ग्यारह
सितंबर का धमाका अभी शान्त भी नहीं हो पाया कि नए खतरों की
आहट एक बार फिर चारों तरफ सुनाई दे रही है। सभी कुछ
डांवाडोल है प्यार, विश्वास, भरोसा सबकुछ।
सुना है आगामी आतंकवादी खतरा
अमेरिका के बाद शायद ब्रिटेन को ही सबसे ज्यादा हो सकता है।
यहां की जनता को बारबार आगाह किया जाता रहा है कि वह पूरी
तरह से सतर्कता और सावधानी बरते। अमेरिका का दृढ़
निश्चय है कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ेगा और ब्रिटेन ने कह
रखा है कि वह उसका पूरापूरा साथ देगा। यहीं नहीं,
करीबकरीब सभी पश्चिमी देश सहमत हैं कि ईराक को एक
आतंकवादी राष्ट्र समझा जाना चाहिए और वहां के शासक सदाम
हुसैन यदि अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षकों को संतुष्ट न कर पाए कि उनके
पास कोई भी रासायनिक शस्त्रों का भंडार नहीं है तो ईराक पर
सशक्त और सामूहिक हमला होना चाहिए। ईराक का कहना
है कि संयुक्त राष्ट्र की तरफ से आए निरीक्षक और कुछ नहीं,
बस अमेरिका और इजराइल के भेजे हुए जासूस हैं।
जितने अखबार उतनी बातें।
शायद यही वजह है कि शान्तिप्रिय जनता ने युद्ध के विरूद्ध
जोरदार प्रदर्शन किए उन्हें ईराक या किसी भी देश के
खिलाफ कोई युद्ध नहीं चाहिए क्योंकि इसका असर बस आम जनता
पर ही होता है। सत्ताधारी तो अपनी रक्षा करना भलीभांति
जानते ही हैं अपनी व परिवार की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था
व मित्र देशों में छुपने का ठिकाना ढूंढ़कर रखते हैं। पता
नहीं सही या गलत किसी मनचले संवाददाता ने तो यहां तक
लिख डाला हे कि पश्चिम को भ्रम में रखने के लिए सद्दाम़ ने
अपने जैसे कई प्रतिरूप मानव तैयार करवा लिए हैं जिससे कि यदि
हत्या का कोई षडयंत्र हो भी तो उनतक न पहुंचा जा सके।
आत्मश्लाघा या स्वयं में लिप्त
कुंठा समझ में नहीं आता कि क्या सच है?
आमजनता हर सुने को अनसुना कर अपनीअपनी दिनचर्या
में लगी रहना चाहती हैं। पर अचानक ही हर कान खड़े हो
गए हैं हाल ही में नौर्थ लंडन के एक फ्लैट में छह
लोगों की गिरफ्तारियां हुई। छहों आफ्रिकन मूल के और
उनके पास एक ऐसा विषाक्त रसायन राइसिन, जिसकी बस एक
औंस मात्रा छत्तीस हजार लोगों को मारने की सामर्थ्य रखती
है। यह घातक भंडार कितना और किसकिस के पास है, कुछ
पता नहीं। विश्व में शान्ति की स्थापना की इच्छुक सरकार के
पास अपनी घबराई आम जनता के लिए बस सावधानी और
सार्वजनिक जगहों में सतर्कता की चेतावनी है। स्थिति
और भी हास्यास्पद इसलिए क्योकि पहले तो समझा गया कि वे
शरणार्थी की तरह यहां आए थे और बाद में पता चला कि
शरणार्थी तो बस एक ही था बाकी पांच अल्जीरियन। यह
वही अल्जीरियन, धर्म विशेष संगठन से जुड़े लोग है
जिनका संबन्ध अलकाईदा और बिन लादेन से बताया जाता है।़
फ्रान्स में आतंकवादी गतिविधियों की वजह से जिन्हें निकाला
गया था (फ्रांस की मेट्रो लाइन पर नेल बाम्ब का हमला
जिसमें कई मरे और सैंकड़ों घायल हुए इन्होंने ही किया
था) और अब ये सफलता से ब्रिटेन में संगठित हो गए
हैं और अधिकांश यहां की काउन्सिल के मेहमान हैं यानि कि
बेघर गरीब और लाचार लोगों के लिए बनाए गए फ्लैट्स
में रह रहे हैं जिन्हें मारने की तैयारी हो रही थी उन्हीं
टेक्स देनेवालों की संपदा पर मौज कर रहे हैं जिस
थाली में खाना उसी में छेद करने की इससे अच्छी और सटीक
मिसाल हमें और कहां मिलेगी यह भी सुनने में
आया है कि ब्रिटेन की खुफिया पुलिस अब फ्रान्स की मदद ले रही
हैं हर तरह की विस्तृत जानकारी के लिए। लन्दन में एक
मौलवी पर अपनी मस्जिद से अवांछनीय शिक्षा देने के जुर्म पर
कड़ी नज़र रखी जा रही है।
शरणार्थियों और मुसीबत के
मारों को तो शरण मिलनी ही चाहिए पर धोखेबाज और
छद्मवेशियों पर आंख रखना भी बहुत ही जरूरी है। अधिकारों का
दुरूपयोगी जितना दोषी हैं उसे शह और शरण देने वाला भी
उससे कुछ कम नहीं। यहां के वासियों को भी निरपेक्ष
भाव से अपराधियों को पहचानना और ढूंढ़ना होगा और
जिस देश को अपना घर बनाया है उसकी भलाई के बारे में
सोचना और तय करना होगा, क्योंकि अपराधी भी यहीं कहीं
हमारे आसपास, हमारे बीच में ही रह रहे हैं, पर नफरत और क्रोध
की आग में जले बगैर। अगर हमने भी बस वही नफरत का
रूख अपनाया तो विजय तो बस बुराई की ही होगी। माना
कि क्रिया के साथ प्रतिक्रिया होती ही है, पर हमारे शास्त्र और
संस्कार हमें यह शिक्षा नहीं देते कि ईंट का जवाब पत्थर से ही
दिया जाए। आजभी प्रतिक्रिया से ज्यादा सक्रियता की ही जरूरत
है। बात भी तभी बनती है और बिगड़े काम भी तभी सुधर
पाते हैं। वैसे भी आखिर यह नफरत और ताकत का तांडव कबतक
और कहां तक क्या हमारी चुप्पी और तटस्थता उपद्रवी को
बस और उपद्रवी और ताकतवर को और ताकतवर ही नहीं होने
देंगी?
कहते हैं दो हिस्से हाइड्रोजन में
(हाइड्रोजन जो स्वभाव से ही बहुत ही आसानी और तेजी से
जलने वाली गैस है और ऑक्सिजन जो कि जलने का स्वभाव
रखने पर भी जीवन दायिनी मानी जाती है) मात्र एक हिस्से में
आ मिले तो दोनों के ही रूप और स्वभाव दोनों बदल जाते
हैं। आग की जगह पानी बन जाती है दोनों ही
शीतल और सौम्य। यानि कि दो अग्नि तत्वों का भी सही
मात्रा में उपयोग जनहित में होता है फिर वह चाहे समाज हो,
व्यक्ति हो या देश।
वैसे तो यह भी कहा जाता है कि
हर आग उबलते ज्वालामुखी की तह के नीचे ठंडे पानी के स्रोत ही
होते हैं। बस यही सक्रियता है विलोम को भी
साथ लेकर चलना। डालने को तो जलती आग में बढ़ावा
देने के लिए पेट्रोल और तेल भी डाला जा सकता है पर क्या फिर
वे लपटें दुश्मनों के साथ हम भी न जला देंगी खाड़ी में अभूतपूर्व सैनिकसंगठन और युद्ध की
तैयारियों की खबर क्या यह कुछ ऐसी ही नहीं हैं
बस देखना यह है कि इस घटना से विश्व झुलसता है या फिर
शान्ति और सौहादर्र के नए स्रोत फूटते हैं?
आप सोच रहे होंगे कि जनवरी
की इस कड़ाके की ठंड में यह कैसी बहकीबहकी सी बातें कर रही
हूं सन्निपात की मनःस्थिति जैसी? विश्वास
मानिए अभी भी यहां कुछ गरमठंडा, या संवेदना रहित नहीं
हुआ है। बस चारो तरफ उड़ती अफवाहें इतनी गरम और
जलाने वाली हैं कि मन दुख और डर से बर्फ सा जम गया है।
दुख इसलिए कि क्या आजका मानव इतना निष्ठुर है कि बिना थमे
और सोचे कीड़ेमकोड़े की तरह हज़ारों को मारने में
झिझकेगा भी नहीं और डर इसलिए कि क्या हम विनाश के
उस कगार पर आ खड़े हैं जहां से पूरे भविष्य, वर्तमान, अतीत
सबको एक ही विक्षिप्त धक्के से गर्त में पहुंचा देंगे?
भ्रांतियां भी तो तरहतरह की
होती हैं और हम सभी ज्यादा या कम कभी न कभी इसके शिकार
होते ही हैं। जानते है कि जैसे बाहर आग जलती है वैसे
ही एक ज्वाला मन में भी होती है और यदि यह नफरत की हो
सकती है तो प्रेम की भी तो। क्रोध की तो विवेक की भी
तो। वैसे भी विद्रोह या पाशविक आनन्द कभी सृजन
नहीं करता बस तहसनहस ही जानता है यह। माना
कि हमेशा संयमित और संतुलित रह पाना आसान नहीं होता
और सिर्फ भरे पेट से मानव तृप्त भी नहीं हो पाता ऐसा
तो बस पशु पक्षी और वनस्पति के साथ ही होता हैं या फिर चन्द
कुन्दबुद्धि के लोगों के साथ। इक्कीसवीं सदीं के इस
मानव ने तो अब बहुत कुछ सीख और जान लिया है। सुख
और उपलब्धियों के नएनए साधन हैं इसके पास। अपनी
रोजमर्रा की जरूरतों से निवृत्त पाए इस मानव की मांग
दिनप्रतिदिन बढ़ और बदल रही हैं। किसी को ताकत चाहिए
तो किसी को नाम।
इस अग्नि के दावानल, बड़वानल,
जठरानल ही नहीं, प्रेमाग्नि, क्रोधाग्नि, द्वेषाग्नि और ना
जाने कितने और रूप बिखरे पड़े हैं हमारे चारों तरफ।
इनमें जलतेतपते हम नित नए स्वरूप में ढलते जाते हैं।
नए आविष्कार पर आविष्कार हो रहे हैं कभी अपने सुख चैन के लिए
तो कभी सारा सुख चैन सबकुछ तहस नहस करने के लिए।
चाहे समाज हो, शासक हो, नेता हो या आम जनता, कोई
भी तो अछूता नहीं रह पाता इस उष्मा और उर्जा से हाल ही
में एक पेशे से पैथोलोजिस्ट कलाकार ने अपनी कला प्रदर्शनी
की जिसमें कटेफटे मानव शरीर के असली हिस्सों को
प्लास्टिसिन
में लपेटकर प्रदर्शित किया गया। इस वीभत्स और
रोमांचक प्रदर्शनी का नाम था 'बौडी वर्क्स'। कला का तो
पता नहीं पर आर्ट वर्ड में काफी हलचल रही और हजारों ने इसे
देखा। जब एक बिना बना बिस्तर बीसवीं सदी की मुख्य
कलाकृतियों में रखा जा सकता है तो मृत शरीर के संरक्षित
मानव अवशेष क्यों नहीं वैसे भी आज कल्पना और
यथार्थ इतना गडमड हो चुका है कि अब इस स्लेटी में से
सफेद और काला अलग कर पाना बिल्कुल ही आसान नहीं।
सुनते हैं ब्रिटेन के जाने
माने भूतपूर्व वित्त मंत्री और गृह मंत्री रॉय जेन्किन्स की
मृत्यु से खाली हुई चान्सलर की कुर्सी को ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी, अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को
सौंपने के बारे में सोच रही है। वजह इसकी दो बताई
जाती हैं। एक तो वह खुद भी कभी वहां पर विद्यार्थी थे
दूसरी यूनिवर्सिटी की जर्जर वित्तव्यवस्था के लिए यह एक
अच्छा और सही कदम होगा।
पैसा ही जब आज हर तरह के मान
और सम्मान का मापदंड है तो प्यार और भावना जैसी हलकी
चीजों को तो आराम से बेचा ही जा सकता है ऐसी ही
कुछ धारणा है मृत राजकुमारी डाइना के प्रेमी और मित्र होने का
दावा करने वाले जेम्स ह्यूइट की। अमेरिका में दूरदर्शन के
एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि वह डाइना के सभी
प्रेमपत्र बेचने का इरादा रखते हैं। दस पत्रों के लिए तो
उनके पास चार मिलियन पौंड का एक खरीददार भी मौजूद है
क्योंकि वे मुख्य ऐतिहासिक दस्तावेज भी सिद्ध हो सकते हैं।
और इतनी बड़ी रकम के आगे किसी के भी प्रति निष्ठा या कर्तव्य
का कोई सवाल ही नहीं उठता।
हाल ही में यही जाने की कोशिश
की यहां के एक प्रमुख अखबार के संवाददाता ने जब उसने जानना
चाहा कि क्या वास्तव में आज की इस भौतिक दुनिया में सबकुछ
पैसे से ही खरीदा जा सकता है या नहीं नाम, शौहरत
सबकुछ। अपने इस तर्क को प्रमाणित करने के लिए उसने
यहां के एक विख्यात कला संग्रहालय को गुमनाम फोन किया
और कहा कि वह एक धनी व्यक्ति की तरफ से बोल रहा है जो
उनके संग्रहालय को मिलियन पौंड का दान देना चाहता है।
बस शर्त इतनी है कि उसकी एक कलाकृति वीथिका में प्रसिद्ध
कलाकृतियों के साथ टांगनी होगी। वह प्रसिद्ध
संग्रहालय न सिर्फ शर्त मान गया वरन दस मिनट में
बनाई गई उस कलाकृति की भूरिभूरि प्रशंसा तक कर डाली।
बाद में जब संवाददाता ने अपनी असलियत बताई तो बौखलाए
संग्रहालय के क्यूरेटर ने बस इतना ही कहा कि इतने सारे
पैसों की जरूरत भला आज किसे नहीं और उस कृति को वे सिर्फ
कौरीडौर में ही टांग रहे थे, मुख्य हॉल में नहीं।
किसी ने शायद सच ही कहा है कि माया तेरे तीन नाम
परसी परसा परसराम।
भारत में पिछले दिनों प्रवासी
दिवस मनाया गया। डेढ़ हजार के करीब प्रवासी
भारतीयों का देशवासियों ने जोरदार स्वागत किया इस वादे
के साथ कि अब वह दुहरी नागरिकता के हकदार होंगे और एक बार
फिर से उन्हें बस भारतीय ही नहीं, भारतवासी कहलाने का भी
मौका दिया जाएगा। यही नहीं वित्त व व्यापार में भी वे
नईनई सुविधाओं के हकदार होंगे। बस वोट देने
या चुनाव लड़ने का अधिकार उन्हें नहीं मिलेगा। इस
सम्मान और प्यार ने, इस आवाहन ने सबके मन को छुआ।
सब प्रवासी एकमत हैं कि अब वे खुदको भारत से और ज्यादा
जुड़ा महसूस कर पाएंगे। 87 वर्षीय नजीर मोहम्मद के
लिए तो यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। वे सालभर की उम्र
में ही मां के साथ भारत को छोड़कर त्रिनिदाद जा बसे थे और
उन्हें बस्ती जिले के अपने गांव का नाम तक नहीं पता था।
सैंकड़ों साल पहले गुलामी और मज़दूरी की ज़िन्दगी को
अपनाने के लिए जहाजों में भरकर कर भेजे गए या फिर शिक्षा
की नईनई तकनीकी जानकारी और धनोपार्जन के लिए हाल के
दशकों में गए ये परदेसी जब घर लौटे तो आंखें नम थी।
सरकार द्वारा नौ विशिष्ट प्रवासियों के साथ सम्मानित होने
पर खुशी से छलकती आंखों और भाव विभोर गद्गद् आवाज
में वे बस इतना ही कह पाए कि उनके जीवन में और यहां भारत
में आज भी कुछ नहीं बदला वही दाल रोटी, वही अपने
लोग बस एक जमीन की ही तो दूरी हैं।
और एक ऐसी ही दूरी तय की कल एक
और कालजयी शख्सियत ने जिनकी जिजीविषा ने हमेशा इसी
दुनिया इसी धरती से जुड़े रहना चाहा यह जानते हुए भी कि
इस धरती पर तो जो बीत गई सो बीत गई क्योंकि वह
जानते थे इस पार प्रिय! तुम हो, मधु है उसपार
न जाने क्या होगा
श्री हरवंश राय बच्चन जी को उनके इस विस्तृत साहित्य परिवार
की तरफ से एक भावभीनी श्रंद्धांजलि।
जनवरी 2003
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