हाल ही में एक निरपेक्ष धार्मिक
संस्थान से आमंत्रण मिला कि ' हिन्दू धर्म में नारी का स्थान'
पर कुछ बोलूं, सभी धर्म के विद्वान इस विषय पर कुछ न कुछ
बोलेंगे। उंची बड़ी कांच की खिड़कियों से छनछनकर आती
गुनगुनी धूप में कागज पर लिखा हर शब्द अंगार सा जल रहा
था . . .सोचने पर मजबूर कर रहा था। संस्कृत की धृ
धातु से निकले इस शब्द का प्रयोग जब किसी गुनी ने पहली
बार किया होगा तब निश्चय ही जिसे समाज या संगठन धारण
कर सके या दैनिक आचारविचार में ला सके और जो समाज
का बोझ उठा सके, सुचारू रूप से संचालित कर सके वही उसका
धर्म है, इसी अर्थ में किया होगा। वास्तव में जो सबके
द्वारा धारण किया जा सके या जो हर जीवन को धारण कर सकेआधार व संबल बन सके वही उसका असली धर्म होता है।
इसी संदर्भ में याद आ रही है
हालही में घूमते फिरते पढ़ी कुछ और पंक्तियां 'हमारी
नीति है कि हम शादीशुदा औरतों को काम नहीं देते क्योंकि
इससे युवक आलसी और लालची हो जाते हैं। जगह थी मशहूर
कैडबरीज चौकलेट की संस्थान कैडबरीज वर्ड और शब्द थे उसके
संस्थापक जॉर्ज कैडबरी के और वह पूर्व में नहीं, यहीं
पाश्चात्य सभ्यता में पलेबढ़े थे। नीचे आगे यह भी लिखा
था कि विश्वयुद्ध के दौरान यह नीति संशोधित कर दी गई थी
यानि की स्थिति और समय के अनुसार नीतियों को बदलना
ही समझदारी और सफलता की कुंजी है। धर्म नहीं, समाज में
नारी के स्थान की बात जो होना चाहिए नहीं, जो है
समझना ज्यादा जरूरी है, हर धर्म में ही नारी को जितना उंचा
स्थान दिया गया है वास्तविक जिन्दगी में स्थिति उतनी ही
विषम और विपरीत है। दुर्गा, काली और लक्ष्मी सरस्वती से हम
सभी परिचित है। आदि शक्ति से विश्व और ब्रह्मांड ही नहीं
स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति दिखाकर हमारे ग्रन्थ
निश्चय ही नारी की महत्ता तो प्रस्थापित करते हैं पर और कुछ
नहीं। 'यत्र नार्याः पूजन्ते रमन्ते तत्र देवताः' से ज्यादा हमारे
पुरूषप्रधान समाज ने नारी को ढोल, गंवार, शूद्र और
पशु की तरह ही इस्तेमाल किया है। नारी को साथी और सहयोगी
आज भी कम ही मिल पाएं हैं। पुरूषों की छोड़िए नारी खुद भी
अपनी सबसे बड़ी शत्रु रही है। बहू पर क्रूरता और बर्बरता की
खबरों में सास और ननद का ही नाम सबसे आगे होता है।
ऐसा क्यों, क्या बचपन से ही अपने अस्तित्व की निरर्थकता के
ताने सुनसुनकर नारी संवेदना रहित और अपने प्रति उदासीन
हो चुकी है और वही दोहराती है जो उसकी सास ननदों ने
कभी उसके साथ किया था।
मातृ स्वरूपा देवी का भक्त हमारा
समाज (हमारे यहां पहले बच्चे की पहचान मां के नाम से ही
होती थी जैसे देवकीनंदन, कौन्तेय आदि) इस बात का प्रमाण
देता है कि हम कुछ हद तक विश्वास करते और मानते हैं कि नारी
पूज्य है पर सिर्फ मां के रूप में ही, इससे ज्यादा और कुछ नहीं।
किसी एक धर्म विशेष की बात नहीं, हर धर्म का यही हाल है।
सीता, फातिमा और मरियम के गुणगान तो हर धर्मग्रन्थ करते
हैं पर वास्तविक जिन्दगी में बस उनका शोषण ही होता है।
उन्हें एक महारथी संघर्ष ही करना पड़ता है चाहे वह ब्रिटेन
और अमेरिका का आधुनिक समाज हो या भारत पाकिस्तान या अफ्रीकी
देशों का उभरता संघर्षरत समाज। हमारी तो भाषा के शब्द तक
इस सोच का प्रमाण देते हैं। प्रतीक्षा स्त्रीलिंग हैं तो आनंद
पुल्लिंग। हवा, आग, धरती इस्तेमाल की सब चीजें स्त्री
लिंग हैं तो आकाश अपने सूरज चांद सितारों के साथ
पुल्लिंग सब पर छाया हुआ और पहुंच से बहुत ही दूर।
जननी आदिशक्ति स्त्री हो सकती है पर ईश्वर पुल्लिंग ही होगा।
निरंतर बहती श्रम करती नदी स्त्री हो सकती है पर समुद्र पुरूष
क्योंकि मेहनत स्त्री लिंग हैं और नतीजा पुल्लिंग। कहने की
जरूरत नहीं कि हमारा समस्त व्याकरण और शब्दकोश पुरूषों ने ही
निर्धारित किया था।
आज भी हर घर में बेटा होने पर
ही खुशियां मनाई जाती हैं क्योंकि सच्चाई चाहे कुछ भी हो
पर अभी भी यही विचारधारा है कि बेटा ही वंश का नाम आगे
बढ़ाता है और बेटा ही मोक्ष दिलाता है। बेटा एक ऐसी गारंटी
है जिसके सहारे हर सुखदुख से उबरा जा सकता है जबकि
बेटियां बस दुख और मुसीबतें लेकर ही आती है ज्यादातर
लोग यही कहते और मानते हैं (यह बात दूसरी है कि बूढ़े
मां बाप का बेटियां ही यहां ज्यादा ख्याल रखती हैं) और यदि
आपकी सोच इससे भिन्न हैं या आप अपनी बेटियों पर गर्व
करते हैं तो निश्चय ही आप मूर्ख हैं और कोई ना कोई आपको
समझाने आ ही जाएगा कि आपकी सोच गलत
है। याद आ रही है
कई साल पहले की घटना जब अपनी नन्हीं बेटी को गोदी में
उठाकर फूली न समाती देख किसी ने मुझसे कहा था बेटियों
पर इतना खुश होना ठीक नहीं। चने की रोटी होती है यह। देखो
तो आंख में अटकें, खाओ तो गले में। और तब अपनी बेटी को
गोदी में उठाए एक दृढ़ संकल्प के साथ बस मैं इतना ही कह पाई
थी कि नहीं मेरी बेटी तो मदर्स प्राइड और होम प्राइड हैं
(यह दोनों ही उस समय ब्रिटेन में मिलने वाली सबसे
अच्छी आटे की किस्में थीं)। पर आज तीस साल बाद भी तो कुछ
नहीं बदला। भले ही मार्गरेट थैचर और इंदिरा गांधी जैसी
नारियां पैदा हो जाएं, मदर टेरेसा जैसी हज़ारों का उद्धार कर
दें पर अभी भी समाज की सोच नहीं बदल पाई हैं।
आज भी कई परिवारों में अपनी
पहली बेटी को जन्म देने पर मांओं को अपने पति और परिवार
से माफी मांगनी पड़ती है। चार पांच छहछह बेटियों को एक
बेटे के इन्तजार में इस दुनिया में लाना हमारे एशियन
समाज में (यहां ब्रिटेन में भी) एक आम बात हैं। आज भी
कई ऐसे समाज और जातियां हैं जहां बेटियों को पैदा होते
ही मार दिया जाता है और अभी तक ऐसी खबरें सुनाई देती हैं
जहां कर्ज में डूबे मां बाप घर के सामानों के साथसाथ
बेटियों को बेच आते हैं। आज भी कोई भी किसी भी
मधुमिता को कुचल सकता है और नारी हित और आरक्षण पर बस
बहसें होती रहेंगी, कानून बनते रहेंगे।
दूसरी बेटी के जन्म के बाद पति
द्वारा प्रताड़ित अपनी एक बहुत ही सुन्दर और सलीकेदार सहेली को
मैं आज भी नहीं भूल पाती। हिन्दुस्तान नहीं, यहां ब्रिटेन
में ही रहती थी वह और पढ़ी लिखी व सुन्दर भी थी। आपत्तिजनक
जैसा उसके आचरण व स्वभाव में कुछ भी नहीं था सिवाय
इसके कि दूसरी बार भी वह पति को बेटा नहीं दे पाई थी। तंग
आकर घर से चुपचाप दोनों बेटियों के साथ भागते हुए
उसने एक रात शरण ली थी मेरे पास और बताया था मुझे कि
कैसे उसका अति शिक्षित और संपन्न पति कष्ट और उलाहने देता रहता
था उसे और कैसे इस असह्य जीवन से बचने के लिए वह अपनी
दोनों बेटियों के साथ घर छोड़ आई थी हमने घर चाहे
कितने भी नए बना लिए हों सात समुंदर लांघ आए हों पर
सोच का सामान तो आज भी वही जर्जर और पुराना ही हैं।
यहां भी धीरेधीरे वही सब बुराइयां पनपती जा रही हैं जो
अपने देशों में थीं। गर्भ में ही लिंग का पता हो जाने की
वजह से कन्या गर्भपात और भ्रूणहत्या के मामले इतने बढ़ गए
कि यहां की सरकार को स्थानीय पारिवारिक चिकित्सकों को
निर्देश देने पड़े कि बच्चे का लिंग जन्म से पहले न बताया
जाए। यहां भी बेटियों के मां बाप दहेज वगैरह की उन्हीं
मुश्किलों से गुजर रहे हैं जैसे वहां गुजरते थे। हालांकि
यहां बेटियों ने अपने हाथों में कुछ हदतक बागडोर लेनी
शुरू कर दी हैं और महिलाओं ने दुराचार के खिलाफ बगावत भी।
एशियन औरतों ने भी रेप और क्राइसिस सेंटर्स की जरूरत
पड़ने पर मदद लेनी शुरू कर दी हैं। हो सकता है कि एक आध पीढ़ी
के बाद हालात बदल ही जाएं, पर समाज में नारी के महत्व पर
आयोजन तब तक बेमानी से ही लगेंगे।
धर्म से ज्यादा आज एक स्वस्थ
सोचवाले शिक्षित समाज की जरूरत है। समाज सुधारकों और
आयोजकों को ऐसे आयोजनों के बारे में भी जरूर ही
सोचना चाहिए जो हमें इन बुराइयों से मुक्ति दे सकें
कम से कम सोचने पर तो मजबूर करें ही। नौ दुर्गा और
रमादान तो साल में बस दस पन्द्रह दिन या महीने भर के लिए
ही आते हैं पर जीवन उम्र का हर दिन मांगता हैं। उसे समझना,
सही तरह से जीना और जीतना ज्यादा जरूरी है हमारे लिए।
समाजसुधार की दशा में यहां की सरकार द्वारा लिया गया
निःशस्त्रीकरण का निर्णय, निश्चय ही एक प्रशंसनीय और सही
कदम है। ब्रिटेन में बढ़ते अपराधों को देखते हुए तीस हजार से
अधिक हथियार जनता ने सरकार के कहने पर वापस दे दिए हैं।
जराजरा सी बात पर हत्या और व्यभिचार अमेरिका की तरह यहां
भी आम सी ही बात होती जा रही है। आए दिन यौन, द्वेष,
स्पर्धा या लालच के नशे में हत्या की खबरों से अखबार भरे
रहते हैं। यही नहीं निरर्थक अपराधों की संख्या भी बढ़ रही है।
एशियाई समाज भी इससे अछूता नहीं रह पाया है। मादक
पदार्थों का सेवन और व्यापार, जायज नाजायज तरीकों से
तुरंत ही खूबसारा धन कमाने का अदम्य लालच, इन बुराइयों
से यहां भी हमारा समाज बच नहीं पाया है। युवा सफल
बिल्डर अमरजीत चौहान का शव और उनका लापता परिवार इस
समय यहां की पुलिस के लिए एक कठिन गुत्थी बना हुआ है। पर
खतरे तो कीड़ेमकोड़े से हर कोने से आते ही रहेंगे और
जब तक समाज खुद जागरूक न होगा, सहयोग नहीं देगा शायद
ही कोई सरकार कुछ कर सकती है।
एक और नया खतरा आज
करीबकरीब पूरे विश्व पर ही परेशानी का बादल बनकर छाया
हुआ है और इसके घनघोर अंधेरे ने तो बुश और ब्लेयर तक
की लाइमलाइट छीन ली है। बढ़ते आदानप्रदान और व्यापार
की वजह से यात्रियों ने पूरे विश्व को ही समेट लिया है।
अगर एक को छींक आती है तो सबको जुकाम होना अवश्यंभावी
सा ही हो गया है। सिवियरली एक्यूट रेसपिरेटरी सिन्ड्रोम
यानी कि सार्स का नाम अब तक शायद हम आप सभी सुन चुके
हैं और इसके खतरनाक परिणाम के बारे में भी जान चुके हैं।
विश्व के जिम्मेदार नागरिक होने के कारण यह हमारा कर्तव्य
बनता है कि हम इस महामारी को बढ़ने से रोकने का भरसक
प्रयत्न करें और वे सभी एहतियात बरतें जो इससे बचने के
लिए जरूरी बताए जाते हैं, हो सकता है इसके लिए हमें अपनी
सोच और आदतों को कुछ बदलना भी पड़े कहीं कुछ छोड़ना
पड़े। पर शायद थोड़ा बहुत छोड़ते रहना अच्छा है अगर पुराना
सबकुछ बांध लिया जाए तो नया घर नया कैसे लग सकता है?
मोहमाया पर याद आया कि हम
विदेश में बसे लोगों को अक्सर यह शिकायत रहती है कि हमें
अपने देश के सब सुख विशेषकर अपनी भाषा का साहित्य आदि
नहीं उपलब्ध हो पाता। मिठाई और खानपान की तो
करीबकरीब सभी चीजें मिलने लगीं पर सभी ऐसी विशिष्ट
संस्थाओं और दुकानों को ढूंढ़ते रहते हैं जहां नई और
सामियिकी किताबें और पत्रिकाएं मिल सकें। लंडन में खुली
स्टार्स पब्लिकेशन के अलावा शायद पूरे ब्रिटेन में कोई ऐसी
दुकान नहीं जहां से हिन्दी की किताबें खरीदी जा सकें। क्या हम
मुख्य मुख्य शहरों में नएनए मन्दिर बनाने की जगह
एकएक अपनी भाषा की पुस्तकों की लाइब्रेरी नहीं बना सकते,
जिसे सामियिकी रखने के लिए अपने वतन से आतेजाते लोग
एकआध किताब दान कर दिया करें यह लाइब्रेरी मंदिरों में
भी उपलब्ध हो सकती है वैसे भी धर्म और शिक्षा का तो
आदिकाल से ही गूढ़ संबंध हैं। यदि ऐसा हुआ तो क्या आपको
नहीं लगता कि हम अपने इस नए घर में अपने इन पुराने
जानेपहचाने सामान के साथ बहुत ही आराम और अच्छी तरह
से खुशखुश 'एट होम' हो जाएंगे।
रियाद,
पैलेस्टाइन, कासाब्लान्का और हाल ही में अमेरिका के पूर्वीय
समुद्रीक्षेत्र में जौर्ज बुश द्वारा घोषित सिंदूरी रंग की
सुरक्षा चेतावनी (सुरक्षा की भाषा में यह गंभीर चेतावनी
है) विश्व में चल रहे आत्मघाती हमलों से चिंतित
ब्रिटेन ने अपने वेस्ट मिनिस्टर पैलेस के चारों तरफ मोटे
पत्थर की पटियों की एक लाइन खड़ी कर ली है। हंसिये मत,
धारणा यह है कि यदि कोई आत्मघाती ट्रक वगैरह लेकर घुसने
की कोशिश करे तो उसे ये रोक या कम से कम विलंबित तो कर
ही पाएगी।
और
हां एक बात तो बताना भूल ही गई कि नियम और कानून के
पक्के इस ब्रिटेन में एक खरगोश को भी स्थानीय
ट्रैफिकवार्डन ने जुर्माने की परची दे ही दी क्योंकि उसका छोटा सा झोपड़ा सड़क
किनारे पीली लाइन पर उस जगह रखा था जहां रूकना या इंतज़ार
करना बिलकुल ही गैरगैरकानूनी है। बेखबर मालिक सामान
उतारता चढ़ाता रहा और अचानक ही ख्याति में आए हमारे खरगोश
जी गुलाबी रंग की परची के साथ दूरदर्शन के लिए तस्वीरें
खिंचवाते रहे आखिर रोज़रोज़ तो ऐसा नहीं होता कि एक
खरगोश को दूरदर्शन पर आने का मौका मिल पाए
मई 2003
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