मत
हंसो यूं/बंद आंखों से/पहचानो इसे/काली शारदा/दुर्गा
पार्वती/सीता सावित्री/रम्भा मोहिनी/सौ रूप लिए/जन्मी खुद
ही/अपने ही/शव की कोख से/कोमल जरूर/कमजोर
नहीं/संगिनी सहचरी/भाग्यविधाता/जननी
जो/सौभाग्य तुम्हारे/और एक एक/दुर्भाग्य की।
पिछले दिनों एक खबर पर आंखें
पड़ी तो जमी ही रह गईं। अखबार पर छपे शब्द आग की लपट से
झुलसा रहे थे। बचने के प्रयास में और भी जलती ही चली
गई। किसी भी प्रतिक्रिया का कारण होता है और फिर कोई भी
प्रतिक्रिया समान और प्रतिलोम दोनों ही तरह से तो हो सकती
है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहीं लिखा था हर मानव को
कुछ करने से पहले सोचना चाहिए कि उसके इस कर्म का उसके
आसपास और समाज पर क्या असर होगा। यदि उस कर्म का सिर्फ
उससे संबंध है तो उसे
निर्णय की पूर्ण स्वतंत्रता है वरना नहीं पर क्या वास्तव में
ऐसा हो पाता है रहती है क्या मानव के पास जरा भी स्वतंत्रता?
मन अगर एक यंत्र हैं तो हमारे लिए यह जानना संभव ही नहीं,
जरूरी भी है कि आखिर यह यंत्र चलता कैसे है और क्याक्या कर
सकता है आसान शब्दों में इससे क्या क्या काम लिया जा
सकता है, अच्छे से अच्छा, भरपूर सामर्थ्य और उसकी उपयोगिता
के अनुरूप? परन्तु समस्या तब आती है जब आजके इस यंत्रीकरण के
युग में भी मन यंत्र बनने से इंकार कर देता है और सारे
उर्जे पुर्जे खोलने के बाद भी बस एक आंतरिक बेचैनी और
तनाव ही हाथ लग पाता है।
आप सोच रहे होंगे कि क्या थी
वह खबर जिससे इतनी उथलपुथल मचाई एक गंभीर
चिंतन की कालकोठरी में ला खड़ा किया हमें।
एशियन मूल की एक मां ने अपनी
वयस्क बेटी को सुयोग्य परन्तु द्विजातीय प्रेमी से शादी करने
के लिए न सिर्फ प्रोत्साहित किया वरन् मदद भी की और परिवार
की नजर में किए गए इस अपराध के लिए शादी के तुरंत बाद ही उसे
जला कर मार दिया गया सोते हुए बेटी और उसके समस्त
परिवार के साथ। इन निर्मम हत्याओं के लिए अब खुद उसके अपने
पति और बेटे को स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।
यहां ध्यान रखना होगा कि वह औरत तलाकशुदा थी और इस
घटना के पहले उसके पति या बेटे ने कभी यह जानने की भी
कोशिश नहीं की थी कि वे मां बेटी जिन्दा हैं या मर गई। फिर
अचानक जिम्मेदारी और अपनापन का इतना जघन्य और तीव्र
अहसास क्यों घटना भारत की नहीं इंग्लैंड की ही है और
अठ्ठारहवीं सदी की भी नहीं, आजकी इसी इक्कीसवीं सदी की है।
मौत को प्रेयसी या सम्मान की तरह गले लगा लेना आज भी
इस निराशा वादी समाज का (विशेषतः भारतीय नारी के संदर्भ
में) एक विलक्षण गुण है। परन्तु जब भी समाज या इसके
ठेकेदारों ने अपनी सफेद चादर में लपेटकर एक स्पंदित हृदय
जलाया है या फिर एक ज्वलंत चेतना को विस्मृति की धार में
अस्तित्वहीन कर के बहाया है तब तब हजारों प्रश्नों के प्रेतों
ने समाज को जकड़ा है मूल्यों और विचारों के चेहरों
पर कई असह्य और भद्दे प्रश्नचिन्ह खरोंचते हुए। कहां खतम होती है
यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कहां शुरू होनी चाहिए समाज की
जिम्मेदारी? औरतों के संदर्भ में तो सवाल और भी मुखरित
हो उठता है क्योंकि आज भी सारी लगाम पुरूषों के हाथ में ही
है और सब जानते समझते हुए भी कोई इन सवालों के
जवाब जानना ही नहीं चाहते, खुद औरतें भी नहीं।
फूल सी कोमल बेटियों,
बहनों, प्रेयसियों और पत्नियों को आज भी लोग
यशोधरा की तरह त्याग देते हैं, अनुसूया की तरह छलते हैं और द्रौपदी की तरह दांव पर लगाकर हार
जाते हैं। क्योंकि आज भी (समस्त सामाजिक और आर्थिक
स्वतंत्रता के बाद भी) वह उनकी संपत्ति ही हैं। और आज भी
उनमें इतनी बुद्धि नहीं है या चरित्र में दृढ़ता नहीं है इसलिए
सीता की तरह अग्नि परीक्षा लेते हैं और मीरा की तरह विषपान
कराते हैं। कितनी भी समर्थ और विलक्षण हो आज की नारी परन्तु
पुरूषप्रधान इस समाज में तो उसे संपत्ति की तरह आरक्षण और
सुरक्षा में ही रहना चाहिए सौ सौ तालों के पीछे।
क्यों होता आया है ऐसा
क्यों इतनी अबला है आज भी आजकी यह सबला नारी क्या
हमेशा से नारी के बारे में समाज और पुरूषों की सोच
ऐसी ही रहेगी शक और अविश्वास से ओतप्रोत, प्रश्न पर
प्रश्न उठाती? हम सभी जानते हैं कि मूल्यों का जन्म जीवन के
सुखदुख, संयोगवियोग, सफलताअसफलता जैसे
विरोधी तत्वों के टकराव से ही होता है परन्तु जीवन में तो
सम की अपेक्षा की जाती है और इसके लिए आवश्यक है कि जरूरतों
और समाधानों को समझा जाए। क्या हमारे ऋषि मुनि
हजारों साल पहले ही इसे समझ और जान चुके थे। आइए देखें
क्या कहते हैं हमारे भारतीय ग्रन्थ और विद्वान इस विषय पर।
उनकी नजर में स्त्रियां दासी या
तुच्छ नहीं पुरूषों की पूरक और पूज्य थीं और एक निश्चित कर्तव्य
के लिए ही वह इस धरती पर आई थीं जैसे कि पुरूषों का भी एक
निश्चित उत्तरदायित्व था। 'प्रजनार्थ स्त्रैयः सृष्टाः सन्तान कार्यः
मानवत्।' स्त्रियों की रचना गर्भाधान के लिए और पुरूषों की
गर्भाधान कराने के लिए की गई है। जरूरतें साधारण थीं तो
समाज के नियम भी साधारण ही थे। परन्तु प्रत्येक कार्य में
पति पत्नि साथ थे। वेदों में साधारण धर्म कार्य का अनुष्ठान
भी पत्नी के साथ ही करने का विधान है। आगे चलकर वेद यह
भी कहते हैं जहां भार्या से भर्ता और पत्नी से पति एक दूसरे
से बहुभांति खुश रहते हैं उसी कुल में सब सौभाग्य और
ऐश्वर्य निवास करते हैं।
अब इस कलाओं से युक्त
कामिनी को वश में रखने का ऋग्वेद में बस एक ही उपाय बताया
गया है 'हृदय की शुद्धि'। जो मन में हो वही व्यवहार में हो
और जो व्यवहार हो वह मन से हो। अन्यथा स्त्रियों का मन
नाना रूप वाला है और विविध बातों को सोचने के लिए
विवश हो जाता है। छत्तीसवें श्लोक में कहा गया है कि नारी
के हित के लिए आवश्यक है कि वह ओजस्विनी हो और उसमें
अपने चरित्र की रक्षा करने की सामर्थ्य हो। वह समाज में अपने
अधिकार स्थापित कर सके। 51 नारी को अजेय और शत्रु
विजयिनी बताया गया है। उसके लिए सहस्त्र वीर्या शब्द का
प्रयोग हुआ है अर्थात वह एक नहीं सहस्त्र सामर्थ्य वाली है। 41
संकोच छोड़कर आगे बढ़ती है और अज्ञान रूपी अंधकार दूर
करती है। 50 नारी के शील की रक्षा को राष्ट्र का उत्तरदायित्व
बताया गया है। जहां नारी के चरित्र की पूर्ण रक्षा होती है वही
राष्ट्र सुरक्षित कहा जाता है। यानी कि चरित्र के परिष्करण और दृढ़ता
से ही सुरक्षित समाज की रचना हो सकती है यह नियम तब भी
लागू था।
एक मंत्र में कलाओं की शिक्षा का
भी संकेत है। वह नृत्यकला आदि सीखती है। उषा देवी को एक
कुशल नर्तकी की तरह नृत्य करते प्रस्तुत किया गया है। 22 नारी
के श्रृंगार का भी जिक्र है। वह सुन्दर वस्त्र और स्वर्णाभूषण
धारण करती है। 31 पलंग पर सोती है और इत्र आदि सुगन्ध
लगाती है। अर्थात वैदिक नारी तिरस्कृत और उपेक्षत कदापि नहीं थी।
ऋग्वेद में गृहलक्ष्मी के रूप में चित्रित करते हुए नारी को
'कल्याणी जया' अर्थात मंगल कारिणी और 'कुलपा' कहा गया है
यानि की कुल का पालनपोषण करने वाली। अन्यत्र गृहणी ही गृह
है ऐसा भी कहा गया है। उसके गुणों में लज्जाशील, मधुर
भाषिणी और प्रसन्न चित्ता होने को प्रमुखता दी गई है। उसे
प्रेम या स्वयंवर विवाह का अधिकार है। विवाह प्रेम या
योग्यता के आधार पर होना चाहिए और यही विवाह उचित व
श्रेष्ठ है। बाल विवाह का विरोध है। मनु स्मृति में कन्या के
रजस्वला होने के तीन शरद बाद विवाह का विधान है इस तरह
से बाल विवाह वर्जित हुआ। आत्म रूपी पुत्र पुत्री समान हैं।'
यथैव आत्मा तथा पुत्रः, पुत्रेण दुहिता समः। पुत्र न होने पर
पुत्री समस्त संपति की अधिकारी है और अविवहिता कन्या पुत्र के
समान ही दया की भागी है। 83 स्त्री अपहरण राष्ट्र कलंक है। स्त्री
हरण इतना बड़ा महापाप है कि पापी को इस लोक में क्या परलोक
में भी कष्ट सहना पड़ता है। लगता है स्त्रीयों के हितों के प्रति
हमारे ऋषि मुनि आज के समाज से ज्यादा सजग और सचेत
थे। आज का समाज कहने को तो बराबर का दर्जा देता है परन्तु
सबकुछ नियंत्रण में रखकर, अपने पूर्ण हस्तक्षेप के बाद और उनकी
हर कोमल भावनाओं की पूर्ण अवहेलना करके।
87 स्त्रियों की कमियों की तरफ
भी उल्लेख किया गया है। 360 न समाधि स्त्रीषु लोकाज्ञता
चा। अर्थात औरतों में समझदारी और सांसारिक अनुभव नहीं
होता। 357 दुष्कलत्रं मनस्विनां
शरीरकर्शनम् दुष्ट स्त्री मनस्वी पुरूष को कृष बना डालती है।
351 स्त्रीषु किंचिदपि न विश्वसेत् औरतों पर कभी
विश्वास नहीं करना चाहिए। 348 स्त्रीणां अतिसंगां
दोषामुत्पादयति स्त्रियों का अति सहवास दोष उत्पन्न करता है।
दुराचारी स्त्री को स्वान की भी उपाधि दी गई। और व्यभिचारी
पुरूष को सियार और भेड़िया। पुरूषों की आचारसंहिता पर
विचार करते हुए यह भी लिखा गया है कि स्वदासी परिग्रहो हि
स्वदास भाव, अपनी दासी के साथ संभोग करना अपने को दास
बनाना है। परदारान् न गच्छते पराई स्त्री के पास नहीं जाना
चाहिए। और स्त्रीणां न भर्तुःपर दैवतम् पति से बड़ा कोई
देवता स्त्रियों के लिए नहीं है। वाल्मीकि की रामायण में आदर्श
पत्नी सीता वैसा ही करेगी जैसा कि राम चाहेंगे। और एक पूर्ण
नारी के रूप में कौशल्या के लिए विलाप करते हुए दशरथ ने
कैकयी से कहा था कि कौशल्या जो सेवा करने में दासी के
समान, रहस्य में सखी के समान, धर्म कृत्यों में स्त्री के
समान, हितैषियों में बहन के समान, आग्रह पूर्वक
भोजन कराने में मां के समान, सदा कामना करने वाली (भला
चाहने वाली) और सभी पुत्रों से स्नेह करने वाली समय
समय पर जो उपस्थित होती रही पर सत्कार के योग्य होते हुए भी
मैंने तेरे कारण उसका समुचित सत्कार नहीं किया यह
सोचकर कि कहीं तू यह न समझ बैठे कि मैं तुझे प्यार नहीं
करता या तुझसे कौशल्या की अपेक्षा कम करता हूं। इस वार्तालाप
से हम जान सकते हैं कि स्त्रीयोजित कोमल गुण तब भी वैसे
ही लागू थे जैसे कि आज होते हैं। संरक्षण और शौर्य यदि
पुरूषोचित गुण हैं तो सृजन और भरण पोषण स्त्रीयोचित।
और जीवन में दोनों का ही महत्व बराबर का है।
तुलसीदास रामायण में कहते हैं,
1 जिय बिनु देह नदी बिनु
बारी
तैसि अनाथ पुरूष बिन नारी।
2 धीरज धर्म मित्र अरू नारी
आपद काल परिखिअहीं चारी।
3 एकई धर्म एक व्रत नेमा
कायं बचन मन पतिपद प्रेमा।
4 और अंत में मातृ
पित्राचार्यतिथियः भार्यायाः भर्ता मनुश्च भार्येति मूर्तिमन्तो
देवाः
अर्थात माता पिता, आचार्य,
अतिथि स्त्री के लिए, पति और पुरूष के लिए पत्नी और नारी ये
पांच
मूर्तिमान देव हैं। इनकी पूजा ही सच्ची पंचायतन और
वेदानुकूल देव पूजा और मूर्ति पूजा है।
नारी पुरूषों के पारस्परिक संबंध,
आचार संहिता आदि का जितना व्यावहारिक और सैधान्तिक वर्णन
हमारे वेदों और ग्रन्थों में हैं शायद आज भी कहीं और
नहीं। आज समाज बदल चुका है। आज की जरूरतों के मुताबिक
सुधार करके आज भी इन मूल्यों पर चला जा सकता है। अपनी
कुंठाओं और व्यसनों से ग्रसित मानव को अपने मुखौटे
उतारने ही होंगे। नारी की जरूरत और उपादेयता दोनों को भी
समझना होगा। आज जब सिद्धान्त कपड़ों की तरह बदले जाते हैं
और स्वार्थ का इत्र सर्व व्यापी है शायद यह सब इतना आसान न
हो। समाज से क्या, परिवार से भी जुड़ पाना आज एक कठिन
काम है। परन्तु परिवार ही तो वह मुख्य इकाई है जिसकी
आचारसंहिता समाज और बाद में पूरा देश व्यवस्थित रखती है।
सभ्यता का प्रतीक बनकर उबरती है। जब तक परिवार का हर सदस्य
जीवन के तृण मूलों को और पारस्पारिक जरूरतों को नहीं
समझेगा असुरक्षित महसूस करेगा। और ऐसी अवस्था में
व्यक्ति और समाज, दोनों के हित में गलत और असभ्य
निर्णय होते रहेंगे जिनमें से कुछ को हम आप और समाज
अपराध भी कहेंगे।
जून 2004
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