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परिक्रमा लंदन पाती

 धनक–उजेरा . . .           —शैल अग्रवाल

क्या होता है जब सुगन्ध को प्यास लगती है – ?
हवा के झोकों पे सवार पहुँच ही जाती है वह कोने–कोने, कन–कन, हरमन में रमने–बसने, राज करने के लिए। अपनी बेचैन समग्रता से सबकुछ महकाती–पुलकाती, मन के अछोह आकाश में एक धनक उजियारा करती . . .


यहाँ हम बरमिंघम वासियों के लिए भी ऐसा ही गमकता और प्रेरक दिन आया 23 जून 2002 बनकर। हमें एक नहीं अपितु दो–दो सु–मनों से मिलने का सौभाग्य मिला। दोपहर के दो–तीन बजे का समय और गीतांजली बहुभाषीय समुदाय द्वारा आयोजित गोष्ठी . . . सामने सपत्नी बैठे हुए श्री कन्हैया लाल नन्दनजी . . . और अब कविता हमें खुद समझा रही थी कि कविता क्या होती है? कभी फूल बनकर तो कभी महक . . . कभी इन्द्रधनुष के रंग तो कभी एक अटूट दिग्विजयी चाह जो किसी फिसलन या टूटन से नहीं डरती। 

स्वप्न जैसी ही स्थिति थी वह . . . कभी कुछ पकड़ में आ रहा था . . . तो कभी सब चेतना की पकड़ से फिसलता जा रहा था . . . बस काव्य–रस में डुबोता–भिगोता सा। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में संतुष्ट और पूर्णतः तल्लीन दिख रहा था। हर व्यक्ति पुलकित सा था, रूप की उजास से भी और खुशबू की प्यास से भी . . .

1) – 'रूप को जब उजास लगती है/ जिन्दगी/ आसपास लगती है।
तुमसे मिलने की चाह/ कुछ ऐसे / जैसे खुशबू को प्यास लगती है।'

2) – 'गन्ध गुथी बाँहों का फेरा / जैसे मुस्कान का सबेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी / पूजा का / एक जतन हो गया।'

श्रृंगार–रस में सूफियों जैसे उद्गार – । कोमल, भावभीना समर्पण पर एक तीव्र आँच लिए हुए . . . शायद यही सुकुमार समग्रता थी नन्दन जी के व्यक्तित्व की और काव्य की, जिसने प्रभावित किया . . . वह बस कोमल शब्दों के रचयिता ही नहीं अपने काव्य से जागृति की भी अपेक्षा रखते हैं, वरना नंदन जी आगे कुछ और यूँ न कहते . . .
'पानी पर खींचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें . . .'

हमारे स्थानीय कवि–कवियत्रियों ने भी अपनी कुछ कविताएँ सुनाई . . . मेरे अपने मन को जिन दो कविताओं ने छुआ वह थीं रमा जोशी की चाँद पर लिखी कविता और अनिल शर्मा जी की स्कूल के पहले दिन पर पिता–पुत्र के संवाद रूप में लिखी गई एक बहुत ही सरल और मोहक कविता । पहली कविता ' मेरे हिस्से का चाँद' एक विदेश में बसी महिला की जीवन–यात्रा, . उत्साह और वेदना को चाँद बिम्ब के साथ खूबसूरती और सरलता से उकेरती है।  जब सब कुछ अजनबी, चाँद पीला–धुँधला और ऊँचा। फिर साथ–साथ चलता और अंतमें बस अटका हुआ . . .

'इस देश में/ पहले चाँद कुछ दूर हो गया/ आकाश ऊँचा हो गया/फिर चाँद मेरे साथ–साथ चलने लगा/ 
पुनः अब चाँद आकाश पर जा टिका है/ यह चाँद सिर्फ मेरा नहीं है/ मेरे हिस्से का चाँद/ इसमें घुल–मिल गया है।'
व्यथा और सँवेदना का अच्छा समिश्रण था इस कविता में।

अनिलजी की कविता बाल–सुलभ सरलता से रिश्तों की गहराई में उतर जाती है . . .

'बच्चे ने पूछा/ क्या स्कूल में माँ होगी? नहीं स्कूल में आँटी होगी/ जो तुम्हें माँ से भी ज्यादा प्यार करेगी
कोई भी महिला माँ से ज्यादा प्यार नहीं कर सकती/ इस उम्र में ही जानता था वह ।

कविताओं में डूबते तैरते कब शाम हो गई पता ही नहीं चला और वक्त आ गया जाने का दूसरी सभा की ओर, जहाँ एक विचारोत्तेजक शाम हमारा इन्तजार कर रही थी। वक्ता थे आज के युग के तुलसीदास श्री नरेन्द्र कोहली जी। और हमारा सौभाग्य दोहरा था क्योंकि साथ में श्रीमती मधुरिमा कोहली जी भी थीं। रामायण का सामियिकी संदर्भ में विश्लेषण . . . राम जिन्हें असुरों से लड़ने के लिए बचपन से ही तैयार किया गया था ऋषियों द्वारा . . . काश आजके इस अराजकीय युग में भी राम और लखन, भरत, शत्रुघ्न तैयार हो पाते।

रामायण की विभिन्न घटनाओं का उल्लेख कर उन्होंने समझाया कि समस्याएँ तो सब वही है बल्कि और विद्रूप रूप में ही हैं पर राम ने या उस समाज के राजा, गुरू और अभिभावकों ने कैसे मिलकर उन्हें सुलझाया और समाप्त किया यही गौर करने लायक बात है। रामायण आज भी उतनी ही समकालीन और प्रासंगिक है। आज भी उससे बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है।

आज भी हमारे समाज में चारो तरफ यौन–वृत्तियों से अतृप्त सूर्पणखाएँ घूम रही हैं जो जन–मानस को नित ही भ्रष्ट करती रहती है। रावण है जो दूसरों के घर में छद्म रूप से घुस भोली–भाली औरतों को बहकाते और भटकाते हैं। भाँति–भाँति के अमानवीय आतंकों से पूरा समाज ग्रस्त है। सीमा अतिक्रमण और मर्यादा उल्लंघन आज के इस समाज में बहु व्यापक है। इन्हें हटाना और मारना ही राम–राज्य का उद्देश्य और आधार था और आज भी हर तरह की सुख–समृद्धि के लिए यही उद्देश्य रहना चाहिए। 

श्री नरेन्द्र कोहली जी ने बताया कि यह देशवाद, आतंकवाद और पूँजीवाद सब राक्षसी मनोवृत्तियाँ है जो जीवन तप में विघ्न डालती है। हमें इन्हें हटाने के लिए राम को लाना ही पड़ेगा। निर्बल और असहायों को दुत्कार कर नहीं, वरन् उनका और उनकी मानसिक चेतना का एक सशक्त संघटन कर। इस असहाय और निर्बल वानर–सेना को साथ लेकर ही दुष्ट संहार संभव है। आजके राजा(शासन) गुरू (समाज का जागरूक वर्ग) सभी का यही कर्तव्य है।

'हरि अनंत, हरि कथा अनंता' की ही तरह कुछ ने बातको समझा, कुछने अपनी विद्वता दिखाने का अच्छा मौका पाया और कुछ पुरूष–प्रधान समाज से त्रसित नारियों ने सीता को लेकर राम को फिर से कटघरे में खड़ा कर दिया। राम के सीता के प्रति कठोर व्यवहार पर जोशीला असंतोष जताया तो कुछ श्रद्धालु बस हाथ जोड़े, भक्ति–भाव से आरती गाकर, प्रसाद लेकर, घर वापस चले गए। पर एक प्रश्न जिसने मुझे बचपन से ही त्रस्त किया था, उस दिन भी मेरे लिए अनुत्तरित ही रह गया . . . क्यों भगवान श्री राम . . . मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने बाली और सुग्रीव की लड़ाई के दूसरे दिन पेड़ के पीछे से छुपकर बाली को मारा? क्यों एक शीलवान और तेजस्वी ने यह छद्म–कर्म अपनाया . . .?

क्या वह पराजित, भाई द्वारा त्रसित और अपमानित मित्र का आत्मबल नहीं तोड़ना चाहते थे, या फिर तुलसी दास यह कहना चाहते थे कि बच्चों जैसे सरल स्पष्ट और दूध के धुले रहोगे तो यह दुनिया छलेगी ही चाहे वह सुग्रीव हो या राम . . . शायद थोड़ा सा कलुष भी जरूरी है फिर वह भगवान हो या मानव। तभी तो हम इस काली दुनिया के काले दाव–पेंचों के आगे टिक पाएँगे। तभी शायद कृष्ण और राम दोनों ही श्याम वर्ण में ही आए थे। तभी शायद श्री कोहली जी ने मुझसे कहा कि आप इसे बस प्रभु की लीला समझकर भूल जाइए . . . लीला यानी कि सांसारिक और मायावी चित्रण। तभी शायद तुलसी दास ने अपनी कथा का नाम राम–कथा या रामायण नहीं रखा, रामचरित् मानस रखा . . . मानस और चरित्र की कथा। क्योंकि वे चाहते थे कि हम सीखें राम के चरित्र से भी और उनके सोचने के तरीके से भी . . . उनके मानस में प्रवेश करके अपनी–अपनी समस्याओं के अपने–अपने हल ही ढूँढ़ने हैं हमें . . .

'प्रवसि नगर कीजै सबकाजा/ हृदय राखि कौशलपुर राजा।' 
और हनुमान जी की तरह सफलता भी हमें शायद तभी मिल पाएगी जब हमारी निष्ठा और चेतना दोनों ही आत्म–विश्वास की ऊर्जा पर खड़ी होंगी।

तीसरी शाम जो आज भी यादों की धूप से दीप्त है कथा–सचिव भाई तेजेन्द्र शर्मा जी के आग्रह और आयोजन पर सात जुलाई को वेम्बली में आई। श्री शोभनाथ यादव जी की उपस्थिति से वातावरण नदी–सा निश्चल व नम था . . . चट्टानों को भी नेस्तनाबूद करने का संकल्प लिए यह माटी–पूत सभाको गरिमा प्रदान कर रहा था और उनके सभापतित्व में कथा लंदन द्वारा आयोजित यह गोष्ठी कई सितारों से झिलमिला रही थी . . .

चारो वेदों की ऋचाओं से प्रखरित और विमल वातावरण में इन्दौर से पधारे साधुजनों का अप्रत्याशित आशीर्वाद लेने
कथा गोष्ठी में लेखिकाएं : बाएं से दूसरी सुषम बेदी और बिलकुल दाएं शैल अग्रवाल

का जो सौभाग्य उस दिन हमें मिला वह भी अपने आप में अद्भुत्–सा ही था। तदोपरान्त कथा–लंदन की प्रथा के अनुसार दो कहानियों का पाठ हुआ और दोनों कहानियाँ लेखिकाओं सुषम बेदी और शैल अग्रवाल ने स्वयं ही पढ़ीं। पहली कहानी 'आम–आदमी' थी और दूसरी 'अवशेष'। दोनों ही कहानियों को भरपूर सराहा गया क्योंकि दोनों ही कहानियाँ मानवता और समाज के प्रति कुछ बुनियादी सवाल उठाती है। 

पहली कहानी आम–आदमी की कहानी है। सड़क किनारे घायल मरते आदमी को देख सहृदय शिवानी का मन ग्लानि और दुख से गंगा सा पीला और मटमैला हो चुका है और वह अब अपने ही कच्चे किनारों में उफन व रिस रही है। चाहकर भी उस घायल की कोई मदद नहीं कर पा रही क्योंकि पहले कभी एकबार ऐसे ही किसी घायल की मदद करने से उसका पूरा परिवार मुसीबत में फँस चुका है . . . भ्रमित शिवानी अब पूछना चाहती है पाठकों और समाज दोनों से ही कि ऐसा क्या है हमारे समाज में, जो मानवता को, उसके आधार मूल्यों को ही तोड़ डालता है और न चाहते हुए भी हर आदमी बस एक आम–आदमी बनकर ही रह जाता है . . . जानना चाहती है वह कि कैसे जिन्दा रहते हुए भी हम इन मानवीय तत्वों को बचाकर रख सकते हैं? यह उत्तरदायित्व आखिर कहाँ पर आता है . . . समाज के हाथों में या व्यक्ति के?

दूसरी कहानी 'अवशेष' अमेरिका की प्रसिद्ध लेखिका सुषम बेदी की लिखी हुई थी। अस्सी वर्ष के एक रूमानी स्पर्श से ओत–प्रोत, 72 वर्षीय कमला नर्सिंग–होम में अपने एकाकी जीवन के बारे में सोच रही है। बुढ़ापे के सूनेपन और खोखलेपन को दिखाती इस कहानी में नायिका ही नहीं उसकी हर चीज परिवार की नजर में पुरानी और बेकार हो चुकी है – वह सब भी जो उसने कभी बड़े प्यार से सँवारा–सँजोया था। दो पीढ़ियों का द्वन्द्व दिखलाती इस कहानी ने श्रोताओं को उनके अपने भविष्य और आनेवाली बेबसी का आइना दिखलाया क्योंकि अमूमन हर श्रोता वहाँ प्रौढ़ ही था। एक पुरानी साड़ी–सी उदास और अवहेलित, हैंगर पर लटकी यह कहानी . . . जिसे सुनकर मन समझ नहीं पाया कि अलमारी का दरवाजा बन्द कर भूल जाएँ, या इस उदास मनःस्थिति को एक नई धूप दिखलाएँ . . .। दोनों ही कहानियों को खूब पसंद किया गया। दोनों की ही भाषा सरस और काव्यमय थी और भावों में ओज।

अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री शोभनाथ जी ने कहा कि उनकी नजर में वही लेखन सफल और उद्देश्यपूर्ण है जो किसी सामाजिक संदर्भ से जुड़कर तलवार की धार–सी क्षमता रखता है। बस परिवेश की लपझप तो खाली चकाचौंध करती है। सच्चा और अच्छा लेखन वह है जो सोचने को मजबूर करे और ये दोनों ही कहानियाँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।

आभारी हूँ उस पल की जिसने एक सच्चे–सुलझे विचारक और कर्म–योगी को सुनने का अवसर दिया। जो पानी सा सरल होकर भी चट्टानों से लड़ने, उन्हें तोड़ने का साहस रखता है . . . अपनी एक कविता में कहीं उन्होंने लिखा है . . .
'तुम ऊँची चट्टान हो/ तो प्रहार करूँगा मैं/ तुमपर लगातार/तेजधार बन नदी की/और तुम बिखर जाओगे/ रेत के बारीक कणों में, फिर उस रेत को भी/ मैं अपनी तेज धार में/बहा ले जाउँगा।'

अंत में दोनों भाभियों (नयना शर्मा व सरोज शर्मा) के हाथ की सुस्वादु इड़ली चटनी और खीर खा, पॉल दम्पति के मधुर आतिथ्य के यादों के उजाले से जगमग हम सब अपने–अपने घरों को चल पड़े।

लौटते हुए लंदन के बीचमें मेले जैसा वातावरण था उस दिन। अभी–अभी टैनिस फाइनल खतम हुआ था और चारों तरफ विम्बलडन के नव–निर्वाचित विजेता के अनुयाइयों का शोर गूँज रहा था। यूँ ब्रितानिया की अपनी व्यक्तिगत रूचि तो सेमी–फाइनल के दिन ही हेनमन–हिल पर दम तोड़ चुकी थी . . . बिल्कुल फुटबॉल–कप की तरह . . . एक बार फिर से आर्जेनटीना के हाथों ही हारकर।

अभी हाल ही में आई•वी•एफ पद्धति से एक गोरे परिवार मे एक काले बच्चे के पैदा होने से यहाँ पर काफी उथल–पुथल रही। जन्म देनेवाले माता–पिता अब उस बच्चे को नहीं चाहते और भ्रूण जिस माँ का है क्या वह इस बच्चे को रखना चाहेगी . . . पता नहीं . . . क्योंकि उसने तो बस भ्रूण–दान ही किया था। वैसे भी जो माँ बच्चे को जन्म देती है कानूनन बच्चा उसीका होता है . . . पर अगर माँ यह न चाहे तो जिम्मेदारी किस पर आती है? रचयिता वैज्ञानिकों पर . . . समाजपर . . . या फिर विभिन्न संस्थाओं पर? 

अब जब हम तकनीकी जानकारी हासिल कर भगवान बनने का यह खेल खेल ही रहे हैं तो इन मुश्किलों का सामना तो हमें करना ही पड़ेगा। विज्ञान या सच की खोज में ही गलती नहीं। क्योंकि विज्ञान या सच तो किसी तरह का पक्षपात नहीं करते। पर जब व्यक्ति 'मेरा हित ही मुझे सोचना है' इस तरह से सोचने लग जाता है तो जरूर मनुष्यता से गिरता है। समाज और उसके सूत्रधारों को भी याद रखना चाहिए कि समाज के हित से व्यक्ति का हित हो— जरूरी नहीं, पर व्यक्ति के हित से समाज का हित अवश्य होता है। जहाँ आम–आदमी खुश है वहीं राम–राज्य है। परिस्थितियाँ कितनी भी जटिल, कष्टपूर्ण या भ्रामक क्यों न हों फैसला हमेशा व्यक्ति के अपने हाथ में ही होना चाहिए . . . क्योंकि समाज जनता का है . . . जनता से है और जनता के लिए ही है।

15 जुलाई 2002

 
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