अप्रैल
की वही धूपछाँवी शुरूवात पीले डैफोडिल्स के बीच
लालगुलाबी ट्यूलिप्स ने झाँकना शुरू कर दिया है
मानो कह रहे हों आओ बाहर आओ, रंगों का यह हमारा
महोत्सव शुरू ही होने वाला है और सूखी टहनियों की
पतीपती इस आमंत्रण से मुस्कुरा पड़ी हैं
बिलकुल वैसे ही जैसे इस धुँधले आकाश से निकला
सुनहला सूरज।
जल्दी ही रंगरूप से रिक्त यह
धरती एक सजासँवरा गुलदस्ता बन जाएगी। शुरू हो
जाएगा फिर उत्सव। चारो तरफ से निकल आएँगे इन्हीं
फूलों से रंगबिरंगे कपड़ों में हँसतेकिलकते बच्चे
सड़कों पर, पार्को में आइसक्रीम वैन के
ईदगिर्द। हवा में गूँजते कहकहों के संग फैलेगी
फिरसे हर तरफ चीज, चिप्स, विनिगर और बर्गर की महक।
फिर दिखेंगे कोनेकोने में खड़े, दीनदुनिया से बेखबर
आलिंगनबद्धयुगल। बस स्टॉप के कोनों पर
भीड़भरी सड़कों में दीवारों से टिके हरी घास
पे लेटे।
ईस्टर का वीकएन्ड आ पहूँचा है
ईस्टर यानी कि शुरूवात रंगरूप की बसंत की
मौत की कोख से नए जीवन की। अब तो क्राइस्ट ही नहीं
इंग्लैंड भी अपनी बर्फ की कबर से निकल आएगा।
हाथ
में पकड़े तरहतरह के बीजों को क्यारियों और गमलों में
गाड़तेदबाते, इस गुनगुनी धूप में मन गुनगुना रहा
हैं स्वतः ही रेडियो पर चलती धुन के साथ झूम रहा हैं।
क्या करूँ मौसम ही कुछ ऐसा है हराभरा और
खुशनुमा। यह इंग्लैंड देश ही ऐसा है यहाँ
मौसम का महत्व भी कुछ ज्यादा ही है। तभी तो हर मिलने
वाला औपचारिकता के बाद सीधे मौसम की ही बात करने लग
जाता है। क्योंकि यही मौसम अक्सर होठों की खुशी भी
छीन सकता हैं कब बादल बरस जाएं, कब ठंडी हवा
तनमन थरथराने लगे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता!
शायद इसीलिए यहाँ आदमी मुठ्ठी भरभरके धूप को समेटता
है। पलकों और शरीर पे रोमरोम में सोखता
और सँजोता हैं। खुशी के मारे सड़कों पर नंगा निकल
आता है जत्थे बना समुद्र, नदी और बगीचों की तरफ
दौड़ पड़ता हैं।
अचानक धूप बन्द गाना बन्द
और ' हम खेद के साथ सूचित करते हैं कि
क्वीनमदर नहीं रहीं। बकिंघम पैलेस के विशेष
संवाददाता के अनुसार आज दोपहर नींद में सोतेसोते उनकी
मौत हो गई।'
दुख हुआ। मौत खबर ही
ऐसी हैं। कोई भी जाता है तो पहला अहसास मजबूरी और
दुख का ही होता हैं। अब वह कभी नहीं दिखेगी कहीं
नहीं दिखेगी मुस्कुराती हाथ हिलाती फीता
काटती, कुछ भी करती। जिन्हें प्यार करती थीं, जो उसे
प्यार करते थे उन्हें भी नहीं। पर दुनिया तो चलती रहती
हैं। फिर वह तो करीबकरीब 102 वर्ष की थी। इतनी
उम्र कितनों को मिल पाती हैं रोज ही जाने कितने यँूही
छोटी सी उम्र में भी उठा लिए जाते हैं? चलो उठो
मंदिर भी तो जाना है। भगवान उसकी आत्मा को शान्ती
दें।
मन्दिर में आज भगवान की मूर्ति
में प्राणप्रतिष्ठान होंगे। प्राणप्रतिष्ठान वह भी
भगवान की मूर्ति में? होठों पर अनचाहे ही मुस्कान आ
जाती हैं हम असमर्थ इन्सान भी कैसीकैसी भ्रान्ति पाल
लेते हैं
यह नया दौर है नए रइसों का।
अपनाअपना प्रभुत्व और महता दिखलाने के नएनए तरीके ढूँढे
जा रहे हैं। दान भी गागाकर और एक दूसरे से
बढ़चढ़कर दिया जाता हैं और बेचारा सोनेचाँदी के
बोझ के नीचे दबा भगवान बुत का बुत ही रह गया हैं।
हफ्ते
दस दिन बाद रानीमाँ का शवयात्रा जुलूस पूरी
शानशौकत से निकला हैं। उपाधियों में एक उपाधि हैं
एम्प्रेस ऑफ इंडिया बीते साम्राज्य की मृत
साम्राज्ञी लूटे कोहिनूर का ताज पहनकर वह भी
आखिरी बार ।
शान झूठी हो सकती है पर अहसास
नहीं। चार्ल्स आम पोतों की तरह दादी को याद करता मन ही
मन रो रहा हैं। बेटी महारानी हैं तो क्या, टूटी और
बिखरी लग रही हैं। सतरपचहतर साल में आज
पहली बार माँ की गोदी नहीं, जमीन पे खड़ी हैं वह।
उम्र के हर साल को मनाती चर्च की 101 घंटियाँ, गन सलामी
और तैरती पाइप की धुन के बीच एक अज्ञात कविता की पंक्तियाँ
भी शायद उसके मन में तैर रही हैं। खुद चुना है उसने
इन्हें। सभी अभिभूत हैं। किसने लिखीं, कोई नहीं
जानता। बस पूराकापूरा राजपरिवार एक आश्वासन,
जीने की, दुख से जूझने की दिशा ढूँढ़ रहा हैं इसमें।
भाव कुछ इस तरह से हैं
तुम चाहो तो रो लो सोचकर कि
वह नहीं
चाहो तो मुस्कुरा लो हजार मीठी यादों में
जीवित हैं साथ तुम्हारे अब भी वह तुम में
आँखें बन्द किए मत सोचो जो खोया तुमने
आँखें खोलो, देखो जो पाया हैं तुमने
शायद यही जीवन हैं नदी सा आगे बढ़ता खुद में
भिगोता डुबोता फिर पार लगाता, उसी आज के तटपर।
अतीत से निकला पर अविलम्ब पलपल एक नए कल की ओर अग्रसर
16 अप्रैल 2002 |