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परिक्रमा लंदन पाती

वसुधैव कुटुम्बकम्

—शैल अग्रवाल

माना कि यह एक आदर्श वैदिक खयाल है पर आगे–आगे अब और क्या –– क्योंकि आजके इस भौतिक युग में तो शांति और सौहार्द की इस लाठी को आगे बढ़ने के लिए नहीं – सुगमता से चलने–फिरने के लिए ही नहीं, अपितु दूसरों को डराने–धमकाने, एक दूसरे का सर फोड़ने, ताकत के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। आज हर सभ्यता, हर संस्कृति बस यही चाहती है कि यह कुनबा उसीकी जाति, उसीके देश और उसीके जैसा ही हो।

क्या है यह जिसने हमारी इक्कीसवीं सदी की मानसिकता से सहानुभूति, सहिष्णुता और समझ को हटा दिया है। मानसिकता पर शायद शिक्षा–दीक्षा से ज्यादा परिवेष, पर्यावरण और पालन–पोषण का ही असर पड़ता है। तो क्या आजके इस व्यस्त भौतिक युग में, जीवन की इस भागदौड़ में मां–बाप अपनी जिम्मेदारी भूल रहे हैं – क्या 'यह मेरी अपनी जिन्दगी है' के स्वार्थी और एकाकी इस संसार में हर व्यक्ति जुड़ना और समाज में रहना भूलता जा रहा है? समाज ही क्या, परिवार तक के बंधन उसे स्वीकार नहीं। लौटना तो नहीं चाहती थी पर क्या ईराक की यह लड़ाई भी इसी स्वार्थी मानसिकता का ही एक परिणाम नहीं – क्या सद्दाम की तरह हम भी शीशे में बस अपनी ही शकल नहीं सजाते संवारते रह गए।

याद आ रही है हाल ही में सुनी अनिल जी के दोहे की एक पंक्ति 'जिसकी मां ममतामयी वह क्यों फिरे अनाथ' लगता है मां बाप ही नहीं, बच्चे भी अपनी उत्सुकता और महत्वाकांक्षा के पीछे मां–बाप, उनका प्यार, उनकी ही नहीं अपनी भी जरूरतें, सब कुछ भूलते जा रहे हैं। आत्मिक सुख और आत्मिक संतुलन से वंचित यह भौतिक समाज कब तक और कहां तक भटकेगा, कहना संभव नहीं – क्योंकि संरचना और संवेदना के साथ–साथ यह नया मानव अपने परिवेष और पर्यावरण को भी तो बदल रहा है। टूटती सरहदों और अपराजित अहं के आगे कल तक जो अवांछनीय और सच से परे था आज सही और ग्राह्य भी समझ में आने लगा है, अब झूठ और धोखा – सच और ईमानदारी से ज्यादा प्रचलित सोच हैं – सोच के भी तो आयाम बदल रहे हैं – नये नियम और नए–नए मापदंड हैं।

पहले कहा जाता था व्यक्ति या समाज के लिए जो सही है वही हमारी असली ताकत है पर आज बस ताकत ही सही है। जो उठा और ले सकते हो – ले लो – सही–गलत कुछ नहीं, बस सफलता की कसौटी ही सब कुछ परखती और निश्चित करती है। परिणाम से प्रभावित समाज में नैतिक अनैतिक तरीकों का नहीं बस साध्य का ही अर्थ रह जाता है। और इसी संदर्भ में बारबार याद आ रही है चार्ल्स साची द्वारा आयोजित लंडन की सामयिकी कलाकृतियों की वह प्रदर्शनी जिसमें एक बीच से आधी–कटी भेड़ प्रदर्शित थी। एक औरत का आधा कटा धड़ प्रदर्शित था। कहीं बड़े–बड़े स्तनों के नीचे लिखा था मां शब्द – मन वितृष्णा से भर गया – क्या ममतामयी मां, बस बढ़ती शारीरिक जरूरतों का ही एक साधन है? वहीं पास ही में एक आलिंगनबद्ध युगल पूरा धागों से ममी की तरह बंधा प्रदर्शित था – शीर्षक था – 'किस विथ द स्ट्रिंग्स अटैच्ड।' – देख कर पहले तो सब कुछ बहुत ही अटपटा और असंगत लगा पर धीरे धीरे सब समझ में आने लगा, प्रदर्शनी सामयिकी थी और आजके इस समाज में क्या प्यार खुशी सब कुछ एक शर्त–एक कीमत पर ही नहीं – एक व्यापार ही नहीं? जीवन की तरह कला को भी तो अब सत्यं शिवं सुन्दरम् से हटकर कांटे सा ही होना पड़ेगा जो बारबार पैरों में चुभकर इस निरर्थक भागती दौड़ती जिन्दगी के कसैलेपन और दर्द का एहसास दिलाती रह सके।

सिर्फ शिकायतों से काम नहीं चलेगा, थमकर सोचना होगा कैसे रोक सकते हैं हम इस फिसलन को, इस अंधी भागदौड़ को? समय की कसौटी पर खरे उतरे मूल्यों और मान्यताओं की सार्थकता को निश्चित ही वापस लाना होगा। समझना पड़ेगा कि यदि तुम भगवान या स्वर्ग–नरक को नहीं मानते तो मत मानो पर इतना तो मानो कि तिरस्कार और तुच्छता का चांटा दूसरे के गालपर भी उतना ही तड़कता है जितना अपने पर। दूसरों की भी वही हमारी जैसी भूख–प्यास और साधारण जरूरतें ही होती हैं। क्या हुआ जो अपने भरे–पूरे भंडारों की वजह से हम उस दर्द का एहसास तक भूल चुके हैं। दिखावे और प्रचार की इस दुनिया में याद रखना होगा कि बस एक अली अब्बास ही वह बच्चा नहीं जो उस लड़ाई में शरीर और आत्मा से घायल हुआ था, उसके जैसे हजारों चारो तरफ कराह रहे हैं। बस एक का इलाज करवाकर उत्तदायित्व से नहीं उबरा जा सकता।

कहते हैं यहां ब्रिटेन में साढ़े तीन लाख से भी ज्यादा पढ़े लिखे और सफल वयस्क हैं जो शादी की सार्थकता और परिवार जैसी संस्था और संयम में विश्वास नहीं करते। अपने साथी के साथ वे एक आर्थिक और मानसिक समझौते बतौर रहते हैं – किसी भी तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त। और अगर उस समझौते के बाइ–प्रोडक्ट की तरह बच्चे इस दुनिया में आ भी जाएं तो उनके प्रति उनकी बस आर्थिक जिम्मेदारी के अलावा कोई और जिम्मेदारी नहीं होती। अब ऐसे सामाजिक ढांचे में बढ़े बच्चे कितना समाज और समूह को अपना मानेंगे खुद ही सोचा और समझा जा सकता है। और फिर आर्थिकवाद के इस युग मे समाज भी तो अपनी नैतिक जिम्मेदारी भूलता जा रहा है। हाल ही में एक 53 वर्षीय ब्रिटिश औरत जो पीठ के दर्द से पीड़ित थी और 59 वर्षीय उसके पति जिन्हें दौरे पड़ते थे और दम्पति जो उदासी की बीमारी से पीड़ित था, की सामूहिक आत्महत्या की अरजी को स्विटजरलैंड ने मंजूर कर लिया, वह भी बिना किसी जांच–पड़ताल के, जबकि याद रहे यह क्लीनिक बस लाइलाज बीमारियों से पीड़ित मरीजों की आत्महत्या में सहायता के लिए ही खुली थी। उत्तदायित्वों के प्रति ऐसी लापरवाही किसी भी सामाजिक परिपेक्ष में एक खतरनाक और डरावना मोड़ है। इस सामूहिक सामाजिक विघटन में क्या चीज़ है जो लोगों को जोड़े रख सकती है – उन्हें टूटने या बिखरने नहीं देगी? भय निश्चित ही एक हो सकता है। स्वार्थ और लालच दूसरे। पर यह तो खुद इतने घने संबल हैं कि एक स्थाई सामाजिक ढांचे को क्या संभाल पाएंगे? जबतक हम दूसरों से क्या खुद से भी सच बोलना नहीं सीखेंगे, हर आचरण और व्यवहार पर ही प्रश्न–चिन्ह लगते चले जाएंगे और ईराक की लड़ाई की तरह हम सफाई में कुछ भी नहीं कह पाएंगे।

सुनते हैं जिस लेबर पार्टी के नेता ने इस लड़ाई का समर्थन किया उनकी ही पार्टी के एक एम•पी पर सद्दाम का प्रशंसक व उससे पार्टी के लिए बड़ी रकम लेने का आरोप है। दो तरफी यह राजनीति अब कैसे खुदको स्पष्ट कर पाएगी आज निश्चित ही एक कठिन सवाल है। सामूहिक व सामाजिक विघटन में विचारों का आदान–प्रदान या एक दूसरे को समझने की ईमानदार कोशिश ही शायद हमें एक दूसरे से जोड़े रख सकती है। इसके लिए एक सशक्त और समझ में आनेवाली भाषा का होना जरूरी है – भाषा जो खुली और सच्ची हो – बांटने नहीं जोड़ने वाली हो पर यह तभी संभव हैं जब हम खुद अपने विचारों और कार्यों के प्रति सच्चे और समर्पित हों।

संस्कृति और सभ्यता की चेतना व्यवहार और भाषा में ही होती है। भाषा के महत्व को ठुकराया नहीं जा सकता। खुले 'भ' और बंद 'म' का ख्याल रखना जरूरी है ध्यान न दो तो दुख–भरा मन दुख–मरा मन हो जाता है। जबतक अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने की जरूरत समाज महसूस करेगा, नैतिकता और भाषा भी सुरक्षित रहेगी। मुश्किल तब आती है जब रोटी–रोजी की बढ़ती जरूरतों के साथ अन्य चीजों का महत्व घट जाता है।

शायद यही वजह है कि आजके इस व्यस्त समाज में चन्द सामूहिक प्रयासों को छोड़कर हिन्दी के प्रति पूर्णतः उदासीनता नज़र आती है। अन्य बातों की तरह भाषा पर भी किसी समाज के आधिपत्य का ही प्रभाव पड़ता है। यहां इंग्लैंड में अपेक्षित है कि अंग्रेजी का ही अधिपत्य हो पर जब पाश्चात्य की अंधी नकल में भारत के महानगरों में भी यही स्थिति नज़र आती है तो मन को दुख होता है। स्थापित और सशक्त समाज में भाषा एक व्यक्तिगत आचरण होता है पर बदलते प्रवासी समाज में सामाजिक जरूरतों को ही प्राथमिकता दी जाती है। शायद यही वजह है कि यहां ब्रिटेन में एक मंत्री ने हमसे अंग्रेजी को अपनाने का आग्रह किया और कहा कि जब अंग्रेजी जीसस क्राइस्ट के लिए एक उपयुक्त भाषा है तो फिर हम भारतीयों के लिए क्यों नहीं?

दूसरा क्या सोचता है, हम बदल नहीं सकते पर अपनी सोच को बदलना जरूरी है। अपने प्रति, अपनी भाषा व्यवहार के प्रति इतना उदासीन होना, एक बीमार मानसिकता का ही प्रतीक है। पंजाबी शरणार्थियों की अधिकता की वजह से आज यहां ब्रिटेन में पंजाबी भाषा और पंजाबी संस्कृति की महत्ता बढ़ रही है। अफ्रीका से बड़ी संख्या में आए बसे गुजरातियों की वजह से गुजराती भी पीछे नहीं पर इनकी बूढ़ी और बीमार बहन हिन्दी अदृश्य–सी होती जा रही है। क्या इस उपेक्षा और उदासीनता का उत्तरदायित्व हम हिन्दी भाषियों के अपने ऊपर ही नहीं?

हमारी समृद्ध भाषा और संस्कृति अपने वैभव से सदियों से ही हर संस्कृति और हर देश को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है फिर हम भारतीय ही अपना सही मूल्यांकन क्यों नहीं कर पाते? हाल ही में रशियन मूल की हिन्दी भाषा विद् डॉ लूदमिला से जब मैंने पूछा कि आखिर हिन्दी से ही आपका इतना लगाव क्यों, कैसे और कबसे, तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे मैं ज्यों का त्यों आपके साथ बांटना चाहूंगी – शायद हम आम भारतीयों को भी अपने देश, अपनी भाषा का खोया गौरव और अपना उत्तरदायित्व वापस याद आ जाए –

'बचपन से ही मुझे अधिकतम सखियों की भांति (रूसी बच्चे–युवकों समेत) भारत की ओर बहुत आकर्षण था। रूस का वातावरण भारत से लड़ाइयों, मैत्री एवं भाईचारे की भावनाओं से भरा था। यह पांचवे दशक की बात है। ऐसे वातावरण में मैं पली बढ़ी। मेरी यही आकांक्षा थी कि जल्दी से स्कूल समाप्त करके विश्व विद्यालय में पढ़ना शुरू करूं और हिन्दी सीखूं। मेरा यह विश्वास था (और है) कि भाषा के माध्यम से ही किसी देश की जनता के निकट पहुंचा जा सकता है, इस की संस्कृति का अध्ययन किया जा सकता है और मुख्य बात, उसका साहित्य पढ़ा जा सकता है, जो जनजीवन का प्रतिबिम्ब है। विश्वविद्यालय में मैंने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और भारत से संबन्धित दूसरे विषय भूगोल, इतिहास, आर्थिक स्थिति, संस्कृति आदि विषय पढ़े जो अनिवार्य तौर पर हिन्दी के हर विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता है। हिन्दी में एम•ए•करके मैंने उर्दू भी सीखी, इसमें (उर्दू साहित्य में) पी–एच•डी• भी किया। हिन्दी और उर्दू साहित्य का विश्लेषण किया, लेख और पुस्तकें लिखीं, साथ–साथ मास्को विश्वविद्यालय में मैं दोनों भाषाएं और साहित्य पढ़ाती हूं।'

चलिए चलते–चलते मौसम का मिज़ाज बदलने के लिए कुछ हलकी–फुलकी बातें भी कर ही लेते हैं। सुनते हैं अपनी विश्व–सुन्दरी और मशहूर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय को हॉलीवुड से बौंडगर्ल बनने का आमंत्रण मिला है और हाल ही में भारत में श्री हनुमान जी का जन्मदिन केक और कैंडल के साथ मनाया गया। केक पर मोमबत्तियां उमा भारती ने जलाई और श्रद्धालुओं में हलचल थी कि पता नहीं प्रसाद खाना ठीक भी था या नहीं क्योंकि वे नहीं जानते थे कि यह केक कलाकंद से बना था या अंडे के साथ। आप यदि छिंदवाडा में या उसके आसपास हों तो इस असलियत का पता लगाइयेगा और बताइयेगा जरूर कि आखिर यह शगूफा किसने छोड़ा था।

अप्रैल – 2003

 
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