यात्रा
और पड़ाव
—शैल अग्रवाल
यात्रा और पड़ाव दो शब्द, दो पहलू, दोनों का
अलग–अलग अस्तित्व, पर एक ही सूत्र से जुड़े हुए, जैसे कि प्रयास
और प्राप्ति। पड़ाव न हो तो कोई यात्रा शुरू ही न हो और यात्रा
न हो तो पड़ाव कहाँ? यात्राओं का भी अपना एक अलग संसार होता है
– विशेषकर भारत की रेल यात्राओं का।
यहाँ विदेशों में आप रेल में बैठते हैं और अपने इच्छित मुकाम
से पहले उतरने की सोच ही नहीं सकते पर भारत में यात्री चाहें
तो भी रेल के डिब्बों में स्थिर या तटस्थ होकर नहीं बैठ सकता।
उसके वक्त, पत्रिका, खाना सभी चीजों पर सह यात्रियों का
समानाधिकार होता है। शायद ही दुनिया में कहीं और ऐसा होता हो –
पर हो भी क्यों नहीं– भारत जैसा देश भी तो दुनिया में कहीं और
नहीं। छोटे बड़े स्टेशनों पर रूकती, मनमानी चाल से चलती ये
रेलगाड़ियां, समय के महत्व और निर्धारित तालिका का मज़ाक उड़ाती
हर प्लेटफार्म, हर शहर, हर कस्बे, हर गाँव के स्टेशन पर रूकती
हैं और इतनी देर तक रूकती हैं कि घंटों ऊबने के बादह्यगाड़ी
घंटो रूके या मिनटों कई आपको ऐसे मिल जाएंगे जिनकी हर स्टेशन
पर रूके बिना यात्रा पूरी ही नहीं होतीहृ आदमी वहाँ की हर
अच्छाई का भी जायका लेने उतर ही पड़ता है। भारत की सारी
पत्रिकाएं पढ़ डालता है – घबराकर अगली बार फिर कभी रेल में न
बैठने का झूठा संकल्प तक कर डालता है वह तो। वैसे यह तो मन पर
ही है कि पत्रिका पढ़ने के साथ–साथ बनारस का लंगड़ा, इलाहाबाद का
अमरूद और खुरजा की खुरचन खाएं या ना खाएं – अगर विश्वास न हो
तो आप भी कभी आजमा कर देखिए ये जायके – कैसे हर छोटे से डिब्बे
में एक नई दुनिया सिमट आती है – कैसे इसमें बैठे अजनबी और
परिचित गपशप करते यात्रा को एक और नया आयाम – नई रफ्तार दे
डालते हैं। यह बात दूसरी है कि उस शगल में कोई भी सामान जो आप
घर से लेकर चले थे वह उतरते वक्त भी आपके साथ होगा या नहीं,
इसकी कोई गारंटी न तो सहयात्री दे पाएंगे और न ही भारत का
रेलवे विभाग।
उस रात का माहौल तो कुछ और भी ज्यादा अनूठा था – लग ही नहीं
रहा था कि हम सब भारत में यात्रा कर रहे हैं। सामने सीट पर
बैठी यूरोपियन महिलाएं – वहीं नहीं, हर कूपे – पूरे डिब्बे में
ही, चारो तरफ बस यूरोपियन ही यूरोपियन। हम चार बनारसी, बनारस
से देहली जाते, बनारस से बनकर चलती शिव–गंगा में विदेशियों
जैसा महसूस कर रहे थे। आदत से मजबूर भाभी ने अपने पूरी–सब्जी
के रोल बांटने शुरू कर दिए, फिर लोगों ने उन्हें मांग–मांग कर
खाना शुरू कर दिया। हम सब भूखे रह गए पर भाभी का कुशल गृहणी
वाला अहसास पूरी तरह से तृप्त हो गया था। भारत का पर्यटन विभाग
अच्छा काम कर रहा है – सोने के लिए खुद को व्यवस्थित करते हुए
मैंने सोचा।
अभी बस नौ ही बजे थे – और गाड़ी मात्र बीस पच्चीस मील चलकर पुनः
खड़ी हो गई। शायद इसने भी उसी खास बनारसी अन्दाज़ में निश्चय कर
लिया था कि पहले आराम फिर काम। अब ऐसी खिजलाती मनःस्थिति में
नींद का न आ पाना स्वाभाविक ही था, ऊपर से भाभी ने एक और दुखती
रग पकड़ ली, 'अगर ऐसा ही था तो यह बनारस से ही क्यों नहीं लेट
चली, कम से कम यूं भागदौड़ तो न करनी पड़ती। हाथ में पकड़ी
पत्रिका एकबार फिरसे हवा में ही लटकी रह गई और आंखों ने कुछ और
रूचिकर ढूंढ़ना शुरू कर दिया।
विभूति संभाल कर रख ली न– पता नहीं तुम क्या सोचती हो पर मुझे
तो बहुत ही भिन्न और रहस्यमय लगा यह बनारस शहर? सामने बैठी
विदेशी सहयात्रिणी दूसरी से पूछ रही थी।
हाँ एक ही नदी के किनारे हजारों का नहाना, शवों का जलना, पूरे
शहर के गन्दे नालों का भी उसी में गिरना और उसी पानी को पवित्र
व चमत्कारी समझ श्रद्धा से हजारों का पी जाना, वह भी बिना
बीमार या परेशान हुए – तुम्हीं बताओ पूरे विश्व में और कहाँ,
किस देश में ऐसा देखने को मिलेगा? दूसरी ने प्रश्न पर प्रश्न
उछाला।
अच्छा था या बुरा – असंभव ही है मेरे लिए तो कुछ कह पाना –
गंगा किनारे की बस हवा मात्र लेने से ही वह दार्शनिक हो चली थी
– वह शवों का एक के बाद एक लगातार चौबीसों घंटे जलते रहना और
बगल के ही घाट पर धार्मिक मंत्रोच्चारण के साथ आरतियां – धूप
अगरबत्ती के संग उठती वह जले मुर्दों और ठहरे पानी की सड़ांध और
उसपर से भी अपंगु सा चाहकर भी हमारा वहाँ से न हटना, देखते ही
रह जाना – निश्चय ही एक सम्मोहन का सा ही तो अनुभव था। अलादीन
की गुफाओं की तरह छोटी–छोटी वे गलियों और उनमें बिखरी कला व
संस्कृति – इतनी गंदगी के बाद भी मन करता था घूमो और घूमो –
घूमते ही रहो जब तक घूम सको – क्या पता और न जाने क्या मिल
जाए, किससे मुलाकात हो जाए, कौन हमारा भविष्य बताने लगे – क्या
नाम था – पहली ने पुनः कौतुहल के साथ पूछा? मेरी आंखों ने अब
गौर से उन विदेशों सहयात्रिणियों को पढ़ना शुरू कर दिया।
कौन सी, कुंजगली या विश्वनाथ गली, जहाँ सबसे पुराना शिव का
मन्दिर है या वह साड़ी वाली गली, किस गली की बात कर रही हो तुम
– हाथ की सुन्दर और सुरूचिपूर्ण चाँदी की चूड़ियों को प्यार से
अपनी कलाई पर घुमाते हुए दूसरी ने पलट कर पूछा – अच्छा एक बात
बताओ क्या तुम सचमें पुनर्जन्म में विश्वास करती हो?
अब तो सोने की कोशिश भी व्यर्थ थी, पानी का गिलास मुंह से लगाए
चुपचाप उनकी बातों में ही खो गई। वे भी समझ चुकी थी कि मुझे
उनकी बातों में आनन्द आ रहा था और उनकी ही तरह मेरा भी सोने का
कोई भी इरादा नहीं था। अब तटस्थ रह पाना असंभव था क्योंकि
तटस्थता मेरी और मात्र भूमि की अस्मिता से जो टकरा रही थी। इस
बार मेरी तरफ देखते हुए उसने प्रश्न दोहराया – मैं आप से ही
पूछ रही हूं – रूचिकर होगे एक भारतीय के इस विषय पर विचार?
हाँ, यहाँ भारत में तो सब ऐसा ही कहते और मानते हैं, पर सच
कहूं तो मुझे तो कोई अन्दाज़ा नहीं। मरने के बाद यदि पुनर्जन्म
होता भी है तो हमें तो पता नहीं चल पाता क्योंकि न तो यादें ही
बचती हैं और न ही यादगारें। शायद हमारी जिन्दा रहने की,
निरंतरता की इच्छा ही हमें ऐसा सोचने और समझने पर मजबूर करती
हों – पर फिर बुद्धि, ज्ञान और कौशल्य में इतना फरक क्यों –
शायद पुनर्जन्म होता ही है – पता नहीं, मरने के बाद ही निश्चित
रूप से बता पाउंगी – मैंने हंसकर विषय बदल दिया – आप भी देहली
ही जा रही हैं क्या? हाँ, हम २५ साथी छह हफ्ते पहले पर्यटन और
शोध के लिए आस्ट्रेलिया से भारत आए थे। हम सभी शिक्षक या शोध
विद्यार्थी हैं और भारत और आस्ट्रेलिया, दो देशों के तुलनात्मक
अध्ययन के लिए यहाँ पर हैं। हमारे दोनों देशों की सरकार एक
दूसरे के विकास में सांझी होना चाहती हैं।
यह तो बहुत ही अच्छी बात है। फिर आपने क्या क्या जाना और समझा
– वार्तालाप खुद–ब–खुद एक और रूचिकर मोड़ ले रहा था।
यही कि भारत एक बहुत ही विविधता और विरोधाभास का देश है –
भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विविधता का – एक नया समाज होते
हुए भी – स्वतंत्र भारत आज भी एक बहुत ही प्राचीन देश है।
ज्ञान विज्ञान में विश्व का नेतृत्व करते हुए भी अनगिनत रूढ़ि
और अंधविश्वासों में जकड़ा हुआ। अमीरी और गरीबी का अन्तर तो
बहुत ही ज्यादा है यहाँ पर। शहरों और गांवों के रहन–सहन में भी
यही दूरी है। तरह तरह के तकनीकी और आर्थिक विकास के बावजूद भी
यहाँ कोई सुनियोजित सामाजिक ढांचा है ही नहीं। एक ऐसा ढांचा
जिसके सहारे गरीब से गरीब भी जीवन की तृणमूल जरूरतें पा सके।
कम से कम एक सुदृढ़ शिक्षा प्रणाली में हर बच्चे को पढ़ने का
अवसर तो मिलना ही चाहिए।
सही कहती हैं आप – मैं उससे पूर्णतः सहमत थी। पर जब ऐसा
अमेरिका जैसे धनाढ्य और सक्षम देश में भी पूर्णतः संभव नहीं हो
पाया तो भारत तो अभी भी इतना सक्षम नहीं। आपके क्या सुझाव या
सलाह हैं इस विषय पर? विचार जानना मेरे लिए जरूरी था क्योंकि
यह किसी राजनीतिज्ञ के नहीं, एक विदेशी आम नागरिक के विचार थे
जो पिछले पांच छह हफ्ते से भारत भ्रमण कर रहे थे और तटस्थ होकर
सोच सकते थे। मुझे यह लिखते हुए कोई खेद नहीं कि जो कुछ भी
सुना वह काफी खरा और रचनात्मक था।
उसने कहा कि माना भारत और ऑस्ट्रेलिया दो ऐसे देश हैं
जिन्होंने इसके पहले कभी एक दूसरे को कोई विशेष महत्व नहीं
दिया क्योंकि ऑस्ट्रेलिया भारत को एक गरीब और पिछड़ा देश समझता
था और भारत ऑस्ट्रेलिया को एक आराम–तलब और आलसी देश। पर आज
ऑस्ट्रेलिया के निवासी भारत के बारे में फरक तरह से सोचने लग
गए हैं और शायद भारत के निवासी ऑस्ट्रेलिया के बारे में भी।
दोनों ही देश ह्यभारत और ऑस्ट्रेलियाहृ आज ब्रिटेन के साथ
विश्व की नम्बर दो ताकत बनकर उभरने को तैयार हैं। दोनों ही देश
विज्ञान और तकनीकी जानकारी में अभूतपूर्व उन्नति कर रहे हैं।
वास्तव में देखा जाए तो स्पर्धीय उन्नति – हमारे पास मिलाकर छह
नोबल पुरस्कार हैं। और हम लोग यदि इस ज्ञान को आपस में
मिल–बांटकर आगे बढ़ें तो बहुत आगे बढ़ सकते हैं। कपास के बीजों
पर चल रही हमारी वह शोध जिससे कि हम डीजल का कोई विकल्प बनाने
की उम्मीद में हैं, एक ऐसी ही उल्लेखनीय खोज हैं। आज नियंत्रित
मिसाइल्स और सैटेलाइट पर सारा सौफ्ट वेयर मुख्यतः भारत में ही
बनाया जा रहा है और आज भारत की कॉर्नर शॉप वाली मानसिकता भी
बदलती नज़र आ रही है। बांटना चाहूंगी आपके साथ एक चुटकुला जो
इसी विषय पर हाल ही में कहीं सुना या पढ़ा था – प्रश्न – क्या
वजह हैं कि भारतीय क्रिकेट में तो बहुत अच्छे हैं पर फुटबॉल
में नहीं? जवाब – क्योंकि कॉर्नर मिलते ही वह दुकान खोलकर बैठ
जाते हैं। मजाक और बातें दोनों ही गम्भीर थी पर हंसे बिना न रह
सकी और एक छोटी सी मुस्कान के साथ चुटकुले को बांटती वह अगले
मुद्दे पर आ गई।
भारत की खुद की उन्नति और सूझ–बूझ व विश्व में चारों तरफ फैले
भारतीयों के योगदान ने आज भारत को पूरे विश्व के आगे प्रमुख
स्थान पर खड़ा कर दिया है। और आज भारत का रहन–सहन और काम करने
का तरीका भी करीबकरीब विश्व–स्तर के बराबर का ही होता जा रहा
है क्योंकि जनता जागरूक हो रही है और ताकत धीरे–धीरे नेताओं के
हाथों से फिसल कर जनता के पास पहुंच रही है। आज बाहर से जो
यहाँ शोध करने के लिए आते हैं उन्हें भारत इतना अच्छा और
संभावनाओं से पूर्ण लगता है कि कई यहीं रह जाते हैं या रहना
चाहते हैं। यहाँ की सस्ती मजूरी और तुलनात्मक सस्ता रहन सहन भी
इसकी एक वजह हो सकती है। विश्व की कई मुख्य कम्पनियां अपने
ऑफिस अपने देशों से यहाँ ला रही हैं। संचार विभाग में तो
ब्रिटेन और अमेरिका दोनों की ही मुख्य कम्पनियों ने अपने ऑफिस
यहाँ बदल लिए हैं। निश्चित ही भारत आज पर्यटक और व्यापारी
दोनों के लिए ही आकर्षण का केन्द्र बन चुका है और विकसित
औद्योगिक देशों को अच्छी टक्कर दे रहा है।
मंत्र–मुग्ध सी सुन रही थी पर पूछे बिना नहीं रह पाई। यह सब तो
अच्छा ही अच्छा है, कुछ ऐसा भी तो हुआ होगा जो त्रुटिपूर्ण या
खराब लगा होगा आपको आज के इस भारत में?
हाँ बताया न एक सुनियोजित योजना और ढांचे की कमी, विशेषतः
शिक्षा और विभाजित समाज के संदर्भ में। एक भारतीय होने के नाते
आप क्या सोचती हैं कि आपके देश में क्या–क्या कमी है? उसने उसी
सहज जिज्ञासा से गेंद मेरी पाली में वापस फेंक दी और अब जवाब
देने की मेरी बारी थी। उसका सहज सा वह सवाल मुझे पूरी तरह से
झकझोर चुका था – एक बार फिर रेशमी तहों के अन्दर देखने को
मजबूर थी।
हमारा खुद में, अपने देश में पूर्णतः गौरव न ले पाना, और
निरंतर की स्वार्थी मानसिकता, इन दो कमजोरियों ने हमें तोड़ रखा
है और नतीजा यह है कि नागरिक उत्तरदायित्वों के प्रति हम आज भी
पूर्णतः अनभिज्ञ ही हैं। इसके ज्वलंत उदाहरण है कि आज भी घर
झाड़–पोंछकर कूड़ा हम घर के दरवाजे पर खुशी–खुशी और बेझिझक फेंक
आते हैं – अपना घर साफ रहे, बस यही काफी है हमारे लिए– गली,
मुहल्ले और देश से आज भी हमें कोई मतलब नहीं। यदि बात अस्तित्व
की लड़ाई की होती तो समझी जा सकती थी पर दूसरों के प्रति इतनी
निरासक्ति कभी भी एक विकसित देश के विश्वास और आशावादी समझ का
परिचय नहीं दे सकती, बहुत कुछ सीखना हैं हमें अभी आप सबसे,
मैंने झुकी नजरों से जवाब दिया। विदेशी जो मेरे पूरे देश में
घूम चुकी थी, उसके अनुभवों को मैं महसूस करने की कोशिश कर रही
थी और समझ पा रही थी कि हजार अच्छे अनुभवों के साथ कुछ अनुभव
और आभास आज भी शर्मनाक ही रहे होंगे – पर इसका यह मतलब नहीं कि
भारतीय होने के लिए शर्मिन्दा हूं। कमियां कहाँ नहीं होती –
जरूरत बस समझने और जानने की है। हम सब जानते हैं कि स्वच्छ
भारत ही स्वस्थ भारत होगा, और स्वस्थ राष्ट्र ही सशक्त राष्ट्र
होगा। सिर्फ आत्म–श्लाघा के घोड़ो पर सवार होकर लड़ाइयां नहीं
जीती जा सकती – इसके लिए भी समझ की ढाल और कर्तव्य की तलवार
चाहिए। २०१० तक एड़स् जैसी बीमारियां भारत में सबसे अधिक होंगी
– ऐसी अफवाहों को हमें निर्मूल करना ही होगा क्योंकि भारत अब
पिछड़ा देश नहीं, प्रगतिशील देश भी नहीं – आधुनिक और सशक्त
इक्कीसवीं सदी का एक प्रमुख और विकसित देश है और एशिया के
केन्द्र में खड़ा है।
अप्रैल २००४
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