संदर्भों के कंटीले जंगल में
फिर एक प्रश्न स्वयं ही जवाब बनकर पीपल सा उग आया है और एक
बार फिर से विश्वास जीत गया है। कैसे मान लूं अब मैं
कि हिन्दी एक मृतभाषा है और भारत में भी सिर्फ गंगा किनारे
गांव की गलियों और हाटबाजारों में ही बोली जाती है।
शहरों और महानगरी के लिए, विकसित समाज के लिए इसकी
उपयोगिता जर्जर और अर्थहीन हो चुकी है। इसकी सघन
छांव में बैठकर तो यह गूंज, यहां भारत से हजारों मील
दूर, सात समुन्दर पार टेम्स नदी के किनारे ब्रिटेन तक में
सुनी जा सकती है। इतनी स्पष्ट और साफसाफ कि यहां की
पार्लियामेंट तक हिल गई है और गृहमंत्री डेविट ब्लैंकेट को
अपने एक स्थानीय दूराभाष के साक्षात्कार में भारतीय मूल के
लोगों से अनुरोध करना पड़ा कि यदि आप वाकई में यहां के
समाज से पूर्णरूप से समन्वय चाहते हैं तो कृपया अपने घरों
में भी बस अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग शुरू कर दें।
अपनी सोच को यहां की भाषा में ढालें।
सोचने पर मजबूर हूं कि जब
यह सैंकड़ों वर्ष दुनिया के विभिन्न तबकों पर राज कर रहे
थे तो क्या इन्होंने भी अपनी सोच को फ्रेंच, स्पैनिश,
पुर्तगीज, हिन्दी, उर्दू, अरेबिक और कई अन्य भाषाओं में
ढाला था, मातृभाषा अंग्रेजी में बोलना और सोचना
छोड़ दिया था? याद आ रही है कूटनीतिज्ञ चाणक्य की वह
नीति जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि किसी देश और सभ्यता
को नष्ट करना है तो उसकी भाषा को नष्ट कर दो। क्योंकि
भाषा ही संस्कृति वाहिनी है। इसी के सहारे हम अपने
आदर्श, अपने संस्कार, अपनी सोच की धरोहर को विरासत में
देते हैं। खुदको जानते और दूसरों को समझते हैं।
शायद यही वजह है कि हर तबके की अपनी एक भाषा होती है, उसकी
सारी कमियों और खूबसूरतियों के साथ। किसी भी भाषा
के बस शब्दों को अनुवादित किया जा सकता है, उसके अर्थ और
संदर्भों को नहीं। वह सब जानने के लिए समाज में
रहना बसना ही नहीं, पीढ़ी दर पीढ़ी जीना जरूरी है।
भाषा और व्यक्तित्व का यह
संबन्ध और मसला तो शायद बहुत ही पुराना है। जब उस
आदि मानव ने पहली बार अपनी बात कहनी चाही होगी, दूसरों
की समझनी चाही होगी तो उसने कुछ संकेतों को, ध्वनियों
को क्रमबद्ध रूप में जोड़ना और दर्ज करना शुरू कर दिया होगा।
भाषा का अभिव्यक्ति के साथ यह आधिपत्य के लिए भी प्रयोग
आज का नहीं, सदियों पुराना है। अभिव्यक्ति जब
व्यक्ति विशेष को छोड़कर एक समुदाय या समाज को व्यक्त
करने लगती है तो उनकी भाषा बन जाती है। यदि यह सच
है तो हमें मानना पड़ेगा कि भाषा ही हमारी पहचान है
क्योंकि यही हमारी संस्कृति, सभ्यता, हमारे सामाजिक विकास,
हमारे इतिहास और हमारे अस्तित्व का क्रमबद्ध दस्तावेज है। एक
ऐसी नदी है जो आसपास का हर अंश अपने में समेटती बहती
रहती है, नई नई सभ्यताओं और संस्कृति की ताजी हवा से
अपनी गति और प्रवाह लेते हुए। जब हम अंग्रेजी में
गॉड़, उर्दू में अल्लाह और हिन्दी में भगवान कहते हें तो वह
परम शक्ति बदल नहीं जाती, बस उसे हम अपनी तरह से, अपने
निजी संबोधन से जान और पहचान लेते हैं। बिल्कुल
यही संदर्भ भाषा का भी है। भावनाएं जरूरतें और
अनुभव सब वही एक से और सर्वव्यापी ही होते हैं, बस
अभिव्यक्ति अपनीअपनी होती है। और इस अपनेअपने
में हमारी अपनी सभ्यता, अपने संस्कार और शिक्षा का बहुत बड़ा
हाथ होता है। किसी भी व्यक्ति को जानने के लिए उसके
वर्तमान के साथ उसका अतीत भी जानना उतना ही जरूरी है,
क्योंकि अतीत की बुनियाद पर ही आज खड़ा हो पाता है।
हमारा अवचेतन मन जिस भाषा
में सोचे वही हमारी मातृभाषा होती है क्योंकि इसी भाषा
में हम हंसनारोना सब कुछ सीखते हैं। यह सीखने और
सीखाने का सिलसिला तो मां के गर्भ से ही शुरू हो जाता है।
महाभारत के अभिमन्यु की कथा हम सभी जानते हैं। अपनी
बात को थोड़ा और स्पष्ट करने के लिए अकबर और बीरबल की
सैंकड़ों किवंदन्तियों में से एक उद्धरित करना चाहूंगी।
एक बार अकबर के दरबार में एक बहुत ही विद्वान व्यक्ति आया जो
कि कई भाषाएं जानता था और हर भाषा को बहुत ही सहजता से
बोलता था। महीनों निकल गए और कोई नहीं जान
पाया कि आखिर यह महाशय हैं कहां से
. . . अंन्ततः चतुर मंत्री
बीरबल को बुलवाया गया और उन्हें बादशाह सलामत ने
आदेश दिया कि दो दिन में इनकी पहचान पता करो कि यह
कौन हैं और कहां से आए हैं और इनकी मातृभाषा क्या है।
बीरबल ने कहा जी हुजूर, यह कौन सी मुश्किल बात है
. . . सुबह तक पता चल जाएगा। सभी दरबारी बहुत हंसे, जो
बात वे महींनों में भी नहीं जान पाए, यह झट से कैसे
जान लेंगे। रात में जब वह व्यिंक्त सो रहा था तो
बीरबल ने मुठ्ठी भर पानी का छीटा उसके मुंह पर मारा और
व्यक्ति भरी नींद में हड़बड़ा कर भोजपुरी में उसे झिड़कने
और डांटने लगा। बीरबल ने अगले ही दिन बादशाह को
सही बता दिया कि उनका मेहमान भारत के पूर्वीय क्षेत्र से हैं
और भोजपुरी उसकी मातृभाषा है।
कहते हैं दूरियां प्रेम को और भी
गाढ्य और सघन करती हैं। शायद यही वजह है कि भारत
में जहां हिन्दी के प्रति पढ़े लिखे समुदाय और महानगरियों
में एक उदासीनता आ रही हैं, विदेशों में बसे भारतीयों के
मन में हिन्दी के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा है। विश्व
हिन्दी दिवस आज भारत के बाहर भारतीयता के मेले का स्वरूप लेता
जा रहा है और हर व्यक्ति चाहे वह भारत से बाहर हो या भारत
में, इसमें सम्मिलित होकर गौरवान्वित महसूस करने लगा
है यह बात दूसरी है कि प्रायः ऐसी जगहों तक आम
जनता की पहुंच नहीं हो पाती। उन्हें बस चन्द खबरों और
तस्वीरों से आधीअधूरी और नियंत्रित जानकारी ही मिल पाती
है। और जिन तक यह बात पहुंचनी चाहिए, वही वहां तक
नहीं पहुंच पाते . . . जुड़ नहीं पाते। शायद यही वजह
है कि हिन्दी और भारत का जितना विदेशों में प्रचार प्रसार
हमारी फिल्मों से हुआ है और किसी माध्यम से नहीं।
भारतीय दूरदर्शन और भारतीय भाषा की दूसरी चैनेल्स का
विदेशों में प्रसारण इस आन्दोलन का पहला और मुख्य औजार
है। क्योंकि यह घरघर तक पहुंचा और आम आदमी की पकड़
में था। और अब वेब पर कई अच्छी साइट्स की उपलब्धि
शायद इस रूचि में एक परिष्कृत संशोधन ला पाएगी, क्योंकि
आज कई अच्छी और हर रूचि की हिन्दी भाषा की पत्रिकाएं और अखबार
नेट पर उपलब्ध हैं। नन्हीं बढ़ती विदेशी हिन्दी का एक दूसरा
सही और सफल कदम।
कहते हैं कि हिन्दी विश्व में
बोली जाने वाली तीसरी या चौथी प्रमुख भाषा है।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो यह सबसे अधिक परिष्कृत और
सरल भाषा है। जहां कर्ता की जिम्मेदारी पहले आती है कर्म
की बाद में (कर्ता ने, कर्म को, कारण से आदिआदि हम सभी
ने सीखा ही होगा)। कर्म के बारे में क्रिया से पहले
सोचा जाता है। क्रिया के बाद कर्म के बारे में सोचने
का कोई अर्थ नहीं हैं। हमारी वाक्य संरचना और व्याकरण
हमारे ऋषि मुनियों के विचारों की तरह ही परिपक्व और परिष्कृत
हैं। हम कहते हैं कि हमने आम खाया
. . . खाने के पहले
जानते हैं क्या खा रहे हैं और इंग्लिश में कहते हैं कि आई एट
मैन्गो . . . यानि कि खा पहले लिया बाद में
सोचासमझा कि क्या खाया।
हमारी भाषा में हर ध्वनि के लिए
अलग स्वर व व्यंजन हैं। अकेली भाषा है हमारी जिसमें
जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है . . . कहीं कुछ
भी दबाढका या विलुप्त नहीं हैं। किसी भी अक्षर के दो
उदाहरण नहीं हैं, कोई एक मात्रा दो विभिन्न उच्चारणों के लिए
इस्तेमाल नहीं की जाती। हमारी इस सहजता को विभिन्न
भाषाओं के भाषाविदों ने भी समझ लिया है और
अंग्रेजी जैसी भाषाएं भी अब प्रारंभिक कक्षाओं में इसी
ध्वनि माध्यम से पढ़ाई जाती हैं। फिर क्या वजह है कि हम
भारतीय ही एकमत हो अपनी भाषा का सही मूल्यांकन नहीं कर पा
रहे . . . इसे इसका सही आदर और स्थान नहीं दे पा रहे
. . . क्या इसकी वजह हमारी कोरी भौतिकता और व्यवहारिकता ही नहीं
. . . क्यों हम अपने बच्चों को (और खुदको भी) हॅलो की
जगह नमस्ते कहना नहीं सिखा पा रहे क्यों हम भूलते जा
रहे हैं कि हॅलो की तरह नमस्ते बस एक औपचारिक सत्कार का शब्द
मात्र ही नहीं, बल्कि इसके सहारे हम सामने वाले के ईश्वरीय
और सात्विक तत्व का नमन व आवाहन करते हैं। अपने अन्दर
जो अच्छा और सच्चा है विनम्र भाव से आगन्तुक से जोड़ते
हैं। जब हमारे पास शब्दों और प्रथाओं का इतना सशक्त
भंडार हैं तो क्यों मेहमानों को बस एक हॅलो से घर में,
अपने बगल में बिठाया जाए?
हमारी भाषा या संस्कृति
कमजोर नहीं बस सैंकड़ों साल की पराधीनता ने हमारी
मानसिकता को गुलाम बना दिया है
. . . हमें गुमराह कर
अपनी भाषा और संस्कृति से दूर कर दिया है। देर नहीं हुई
है। कहते हैं जब जागो तभी सवेरा होता है और एक कर्मठ
व जागरूक व्यक्ति ही सुनहरे भविष्य के सपने देखने का
अधिकारी है। इसी संदर्भ को एक तड़प और तीव्रता से
समझती है अनिल जी की यह कविता
. . . सब देखती सुनती और
समझती सी . . . कुछ बुनियादी सवाल उठाती . . . जवाब देती सी
. . . सोचने को मजबूर करती सी।
अभिभावक और अध्यापक दोनों को ही समझना पड़ेगा कि आंख
बन्द कर लेने या मुंह फेर लेने से जिम्मेदारियां खत्म नहीं
हो जाती . . . समस्याएं गायब नहीं हो जाती . . .
'भटका हुआ भविष्य
जब उसने मुझे हिन्दी बोलते हुए सुना
तो
उसने अपने मित्र से कहा
my grandfather used to speak in this language
उसके लिए मैं संग्रहालय की वस्तु की तरह विचित्र था
जैसे दीवार पर टंगा हुआ चित्र था
जिसे हार तो पहनाय जा सकता है
पर गले नहीं लगाया जा सकता . . .
पर उसे यहां तक कौन लाया
किसने उसे अपनी मां का
नाम और पता नहीं बताया
अगर वो
अपनी भाषा और संस्कृति नहीं जानेगा
तो मां को मां
और पिता को पिता नहीं मानेगा
. . .
उसमें अभी भी कुछ ऐसा है जो खौलता है
तुतलाता ही सही
अपनी भाषा तो बोलता है
. . .
वो अश्वमेध का घोड़ा है
जो दुनिया तो जीत जाएगा
पर जीतने के बाद
क्या घर लौट के आएगा . . .
वो सुरंग के मुहाने पर है
उसे आवाज दो
वो आएगा अवश्य
क्योंकि वही तो है
अपना भटका हुआ भविष्य।'
इस दिशा में अब प्रवासियों
में भी जागरूकता बढ़ रही है। पहले जब यह अस्तित्व की
लड़ाई लड़ रहे थे तो इनके पास समय और सामर्थ दोनों ही
नहीं थे कि इन विषयों पर सोच पाएं पर आज भाषा व
संस्कृति को बचाए रखने के लिए नएनए प्रयास हो रहे हैं।
लोगों ने थमकर सही दिशा में देखना ओर संभावनाओं को
टटोलना शुरू कर दिया है।
यहां ब्रिटेन में हर उम्र वे
प्रत्याशियों के लिए हिन्दी भाषा की एक ज्ञान प्रतियोगिता का
आयोजन किया जा रहा है जिससे कि यहां पर पैदा हुई पीढ़ी भी
इसका नाम सुन सके इसके बारे में कुछ जान सके।
इसमें पहली बार बच्चों और शिक्षकों को भी पूरी तरह से
साथ लिया गया है वरना यह चौकी भी महन्तों और पहुंच
वालों ने ही संभाली हुई थी। विभिन्न संस्थाएं और
लोगों द्वारा चन्द विजयी बच्चे भारत भी भेजे जा रहे हैं
जहां पर उन्हें न सिर्फ पर्यटन का मौका मिलेगा अपितु दुरदर्शन
और दूरभाष पर साक्षात्कार एवं भारत की चन्द जानीमानी
विशिष्ट विभूतियों से मिलने का सुअवसर भी मिलेगा
इन्हें। इस आयोजन में स्थानीय भारतीय दूतावास के
हिन्दी अधिकारी श्री अनिल शर्मा जी का विशेष हाथ है और यह
उनके मिलनसार व सुनियोजित व्यक्तित्व का ही असर है कि हर
हिन्दी प्रेमी सहर्ष इस आयोजन से जुड़ गया है और इसी हफ्ते
यह प्रतियोगिता न सिर्फ लंडन में बल्कि दक्षिण से लेकर उत्तर
तक ब्रिटानिया के कई प्रमुख शहरों में हो रही हैं। मंदिर
हो या शिक्षणसंस्थानविद्यार्थी दोतीन हों या
दसबीस . . . सभी आमंत्रित हैं। यही नहीं शिक्षक
और संस्थाओं को पाठयसामग्री मंगाकर दी गई है और
अड़चनों और समस्याओं को भी सुना व समझा गया है।
इसी मेलमिलाप और खुलेपन
के मौसम में भारत ने भी अपनी आंतरिक कठिनाइयों को
भूलकर, 9 से 11 जनवरी तक प्रवासी भारतीय दिवस मनाने का
निश्चय किया है जहां भारतीय मूल के लोगों को विभिन्न
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा देश द्वारा दी गई व्यापार व अन्य
आर्थिक सुविधाओं के बारे में भी जानकारी दी जाएगी।
आप सोच रहे होंगे कि 9 जनवरी ही क्यों, तो शायद आपको
याद हो यही तारीख थी जब गान्धी जी साउथअफ्रीका से लौटकर
भारत वापस आए थे। अगर भारतीय और प्रवासी भारतियों
का यही मिलनेजुलने और आपसी लेनदेन व वार्तालाप
का सिलसिला चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हम भारतीय
न सिर्फ अपनी भारतीयता पर गर्व करेंगे बल्कि विश्व भी हमारी
बहुमुखी उन्नति को सम्मान के साथ देखेगा।
अभी हाल ही में भारत से निकली
एक नयी पत्रिका अक्षरम् संगोष्ठी पढ़ने का अवसर मिला।
पत्रिका की सामग्री में जोश और संवेदना दोनों दिखाई दी।
सामग्री पठनीय और विचारणीय दोनों ही है।
साहित्यजगत को यह सुन्दर उपहार देने के लिए सम्पादक श्री
नरेश शांडिल्य जी और उनकी समस्त मंडली बधाई की पात्र है।
यदि पत्रिका का यही कलेवर रहा तो निश्चय ही यह साहित्य में
अपना एक विशिष्ट स्थान बनाएगी। श्री सितेश आलोक जी की
लघुकथाएं विशेषतः भावोत्तेजक व सुन्दर हैं
. . . तारीफ सुनकर, सहज और गरिमामय व्यक्तित्व के सितेश जी
ने बड़ी सहजता से बस यही कहा कि चयन सारा तो नरेश जी
का ही है।
प्रतिभा या लगन, किसी भी चीज
की तो कमी नहीं हमारे यहां . . . काश हमें भी बस अपने
स्वार्थ के संकीर्ण दायरों से बाहर निकलना आ जाए . . .
मैं का ही नहीं, तुम शब्द का भी प्रयोग करना आ जाए . .
.
नवम्बर 2002
|