ऋतुओं के पास नियम, संयम सब चुक गए हैं। बहुत मनमानी कर ली हमने, अब प्रकृति की बारी है . . .पर क्या हम रूके हैं, रूक पाएंगे, या कोई रोक पाएगा हमें कभी?

रोज नए संघटन और मंत्रणाएं जरूर होती हैं और नई–नई वैश्विक योजनाओं पे दस्तखत करके हमारे नेता उन फाइलों में लिखे को तो छोड़िए, फाइलों तक को भूलने के आदी हो चुके हैं। विश्व और इसका पर्यावरण हमारे अनियंत्रित कौतुक, लालच और ताकत की दौड़ से प्रदूशित न हों इसके लिए सुनते हैं रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने पहली ट्रीटी उन्नीस सौ पैंसठ में साइन की थी . . .आज अनगिनत नई ट्रीटी और करीब–करीब चालीस वर्ष बाद भी हम खुदको पहले से भी बहुत ज्यादा बीमार और लाचार वातावरण में सास लेता पा रहे हैं और दम तोड़ती इस बूढ़ी पृथ्वी की गोदी में बैठे टूंटे–फटे आसमान से आग उगलते सूरज को टकटकी बांधे देख रहे हैं . . .सूरज जो पहले कभी हमारा दोस्त था, आज इससे इतना डर क्यों लग रहा है हमें?

विषमताओं से जूझते गरीब देशों को तो आता है कैसे भी जिन्दा रह लेना या सबकुछ सहते–सहते चुपचाप मर जाना पर आधुनिक तकनीकियों से लेस पाश्चात्य देशों के लिए यह एक असह्य और अनजानी समस्या है। यहां ब्रिटेन में तापमान मात्र तीस–पैंतीस सेल्सियस पे पहुंचने से ही कई स्थानीय रेल्वे कम्पनियों ने अपनी यात्राएं स्थगित कर दी और जो किसी वजह से ऐसा नहीं कर पाए उनकी समस्या जटिल और हास्यास्पद हो गई। साउथ–हेम्पटन से चलने वाली रेलगाड़ी लंदन के वाटरलू स्टेशन तक की मात्र 70 मील की यात्रा नौ घंटे में तय कर पाई और तपते शीशों की बन्द बोगी में इन्तज़ार करते यात्री गरमी और प्यास से परेशान हो शीशा तोड़कर बाहर निकल आए। काश . . .वे अपनी यात्रा सुबह साइकिलों पर साउथ–हेम्पटन से शुरू करते तो शायद इससे जल्दी ही लन्दन पहुंच जाते।

खबर है कि अमेरिका में मच्छरों से जानलेवा बीमारी वेस्ट–नाइल का तेजी से फैलने का खतरा है। इसमें कई अन्य घातक खतरों के साथ इन्सान का नर्वस–सिस्टम भी पंगु हो सकता है। इन बीमारियों के विदेशी और क्षेत्रीय नाम हमें बताते हैं कि यह बीमारियां कभी इन अमीर देशों से हज़ारों मील दूर ही रहती थींं पर अब वह दिन दूर नहीं जब कोलराडो या न्यूयॉर्क का नाम भी वायरसों के संदर्भों में सुनाई देने लग जाए  . . .हांगकांग फ्लू से तो आज पूरा विश्व परिचित हो ही चुका है।

प्रयोगों पर प्रयोग हो रहे हैं और रोज ही नए आविष्कार होते जा रहे हैं। विशेषतः पिछले बीस वर्षों में दुनिया बहुत तेजी से बदली है और बदल रही है। सबकुछ खराब ही हुआ हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। संचार और चिकित्सा विज्ञान में हुई खोजें पूरी मानव जाति के हित में हैं और मानव समाज के लिए गर्व का विषय हैं।

यहां एडिनबर्ग में पहले एक डॉली नामकी शीप और अब हाल ही में इटली में एक घोड़े का हूबहू प्रतिरूप  . . .यानी कि क्लोन। वह समय शायद दूर नहीं जब मात्र एक बाल या सेल के सहारे पूरा का पूरा जीव फिर से रचा जा सकेगा यानी कि तकनीकी रूप से मृत लोगों को भी अब पुनः हूबहू उसी रूप और उन्हीं गुणों के साथ वापस इस दुनिया में लाया जा सकता है। संभावनाएं अनगिनत हैं  . . .सोचिए यदि दुनिया में प्रि्रयजनों के बिछुड़ने का गम ही न रहें  . . .गांधी, राम कृष्ण या क्लियोपेट्रा फिर हमारे बीच में हों या रेडरम जैसा तेज और विजय रेस का घोड़ा एक ही नहीं, चाहें जितने भी हो और वह भी इसी धरती पर?

पर हमें यह भी तो नहीं भूलना चाहिए कि यदि राम बनाए जा सकते हैं तो रावण भी तो और यदि गांधी तो हिटलर भी। अनगिनत समस्याओं ने जूझते विश्व में अब इतना धैर्य नहीं कि फिरसे एक ओर हिटलर को बर्दाश्त कर पाएं – शायद यही वजह है कि वैज्ञानिक और नेता अभी तक एकमत नहीं हो पाए कि सारी तकनीकी जानकारी के बावजूद भी इन प्रयोगों को बढ़ावा दिया जाए या तुरंत यहीं रोक दिया जाए? वरना वह दिन दूर नहीं जब अमीर तो सुपरमार्केट्स की तरह डॉक्टर की सुपर शॉप से हरी–नीली आंखें और मनचाहे भूरे घुंघराले बालों वाले डिजाइनर बच्चे ले आया करेंगे जो कि न सिर्फ हर तरह से शरीर से दोष–रहित होंगे वरन हर कला और गुण में भी अद्वितीय और पूर्णतः निपुण होंगे . . .टर्नर की तरह पेन्ट करेंगे, लता की तरह गाएंगे और माइकेल जैक्सन की तरह नाचेंगे, आइन्सटाइन की तरह सोचेंगे और हरक्यूलिस की तरह ताकतवर होंगे। और इस समस्त दोषरहित समाज से दूर गरीब देशों में, गरीब घरों में साधारण रूप से पैदा हुए बच्चे दूर से ही पहचाने जा सकेंगे . . .एक अलग तरह का साधारण और कुंठित जीवन जीते हुए  . . .जो कुछ–कुछ स्लेव–प्रथा सा ही तो होगा  . . .हर दौड़ में हारता और घिसटता–सा  . . .पिछड़ा हुआ, अमीरों के उपभोक्ता समाज की सेवा में समर्पित लाचार और बेबस।

यह जो आज डिजाइनर मानव का डिजाइनर भविष्य हमारे बहुत पास आ खड़ा हुआ है, बस अगले मोड़पर ही, क्या यह हमारे लिए हितकारी है? क्या यह हमारी स्वार्थी प्रवृत्तियों में कुछ और वृद्धि नहीं करेगा  . . . निश्चय ही हम सभी के लिए ही यह थमकर सोचने की बात है कि आज समाज में जो दया, सहिष्णुता, उपकार और समझ आदि की प्रवृत्तियां व भावनाएं थोड़ी बहुत बची रह पाई हैं क्या उनका कल के इस डिज़ाइनर संसार में अस्तित्व बच पाएगा  . . .क्या इस रेसकोर्स पर ये कमजोर और पुराने घोड़े टिक या दौड़ पाएंगे?

पर पुरातन शाश्वत भी तो हो सकता है तभी तो चिर पुरातन कहलाता है जिसे कि हमारी अपनी संस्कृत भाषा, जो अपने सहज और उपयोगी व्याकरण और ध्वनि–गुणों के कारण वेदों और धर्म–ग्रन्थों से निकलकर अब कम्प्यूटर्स तक आ पहुंची हैं और एशिायाई भाषाओं के तकनीकी विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। इसे कम्प्यूटर क्षेत्र के भाषा–विद विभिन्न क्षेत्रीय और आंचलिक भाषाओं के विकास में एक अति महत्वपूर्ण और सशक्त औजार मान रहे हैं। निश्चय ही पाणिनी के लिए इससे बड़ा पुरस्कार और भला क्या हो सकता है? समाज की उभरती समझ और सहिष्णुता के कुछ और उदाहरण भी सामने आए हैं जैसे कि पहले एक महिला और हाल ही में एक गे बिशप की अमेरिकन चर्च में नियुक्ति . . .सिर्फ यही नहीं, वेटिकन–सिटी का इसे पूरा और खुला समर्थन। हाल ही में प्रिन्स चार्ल्स ने भी अपनी दिवंगत नानी (क्वीन–मदर) के पुराने घर क्लेरेंस हाउस में ही रहने का निर्णय लिया है। छह मिलियन पौंड से भी ज्यादा खर्च करके संवारे इस घर को अब जनता के प्रदर्शन के लिए खोल दिया जाएगा जिसमें सुनते हैं कि चार्ल्स के साथ–साथ कमीला पार्कर बोल्स और उनके दोनों बेटों के लिए भी कमरे होंगे। और यदि आप भी इस ऐतिहासिक और राजसी महल को देखना चाहते हैं तो इन्तज़ार कीजिए क्योंकि सालभर तक की टिकटें तो पहले ही बिक चुकी हैं।

चलते–चलते गर्मी के बेचैन मौसम में चारों तरफ उड़ती इस बुश–फायर की अनगिनत चिनगारियों में से एक चिनगारी आपके मनन के लिए भी  . . .ईराक के आण्विक संधान और शस्त्रों के निरिक्षण के बाद अमेरिका ने अब ऐसे ही निरीक्षण की मांग ईरान से भी की है।

अंत में अपनी धरों और धरोहर को . . .इस विश्व को समर्पित करते हुए आपके साथ महसूस करना और बांटना चाहूंगी हाल ही में पढ़ी सुप्रसिद्ध कैरेबियन कवि मार्टिन कार्टर की यह कविता। उपलब्ध हिन्दी अनुवाद से ही आप भावों के गहन संकल्प, तीव्र पीड़ा और सौंदर्य का अनुमान लगा सकते हैं – कवि का सपना नहीं शायद एक आवाहन कहना ज्यादा सही होगा –

मैंने उठा लिया है
हाथ में
अपने पूर्वजों का चषक
उतार ली है, अपने कंठ में
उनके स्वप्नों की मदिरा
एक सनसनाहट फैल गई है
मेरे पूरे शरीर में
अग्नि धधक रही है
मेरे नृत्य में
न जाने कितना पानी
पूरा का पूरा महासागर
गुजर गया है मेरे सर के ऊपर से।

अगस्त 2003

 
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