क्यारी में लहलहाते वे रंगबिरंगे फूल। सबका अपना रूप, अपने रंग . . .
पर साथसाथ खुश और तस्बीर से खूबसूरत। गहरे कालेभूरे रंग की आफ्रिकन वॉयलट
के साथ सफेद गुलाबी गुलाब ....... . . और पीले डेफोडिल्स व गेंदे के फूल . . ..सब कुछ सही अपनी जगह पर . . . क्यारी की सुन्दरता में चारचाँद लगाते हुए। किसी को
एकदूसरे से कोई शिकायत नहीं क्योंकि सबको एकदूसरे से मिलकर रहना आता है . . . सब एकदूसरे का महत्व और जरूरत
जानते व समझते हैं। सब कुछ कितना
सुन्दर और सुखद है यहाँ जहाँ तक नज़र जाए। पर ये जड़ हैं शायद इसलिए . .
. . या फिर इनके पास एक सरल मन तो है पर शैतान सा दिमाग नहीं और
निश्चित ही नागफनी सी लम्बी काँटेदार जीभ नहीं, बेभरोसे के कान नहीं। रंग और खुशबू का मेला लगा रहता है प्रकृति में। बस यह जिन्दगी ही इतनी बेरंग और
तंग क्यों कि अपने सिवा सब बदनुमा और धब्बेदार . . . क्यों हम कँटीली बेल से चुपचाप एक विद्रोही चोर कोने से उगकर एकदूसरे को निगल जाते हैं। जैसे वह हर
पौधे, हर पत्ती, हर फलफूल का गला घोंट देती है क्यों हम भी, प्रकृति के उत्कृष्ट नमूने, रचयिता के प्रतिरूप, बारबार यही पाप करते आ रहे हैं . . . . ? कुछ
सोचेसमझे बगैर ही क्यों खुदको नईनई सीमाओं में बाँध लेते हैं?
या फिर दुश्मन की ताकत का अन्दाज़ा लगाए बगैर ही बिना किसी
ग्लव्स के हाथ बढ़ा देते हैं
. . . जड़से उखाड़ना चाहते हैं आसपास की हर बीमारी को अपनी बीमारी, अपनी ताकत का पता ही नहीं और हथेलियाँ, ऊँगलियाँ सब काँटों से बिंध जाती है।
षड़यंत्र तो ज्यादातर गहरी जड़वाला ही होता है या जल्दी ही जड़ें पकड़नेवाला . . . हरदम काँटेदार . . . मुश्किल और भद्दा। तैयारी हमेशा सशक्त और पूरी ही होनी
चाहिए . . . . सावधान और सतर्क।
घर पर आज फिर सत्तार भाई आए हैं हाथ में भाभी के हाथ की बनी मीठी सेवइयों का डब्बा है . . . केवड़े की खुशबू उनके प्यारसी मन में उतरी जा रही है और
इंग्लैंड की ठंडी जमीन पर भी डब्बे पर लिपटे अखबार की हेडलाइन्स आँखों के आगे ज्वाला सी धधक उठती हैं।
'सेनाएं सीमा पर तैनात . . . दोनों का कहना है मूँहतोड़ जवाब देंगे।'
नज़रें शर्म से जमीन पर गड़ जाती हैं . . . शायद सत्तार भाई ने देख लिया है
. . . मन पढ़ लिया है और अब अपने देश के लिए, मेरे देश के लिए शर्म से पानीपानी
हैं। शायद खुद को धिक्कार रहे हैं घर पर ही देख लेना चाहिए था। ऐसी भी क्या जल्दी . . . क्या यही एक अखबार बचा था . . .
पर मैं भी तो उनसे आँखें नहीं मिला पा रही। यह कैसी तल्खी है जो हर कोने में एक नया गोधरा बनाने को तैयार है . . .
नहीं मन में एक और दुश्मन देश नहीं बनने देंगे हम . . . खुदको समझाते
हुए सहज होकर आमंत्रित किया . . . आइये सत्तार भाई आइये,
मैं आपको ऐसे कुछ खाएपिए बगैर नहीं जाने
दूँगी। सत्तार भाई नम आँखें पोंछते अन्दर आ गए
कहाँ पैदा हुआ अब इस पर तो मेरा वश नहीं . . . आँख की नमी
बारबार बस यही कहे जा रही थी . . . ठीक ही तो है, आसपास इतना
सब कुछ तो कैसे हम कुछ और
सोचें, पर अपने पर काबू तो रख सकते हैं . . . एक सही और सुरक्षित दिशा की तरफ देखने और
बढ़ने का साहस तो कर सकते हें . . . . कुछ और नहीं तो,
कमसेकम अफवाहों को भूलकर इस तल्खी से मीठे इन्सानियत के रिश्ते को तो न खराब न होने दें।
आज जब हमारे आसपास इतना सब कुछ घट रहा है तो इसके सिवा
चाह कर भी कुछ और नहीं लिख पाऊंगी। हमारी हजारों सालकी सभ्यतासंस्कृति सब पर एक
प्रश्नचिन्ह लग गया है। सुलझे, समझदार देश की जगह अब अपने ही लिए नहीं
वरन विश्व के लिए भी खतरा बन गए हैं हम। फिर समझ में नहीं आता चुप
कैसे रहा जाए। अभी चन्द दिन पहले ही मेरी एक देश से लौटी सहेली ने कहा कि हमारे देश के बुद्धिवादी, वामपंथी सब दुश्मनों से जा मिले हैं।
समझ में कुछ नहीं
आया, सिवाय इसके कि देश के दुश्मन से तो दुश्मन ही मिल सकते हैं। इससे किसी वाद या धर्म का तो कोई संबंध ही नहीं। हम और हमारा देश तो
आज से नहीं
युगान्तर से बहुधर्मी और सहधर्मी रहा है। फिर यह गोधरा की आँच कैसे और कहाँ से आयी ? जरूर कहींनकहीं
हम भी थोड़े बहुत तो जरूर भटके होंगे या
फिर कहीं कुछ भूलचूक हुई होगी? वरना कश्मीर, पैलेस्ताइन आयरलैंड जिधर भी देखो, वही जलतेधधकते कोने न होते? कारण से ही प्रकरण बनता है और
क्रिया से ही प्रतिक्रिया . . . .
सोच की उँगली पकड़ेपकड़े ये हठीली पंक्तियाँ खुद ही कागज पर उतर आई हैं। आप तक पहुँचने को बेचैन हैं। आप भी इन्हें ध्यान से पढ़िएगा जरूर। क्या
कहना चाहती हैं समझने की कोशिश भी कीजिएगा। माना अनुभूति जितनी तीव्र हो अभिव्यक्ति उतनी ही दुर्लभ हो जाती है। पर हम एक सच्ची कोशिश तो
कर ही सकते हैं। माफ कर देना, अपने साथ, दूसरों का दुख भी समझ लेना, मुश्किल जरूर है, पर असंभव नहीं। काश हम कभी न भूल पाते कि हम कहाँ और किस धर्म
में, किस घर, किस देश में पैदा होते हैं, यह हमारे हाथ में नहीं।
जब जात, नाम, रंगरूप कुछ भी बस में नहीं तो फिर ये नफरत की काँटेदार सरहदें क्यों . . . .?
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आज फिर
सोच के ये उजलेधुले कबूतर
अपने ही पंखों में सिकुड़ेसिमटे
जा बैठे हैं फिर सहमेसहमे
उन्हीं उँची मुंडेरों पर
एक और मोमबत्ती
अपनी ही आँच में जलतीपिघलती
थक गई है लड़लड़के अंधेरा
बूँदबूँद जो टपका
बेबस नदी की छाती पे
जमता और थिरकता . . . .
लहरलहर किनारों ने समेट लिया है
सब दर्द की चादर में
टूटा और बिखरा
आज फिर गदर के इस मौसम में
देखो मगर . . . .
किसी ने किसीका हाथ ना पकड़ा। |
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21 जून का दिन यहाँ पर सबसे लम्बा दिन होता है और इस बार हर ब्रिटिश फुटबॉलप्रेमी के लिए सच में यह सबसे लम्बा दिन था। धड़कते दिल और बड़ी तैयारियों
के साथ जिस दिन का सबने बहुत बेसब्री से इन्तजार किया वह आया और चुपचाप चला गया, पूरे ब्रिटेन के वर्डकप के सपनों को चकनाचूर करता हुआ।
आँसुओं को सबने बीयरमग के साथ पिया और 'कमसेकम क्वार्टरफाईनल में तो खेले' के रूमाल से पोंछा।
हालही में एक बड़े बजट की बहुचर्चित
फिल्म स्पाइडर–मैन देखी . . . एक्शन
फिल्म जिसे सुकोमल भावनाओं से सजाकर
सुन्दर ढंग से संजोया गया है। नायक
शक्तिमान और अलौकिक गुणों से युक्त
होकर भी आम आदमी है और अपनी सभी
भावनात्मक खूबियों और कमजोरियों के
साथ है। यही शायद इस फिल्म का सबसे
बड़ा प्लस–पॉइन्ट है। कहानी शुरू होती
है यह पूछते हुए कि 'कौन हूँ मैं' यानी कि एक बढ़ता बालक अपने को ढूँढ़ता–समझता
हुआ। और अंत होती है 'मैं हूँ स्पापडर मैन' यानी कि उसने खुदको पा लिया है, समझ लिया है
और कर्तव्य के आगे शायद व्यक्तिगत सुख को पीछे छोड़ना पड़ेगा। दर्शक एक्शन फिल्म में भी भावाविभूत हो ऐसा कम ही होता है।
आश्चर्य नहीं कि चारो तरफ यह फिल्म एक सफल फिल्म सिद्ध हो रही है। . . |
इंगलैंड
के कप्तान डेविड बेकहम
विश्व कप के क्वार्टर फाइनल के
बाद मैदान से बाहर आते हुए |
खुशबू कभी मेड़ों और मुठ्ठियों से नहीं रोकी जा सकती। हवा उनका पता सबको दे ही आती है। फिर आजकल तो यहाँ साहित्यमकरंद
चारो तरफ फैला हुआ है
और रसिक जी भरभरकर रसपान कर रहे हैं। मेरे लिए यह सिलसिला शुरू हुआ श्री कमलेश्वरजी और श्री अशोक चक्रधर जी से और सौभाग्यवश न सिर्फ गायत्री
भाभी से मुलाकात ही हुई वरन उनकी कहानी भी सुनने को मिली।
अब तो बरखा की सुहानी रिमझिम बूँदों से कवि और साहित्यकार एक के बाद एक आते ही रहेंगे सितम्बर तक जब तक कि यहाँ का वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय कवि
सम्मेलन न खतम हो जाए क्योंकि साहित्यिक कैलेन्डर आगामी कई रोचक तिथियों से अंकित है। श्री कन्हैयालाल नन्दन,
माननीय नरेन्द्र कोहली जी सभी को सुनने का अवसर मिलने वाला है।
खुशबू से याद आया कि क्यारी में . . .
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22 जून 2002
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