पन्ने सी चमकती यह हरियाली पर आज इतनी सूनी और उदास क्यों लग रही हैं? खेतों पर खिलौनों की तरह आराम से बैठे वे सैंकड़ों भेड़ और मेमने कहाँ खो गए अब एक भी नजर क्यों नहीं आता? मूक पशुओं के संग क्या बीती याद करके ही मन उदास हो चला
है और अचानक इस खुले नीले आसमान का रंग खूनसा लाल हो जाता है बेचैन और असह्य।
सैंकड़ोंहजारों भेड़, गाय, मेमने जो कभी इन खेतों और मैदानों में चुपचाप बैठे रहते थे, जिन्हें गिनते देखते, 'आई स्पाई विथ माई लिटल आई' खेलते कार के अंदर
बच्चे घंटों का सफर हँसहँस कर मिनटों में गुजार देते थे अब यहाँ नहीं हैं। अपनी इस व्यग्र और बेचैन अनुभूति में लगा कि उन कटे सरों से आकाश पट गया है
हडि्डयों का ढेर लटक रहा है खून टपक रहा है। और वे निरीह मृत आखें ठठाकर हँस रही हैं इस समाज पर, सभ्य समाज की प्रगतिशील इक्कीसवीं सदी
पर। 'हमें इस तरह से अकाल मृत्यु देकर भी क्या तुम खुद को, अपनी स्वार्थी मानवता को बचा पाओगे? इस स्वार्थ और हिंसा से, इन कुप्रवृत्तियों से या फिर एक
दूसरे पर आक्रमण करने की इस अमानवीय प्रवृत्ति से तुम कभी बच नहीं सकते? हमारी तरह तुम्हारी मौत भी निश्चित ही है सीजेडी से न सही तो एड्स से।
तुम्हारी यह असहिष्णुता, दूसरों के दुख की पूर्ण अवहेलना ही, देखना एक दिन तुम्हें और तुम्हारे समाज को ले डूबेगी।' और एक बार फिर उन सामूहिक चिताओं का
धुआँ मन को, आसपास के सबको काला कर गया। मन बोला खुद को समझाओ इंग्लैंड का लैंडस्केप बदल चुका है शायद हमेशा के लिए ही।
पर दूरसुदूर भारत में तो जनजीवन कभी नहीं बदलता
'वही टूटी सड़कें, छकड़े, रिक्शे, पुलिया पर बैठे फुरसतिए,
चबूतरे पर पड़ी ढीली चारपाइयों पर
यूँ ही पड़े ढीले लोग, न जाने किस आस में जी रहे
बूढे़ लोग,
ढोरडँगर, हाथठेले, बैलगाडियाँ, दमादमन, बवासीर के विज्ञापन, भड़भड़ करते टेंपू या पुरानी खटारा बसें ' कितना सही है आज इक्कीसवीं सदी में भी, आजादी
के पचपन साल बाद भी, डॉ ज्ञान चतुर्वेदी के 'बारामासी' उपन्यास से उद्धृत भारत का यह चित्रण। भारत के किसी भी गाँव, किसी शहर पर सही बैठ सकता है।
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इसी महीने की सोलह तारीख को लंदन के नेहरू सेंटर में एक भव्य आयोजन में कथा यूके द्वारा 'अन्तर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान' से सम्मानित किया गया है
इन्हें। अपने इसी उपन्यास के लिए। पर वह इस निष्कर्म ठहराव से संतुष्ट हों, ऐसी बात नहीं, राजीव
गांधी की तरह वह भी भारत को इक्कीसवीं सदी में ले जाना
तो चाहते हैं पर एक सही विकल्प के साथ। उन्हें भी अपने देश की परवाह है। शायद यही वजह है कि उनके तीखे लेखन में
व्यंग्य के साथ करूणा और संवेदना
भी हैं। शायद लोगों के दिल का इलाज करते करते वे उन गरीबों का दुखदर्द भी परख और जान चुके हैं |
चित्र
में बाएं से : नैना शर्मा, विभाकर बख्शी, दीप्ति
शर्मा, ज्ञान चतुर्वेदी, श्री पी सी हलदर, तेजेन्द्र
शर्मा एवं अनिल शर्मा |
(चतुर्वेदी जी एक सफल लेखक के साथसाथ सफल
हृदय रोग विशेषज्ञ भी हैं) जन साधारण का चित्रण इतना सटीक और सजीव करते हैं कि उनके
व्यंग्य अक्सर मन में करूणा ही जगाते हैं।
इक्कीसवीं सदी है प्रगति, तकनीकी विज्ञान और कम्प्यूटर की सदी। इसमें प्रवेश करने का हमारे जननायकों का सपना हैं इसलिए ज्ञान जी अपनी पैनी लेखनी से लिखते हैं,
'राम चल, स्कूल जा, फटी कमीज पहन और बस्ता उठा ' पढ लिखकर फिर उन्हीं झुग्गियों में रह और रिक्शा चला।'
माना कि हर आंकडे़ अपवाद नहीं होते पर इन बिखरे आंकड़ों में कुछ ज्वलंत अपवाद उदाहरण स्वरूप जन्म ले ही लेते हैं हर राम झुग्गियों में ही नहीं रह जाता
कुछ को दुनिया लाल बहादुर शास्त्री और अब्दुल कलाम के नाम से भी जान पाती हैं। आदर और सम्मान देती हैं। और वे न सिर्फ अपनी विषम परिस्थितियों को ही
जीतते हैं वरन् कालजयी बनते हैं वरना चाहे कितना भी कोई कहता शायद किसी गरीब का बच्चा कभी पढ़ने नहीं जा पाता।
नेहरू सेंटर के खचाखच भरे हॉल में ज्ञान जी ने बताया कि आज के इस दुशाला सम्प्रदाय के साहित्यसमाज में जब हर उपाधि और अलंकरण बड़े जोड़तोड़ के बाद
ही मिल पाते हैं। उनके 'बारामासी' के चुने जाने पर उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। सब अविश्वसनीय और चमत्कार सा ही लगा। पर शायद उनके जीवन के सभी
चमत्कार अगस्त के महीने में ही होते आए हैं फिर यह अपवाद कैसे बनता। उनकी बेटी और उनके बेटे के साथ स्वयं उनका, सभीका जन्म अगस्त के महीने की दो
तारीख को ही हुआ है। इतना संजोग है न अचरज की बात। मेरी समझ में तो यार दोस्तों का यह पूछना कि 'यार तुमने यह कैसे मैनेज किया' मजाक कम,
एक सुखद आश्चर्य ज्यादा है। वैसे उनका पूरा व्यक्तित्व ही चमत्कृत करने वाला लगा मुझे सुलझा और संवेदनशील। एक व्यस्त और सफल चिकित्सक होकर
भी इतना अच्छा लिखने के लिए समय निकाल पाना खुद में ही एक बहुत बड़ा चमत्कार है। आयोजन को आयोजित करने वाले तेजेन्द्र शर्मा का व्यक्तित्व भी ऐसा ही
विलक्षण और संवेदनशील है वरना आज के इस समाज में जहाँ रात के साथ बात खतम हो जाती है, वे इस शिद्दत् और ईमानदारी से रिश्तों और यादों को न निभाते।
यह उनका खरा और चुम्बकीय व्यक्तित्व ही है जिसके रहते जो भी जानता हैं साथ हो लेता है। जुड़ जाता है। आत्मीय हो जाता है।
इस बार के विजेता ज्ञानजी को पता नहीं चमत्कारों में विश्वास हैं या नहीं, पर तेजेन्द्र भाई पर लगता है पूरा विश्वास हो चला है क्योंकि एकसी प्रवृत्ति के लोग कहीं न कहीं से तो जुड़ ही जाते
हैं। श्री सूरज प्रकाश जी की तरह वे भी शायद उनके अभिन्न मित्रों की श्रृंखला में जुड़ चुके हैं। इसी समारोह में पाकिस्तानी लेखिका नीलम बशीर के हाथों सूरज
प्रकाश जी के उपन्यास 'देशवीराना' का भी लोकार्पण हुआ जो कि लेखक के अपने शब्दों में घरकी, एक ठहराव की अनन्त तलाश है। 'बारामासी' के प्रकाशित
उद्धरणों से लगता है कि जो अपने भारतीय चरित्रों की, अपनी देश की, देश के तृणमूल समाज और समाज के भृष्ट खोखले आदर्शों की अच्छी पकड़ हैं ज्ञानजी को ;
1 'छदामी ने बरजा कि प्रिंसिपल के घर में पन्द्रह दिन रहते हुए कुछ अंटसंट न करना क्योंकि हर लड़की बिब्बो नहीं होती और बाहरगाँव पिटो तो कोई
बचानेवाला भी नहीं होता। छुट्टन का विचार इससे अलग था। उनका विचार था कि लड़की अच्छी थी और कोशिश करना हर कर्मठ इन्सान का फर्ज बनता है।
साथ ही बाहर गाँव पिट भी जाएं तो विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मूँछ का प्रश्न तो अपने गाँव में उठता है।'
2 'ले लीजिए शरमाइए मत ' , छुट्टन ने समझाइश दीं।
'आप लोगों की हिम्मत कैसे हुई ?' टीटी ईमानदारी के ताप में सन्निपात की स्थिति में पहुँच रहा था।
' हिम्मत की बात न करें आज इतने ही हैं। कम लगते हों तो अगली दफा बाकी चुका देंगे। हम इस लाइन पर चलते ही रहते हैं।
'आपने हमें समझा क्या है?' टीटी हाथपांव पटकने लगा था।
'आप टीटी हैं हमें पता है, हमारे मामाजी भी टीटी थे। भैयन टीटी का नाम सुने हैं कि नहीं?'
'नहीं सुना', टीटी ने चिढ़कर कहा।
'नहीं सुना, तभी को कुछ सीख नहीं पाए। उनकी पूरी जिन्दगी बिना टिकट यात्रा करतेकरवाते निकल गई '
'वो बेईमान होंगे।'
'टीटी होकर बेईमानी से परहेज करेंगे तो रेलवे वाले निकाल बाहर करेंगे।'
'देखिए तमीज से बात करिए।'
'तमीज से ही कर रहे हैं बिना टिकट चल रहे हैं तो स्साला मार डालोगे क्या?' छुट्टन दहाड़ें।
'हमने तो बस ऐसे ही ' टीटी मिमियाया।
'चलती गाड़ी में दरवाजे की तरफ फेंक दिया और कहते हैं कि हमने बस ऐसे ही। पुलिस केस बनता है साहेब ।'
'सुनिए तो '
'घंट सुनिए बेहोश हो गया मेरा भाई न जाने सिर फोड़ दिया भेन या क्या कर दिया '
'देखिए गाली गुफ्तार न करें।'
'तुम गाली पे रो रहे हो? झांसी पे उतरो, जूतों से मारेंगे हम और पुलिस में देंगे, सो अलग।'
'कानून को रखते हैं, इस पे।' लल्ला ने इशारा करके बताया कि वे कानून को किस अंगविशेष पर रखने का संकल्प रखते हैं।
अपने लेखन के बारे में ज्ञान जी ने जो कहा मुझे बेहद सच और सही लगा
'पाठक मेरे लिए हमेशा ही बेहद महत्वपूर्ण रहा है।
लिखते समय मैं लेखक भी होता हूँ और एक अच्छा सजग, सामान्य पाठक भी। मेरे लेखक का रचा, मेरे
अंतर्मन में बैठे पाठक को संतुष्ट करता है तभी मैं भी संतुष्ट हो पाता हूँ।'
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