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परिक्रमा लंदन पाती

चलते–चलते –– शब्द चित्र         —शैल अग्रवाल

फेद सुरमई बादलों के कालीन पर जहाज घर की तरफ वापस दौड़ रहा है पर यह उड़ता मन बार–बार पीछे की ओर ही लपका जा रहा है। झरने सी चंचल, चिड़ियों सी मुखरित और नदी सी बहती पिछले चन्द दिनों की अनगिनित यादें बिखरी पड़ी हैं चारों तरफ। कहीं कुछ छूट न जाए आहिस्ता–आहिस्ता सब सम्भाल और समेट लेना चाहती हूं। कितना संभव है नहीं जानती क्योंकि यह तो बिल्कुल उस पैरिस के डिस्नी लैंड की इंडियाना जोन्स नाम की राइड सी ही कठिन बात है। 


उस राइड में भी बिठाया तो सीधे ही जाता है पर हम उलटे चलते हैं। तेजी से घूमते चक्कर खाते हम इसमें गुरूत्वाकर्षण और दीन–दुनिया सभी भूल जाते हैं। समय और दिशा तक ध्यान नहीं रहते। पीछे की तरफ झुकते हैं तो आगे को गिरते हैं और आगे झुककर संतुलित होने का प्रयास करते हैं तो पीछे लुढ़क जाते हैं। पर मजा यह है कि एक अजीब आह्लादित भय से रोमांचित हम कितनी ही कसमें क्यों न खाएं कि अब ऐसी हिम्मत कभी नहीं करेंगे, अगले ही पल बच्चों सी ललक लिए फिर एक और नयी राइड पर जा बैठते हैं –– तेजी से उलटे–सीधे घूमते। अब ऐसी मनःस्थिति में शब्द चित्रण कितना स्पष्ट होगा इसका फैसला आपको खुद ही करना पड़ेगा। स्पेश माउन्टेन पर बैठे इन चीखते चिल्लते – सीटी बजाते लोगों के हुजूम में बैठकर यह नहीं सोचा जाता कि हम यहां पर क्या कर रहे हैं –– यह उम्र तो नहीं यह सब करने की। जब चारों तरफ बहता खुशी और आवेग का रेला इतना जबर्दस्त हो तो क्या फर्क पड़ता है उम्र पांच की है या पचपन की। चलिए डूबते हैं फिर उन्हीं पलों में।

सोच रही हूं कहां से शुरू करें चार हफ्तों की यह इन्द्र–धनुषी यात्रा? चलिए बरमिंघम से ही क्यों नहीं। यहीं से तो पिछले महीने मेरे लिए यह रोमांचक रोलर कोस्टर राइड शुरू हुई थी। 25 सितंबर की एक आम सी शाम थी वह पर एक विशिष्ट बहुभाषीय कवि–सम्मेलन का आयोजन। श्रोता कवि सब पूरा ध्यान लगाकर गंभीर मुद्रा बनाए बैठे थे स्थानीय आर्यसमाज के हॉल में। विशिष्ट इसलिए कि जितने लोग उतनी ही भाषाएं और संस्थाएं। और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण और विशिष्ट लोग। भले ही काव्यपाठ समझ पाना आई•ए•एस के इम्तहान से कम न हो पर कवियों के चुटकुले सबको अच्छी तरह से समझ में आ रहे थे और तालियां भी बज रही थीं। माहौल को सरस व रोचक बनाए रखने के लिए मंच ही क्या, परिसर से भी प्रस्फुटित कवियों को आमंत्रित कर लिया गया।

माहौल का विदेशीपन देख जोगी जी तुरंत 'जोजी जी' बन गए और कान्हा से सांठगांठ कर कलयुगी द्रौपदी की जीन्स बढ़ाने का प्रोग्राम बनाने लगे। अब भारतीयता को संरक्षित रखने के लिए चन्द शेखपियारा को शेक्सपियर बना कर स्टेज पर पहुंचाना जरूरी था क्योंकि सरोजनी प्रीतम जी को अपने सभी फैन बस एग्जौस्ट फैन ही नज़र आ रहे थे। संचालक जी झटसे कविराज गंभीर जी को मंच पर ले आए वैसे यह बात दूसरी है कि परिचय देते–देते बेचारे थककर खुद भी अति गंभीर हो गए। बोले – 'इनकी कविताएं इतनी गंभीर होती हैं कि गंभीरता का बोझ उठाते उठाते शब्दतक लड़खड़ा जाते हैं।' और इस गंभीरता के गंभीर डोज से घबराए श्रोता दरवाजे ढूंढ़ते नजर आने लगे। मंच पर खड़ी कवियत्रीजी गाती रहीं 'इससे पहले कि मेरे मन में मलाल आ जाए शायद तुम्हें मेरा खयाल आ जाए।' संचालक जी ने झटसे भारत से पधारी सुन्दर और सुरीली सुमन दूबे को आमंत्रित कर दिया – 'मन में जगह दो तो में तुम्हारा गांव बन जाऊं।' पर श्रोताओं को अब न किसी छांव की जरूरत थी और ना ही किसी गांव की। संचालक जी ने सोचा दूबे तो आखिर दूबे ही ठहरे, चौबे को बुलाकर देखते हैं। मधु चतुर्वेदी को बुलाया गया। उन्होंने अपनी दबंग आवाज में समझाया – 'आजकल किसको यहां फुरसत हैं मनाने की। जा पछताएगा रूठकर जाने वाले।'

श्रोता ऐसा दौड़े कि सीधे लंडन जाकर ही रूके जहां पर उनके लिए एक और कवि सम्मेलन चल रहा था। एक बार फिर जोगी जी लालू यादव और राबड़ी देवी के साथ 'छैंया–छैंया' कर रहे थे। आलम फिर वही मौज–मस्ती का था और चारा–प्रकरण के रस में पूरी तरह से डूबा हुआ। सांस्कृतिक सेवा के लिए सम्मानित रवि शर्मा जी जर्मनी से आने का किराया पाने की आस में थे और आयोजकों की तरफ से श्री पद्मेशजी हॉल का किराया लेने की फिराक में थे। श्रोताओं में बैठे सतेन्द्र भाई पूरी बनारसी मौज में थे। तबियत से हूट करने का इरादा लेकर बैठे थे पर अनिल भाई ने समझाया कि बड़े भाई ऐसा मत करिएगा पहले हम और शैलजी अपनी कविता तो सुना लें।

मंच ने अब भांग की गोली सटक ली थी। कवि और संचालक सब एक–दूसरे के जीजा–साले बने छेड़छाड़ पर उतर आए थे। चुटकियों का दौर पूरी मस्ती पर था और कभी न हंसने की कसम खाए बैठे लोग भी मुस्कुरा रहे थें। मौके का फायदा उठाते हुए अगले दो हफ्तों में ही बरमिंघम और मैनचेस्टर में दो और हास्य कवि–सम्मेलनों का आयोजन हो गया राजनीतिक परिपक्ष के साथ–साथ। विश्वास है कि सरोजनी प्रीतम जी ने अपनी लड्डुओं वाली कविता अवश्य ही सुनाई होगी क्योंकि दोनों ही जगह मुख्य अतिथि थे स्वयं वरिष्ठ कवि विधायक श्री केसरीनाथ त्रिपाठी जी। पर चलिए हम इस मिठाई की थालभरी छेड़छाड़ को छोड़कर दो खूबसूरत नदियों के किनारे सैर पर चलते हैं।

लगता है दुनिया के सभी खूबसूरत और आकर्षक शहर किसी न किसी नदी के किनारे ही बसे हुए हैं चाहे वह लंडन हो या वैनिस – या फिर अपनी वाराणसी ही। ऐसे ही दो खूबसूरत शहर पैरिस और बुदापेस्ट, घूमने और देखने का और फिर भीनी–भीनी यादों में आपके साथ मिलकर भीगने का (बुडापेस्ट में आजकल बरसात का मौसम है) मुझे यह सौभाग्य मिला। डैनबू नदी के किनारे बसा बुडापेस्ट दो हिस्सों में बटा हुआ है — पहाड़ी वाला बुडा और व्यापारिक हब पेस्ट। 1778 के आसपास इन्हें एक खूबसूरत पुल से जोड़कर आजका बुडापेस्ट बना दिया गया था। पुल के दोनों तरफ चार भव्य शेर दोनों हिस्सों की रक्षा करते हैं। 

किसी परियों की कहानी वाली किताब सा आकर्षक और रोमांचक यह शहर आधुनिक तो है पर आज भी पूरी तरह से अपने सभी मध्यकालीन दुर्ग और राजमहलों को संजोए समेटे हैं। ध्यान से आंख बन्द करके देखो तो इसके सुन्दर झरोखों में आज भी परियों की राजकुमारी बैठी दिख जाएगी और अंधेरे कोनों में ड्रैक्यूला और वैम्पायर्स। दूसरे विश्व–युद्ध में पूरी तरह से विध्वंसित यह शहर आज सिर्फ पचास साल में फिर से अपनी पूरी गरिमा के साथ सर उठाए कैसे खड़ा हो गया आश्चर्य होता है। 

निश्चय ही यह यहां के लोगों की जिजीविषा और स्वाभिमान ही नहीं – कड़ी मेहनत और खुद में विश्वास है जिसकी वजह से यह संभव हो पाया। शायद यह दुनिया का अकेला शहर हैं जिसकी चर्च में वहा के पेट्रन सेंट, सेंट स्टीवेन का कटा हुआ हाथ आज भी सुरक्षित और प्रदर्शित है (आपसे कहा था न कि परी और ड्रैक्यूला दोनों का शहर है यह – यानी कि कोमल और वीभत्स दोनों हमेशा बगल–बगल में) यहां का पार्लियामेंट हाउस अपनी सुरूचि, वैभव और कला से चमत्कृत करता है। आर्ट म्यूजियम में स्पैनिश और इटैलियन आर्टिस्टों का दुनिया का सबसे बड़ा और बहुमूल्य संकलन हैं। 

तस्वीरें ऐसी कि देखते–देखते बात करने लग जाएं। मांसलता के रंग इतने सजीव कि चुटकी काटने को मन करता है। इन तस्वीरों में खड़े मासूम बच्चों को खिलौनों और मिठाइयों की तरफ ललचाई नज़र से देखते देख दिल उन्हें सब कुछ दे देना चाहता हैं। फूलों से खुशबू आने लगती हैं और कपड़ों की तहों और सलवटों की कोमलता स्वयं अपने बदन पर महसूस होने लगती हैं। तैलीय पद्धति के चित्रों में आज भी दुनिया इन कलाकारों से काफी कुछ सीख सकती हैं। रम्ब्रांट की जोसेफ्स ड्रीम नामकी तस्वीर में तो ऐसा मन रमा कि पतिदेव को बांह खींचकर जगाना पड़ा। गोया, मुलर, आमरीनी सब एक से एक बढ़कर। कितने ऐसे जिनका शायद हमने नाम भी न सुना हो पर अपने काम में उतने ही माहिर और अभिव्यक्ति में दक्ष।

अगले दिन फिशर कासल की कई घुमावदार सीढ़ियों से चढ़कर जब ऊपर पहुंची तो फिरसे वही एक रोमांटिक जिप्सी गांव जैसा ही माहौल था। कहीं कोई तस्वीरें बना रहा था तो कहीं औरतें बहुत बारीक और खूबसूरत लेस से बनी चीजें बेच रही थीं। यहां तक कि बचपन में बारबार देखे और खेले उस दाने चुगते तीन मुर्गे वाले लकड़ी के सुन्दर और रंग–बिरंगे खिलौने को देखकर लगा कि कहीं अपने जाने पहचाने देश में हैं। विश्वास हो चला कि यह लोग भी जरूर पहले कभी शायद आठवीं शताब्दी में एशिया के उन्हीं हिस्सों से आए थे जहां से हम आप हैं। हमारे पूर्वज हैं। 

कासल के उत्तरी हिस्से से आती, हवा में गूंजती, वह वॉयलिन पर बजती मधुर धुन की स्वर लहरी एक अदृश्य डोर सी अपनी तरफ खींचे जा रही थी। अकेली चुपचाप बैठी मैं घूमना–फिरना सब भूल, एक के बाद एक वे सुरीली धुनें सुनती और पिघलती गई। वह भी अपनी धुन में मस्त बजाता रहा बिना इसकी परवाह किए कि कोई सुन भी रहा है या नहीं। सारी थकान और भूख रफू–चक्कर थे और मचलती थिरकती धुनें बारबार राजकपूर की फिल्में और दिवंगत शंकर जयकिशन की यादें दिला रही थीं। पता नहीं किसका किसपर असर था पर मन एक नयी आत्मीयता से भर चुका था। 

मेरी तल्लीनता देख उसने खुद मुस्कुराकर बताया कि 'हमारा संगीत बहुत कुछ तुम्हारे भारतीय संगीत की तरह ही हैं।' और मैं अब हर हंगेरियन को ध्यान से देखने लगी। शायद यह भी कभी हमारी तरह ही थे। इनके सोचने का तरीका तो जरूर हमारी तरह ही था। वही दुख से जुड़े रहने की एक मजबूर सी आदत। वही संघर्षरत् जीवन – वही झूठी शान में डूबे रहना – वरना गाइड चर्च घुमाते हुए कुछ यूं न कहती कि पेगन धर्म के पिछड़ेपन से निकलने में हमें भी कई सौ साल लग गए। शायद अब यह भी यूरोपियन कम्यूनिटी में जुड़ने का बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं। पाश्चात्य भौतिक विकास से यह भी तुरंत ही जुड़ जाना चाहते हैं। पुर्तगाल और ग्रीस की आर्थिक समृद्धि की मिसाल हर पल इनकी आंखों के सामने हैं। पर आगे बढ़ने की धुन में उम्मीद हैं यह अपनी संस्कृति और कला नहीं भूलेंगे क्योंकि मुझे बहुत सारा जो इनके देश में सुन्दर और आकर्षक लगा पुराना और अतीत से जुड़ा हुआ ही था। इन्होंने आज भी अपना अच्छा बुरा सब संजो रखा हैं। 

कुछ एक खुले घाव से अपने अपमान हार के निशान भी छोड़ रखे हैं, जिससे कि सुखमय वर्तमान संघर्षमय अतीत का आभारी रह पाए। सजी संवरी इमारतों के बीच आज भी एक इमारत यूं हीं गोलियों से बिंधी टूटी–फूटी खड़ी दिखाई दी। उसकी किसी ने मरम्मत नहीं की। किसी ने सजाया संवारा नहीं, जिससे कि याद रख सकें कि इनके साथ क्या–क्या बीती थी। शायद हमारी तरह इन पौलीएशियन लोगों के लिए भी इनका अतीत और इतिहास अपनी सारी जिल्लत और दर्द के साथ भी एक गौरव का ही विषय है। क्योंकि काले और घुप अंधेरों से निकलकर यह भी हमारी तरह ही एक समृद्ध और सुखी सदी और भविष्य का सपना देखने वाले लोग हैं ––

पर सैन नदी के किनारे बसा खूबसूरत पैरिस शहर सपने देखता नहीं, सपने जीता है। वैभव और रूचि–परिष्कृता में दुनिया में अग्रणी माने जाने वाले इस शहर में करीब–करीब सब कुछ सुन्दर और संचनीय हैं। लगता है जैसे सब कुछ है इनके पास – रूचि, धन–दौलत और बहुत सारा आत्मविश्वास – सभी कुछ। ये जो भी सपना देखते हैं करीब–करीब सच कर लेना जानते हैं। इनके डिस्नी वर्ड में काल्पनिक के साथ सचमुच की परियां और राजकुमार भी घूमते दिख जाते हैं। टेम्स के किनारे बसे लंडन में जहां एक कौलोनियल शान और ठहराव हैं। पैरिस में एक चंचल सुन्दरी सा खुलापन और ताजगी हैं। अंगूर सा रस और पकी वाइन का सा उन्माद है यहां पर। तस्वीरों से सुन्दर चेहरे सीधे किसी कैटवॉक से आए नजर आते हैं और उसी नजाकत से बगल से निकल भी जाते हैं – शैनेल और रिवेगौश की खुशबू में मन को संग–संग लपेटे हुए।

वैसे भी यह स्कार्फ और हैटों का शहर हैं। बांधे रखना इन्हें भी अच्छी तरह से आता हैं। साड़ी की तरह इस छोटे से टुकड़े में भी बहुत जादू हैं। एक से एक प्लेन जेन को मिनटों में ही मडोना बना सकता है यह। रूप और यौवन दोनों के ही प्रदर्शन में यहां किसी को कोई झिझक नहीं फिर वह किसी शो की कैन–कैन डान्सर हों या फिर शॉजेलिजां में शॉपिंग करती आधुनिक युवतियां। और तारीफ यह हैं कि इस प्रदर्शन में भी न जाने क्यों एक सुरूचि और कला ही नजर आती हैं, नग्न भोंडापन नहीं। कई बार तो एक सादे पंख या पत्ते से ही बड़े कलात्मक रूप से ये अपने को संवार भी लेती हैं और ढक भी। मंत्र–मुग्ध सा देखने वाला बस देखता ही रह जाता हैं। और यहां के युवा व प्रौढ़ दोनों ही अश्लीलता और फोंडेपन के आरोप से बचे इतराते, मस्ती बिखेरते घूमते रहते हैं। 

कला प्रेमियों के लिए तो यह शहर किसी भी खजाने से कम नहीं। मोनालिसा की मुस्कान के जादू से भला कौन बच पाया हैं। सड़कों और नावों में घूमते हुए भी आपको एक से एक सुन्दर मूर्तियां और कलाकारी के नमूने पुलों के नीचे खम्बों पर चारो तरफ दिख जाएंगे। नदी किनारें घूमते तो ऐसा लगता है मानो आप सड़कपर नहीं किसी म्यूजियम के अन्दर घूम रहे हैं। ग्रीक और रोमन असर बहुत ही स्पष्ट हैं। इन सुन्दर कलाकृतियों के बीच ब्रिटिश बुलडाग श्रीमान चर्चिल जी को खड़े देख एक सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि नीचे लिखा था फ्रांस इनका आभारी हैं और साथ में थे उनके वे प्रेरणादायक शब्द 'हम कभी भी आत्म–समर्पण नहीं करेंगे।' उनके चरित्र की यह वफादारी और दृढ़ता ही थी जिसकी वजह से यहां के लोगों ने उन्हें यह बुलडॉग की उपाधि दी थी। 

एफिल टॉवर पर चढ़ते ही शहर का जो दृश्य मन मोहता हैं वह हैं इनका प्रकृति–प्रेम और हरे–भरे लॉन और उंची–उंची अटखेलियां लेते फव्वारें। असलियत में पूरा पेरिस ही प्रेमियों और कलाकारों का एक नाजुक और जीवंत शहर लगता है। रात के ग्यारह बज चुके हैं और जगमग नियॉन लाइट्स के बीच अपने महंगे होटल के रेस्टोरंट में बैठी देख रहीं हूं परीशियन्स और टूरिस्ट दोनों ही अपने गर्म और मुलायम बिस्तरों में जाने से पहले, भरे पेट का जायका बदल रहे हैं और वह एक परछांई सा खड़ा चुपचाप लोगों की बची झूठन में से अपने खाने लायक सामान बीने जा रहा हैं। काउन्टर से ढेर सारे टिशू नैपकिन्स भी उठा लिए हैं अब रात के खाने और सोने दोनों का ही इन्तजाम करना हैं उसे। इस भव्य इमारतों के शहर में भी हजारों लोग स्टेशन और पुलों के नीचे सोते दिख जाते हैं। हर महानगरी की तरह यहां भी सड़क पर सोने वालों की कमी नहीं पर फरक बस इतना है कि इनमें से कई के बगल में गिटार या पेन्ट ब्रश दिख जाएंगे –– रोल्ड स्केचेज दिख जाएंगे और हर देश की तरह यहां भी किसी को ये दिखाई नहीं देते। आर्टिस्ट बनकर जीना शायद कहीं भी और कभी भी आसान नहीं –– ।

सितम्बर 2002

 
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