हाल
ही में दुबई में एक फिल्मी आयोजन में भारत के मशहूर फिल्म
अभिनेता धर्मेन्द्र ने कहा कि भारत मेरी मां है तो पाकिस्तान
मेरी मासी मां . . .उद्गार चाहे किसी भी परिस्थिति, दबाव
या सच्चे भावातिरेक से आए हों, पर खरे और मन को छूने
वाले थे . . .और यही बात पूरी ईमानदारी से हमारी दोनों
भाषाओं (हिन्दी और उर्दू) के संदर्भ में भी कही जा सकती है।
कहें या न कहें, मानें या न
मानें पर हर भारतीय और पाकिस्तानी जानता है कि आज भी हमारी
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर एक ही है . . .नाम चाहे जो
भी दें, लिपि चाहे जो भी हो, आज भी हम एक ही जुबां
बोलते हैं, एक ही तरह का खाना खाते हैं और आज भी हमारे
दोनों देशों की मिट्टियों में एक ही पूर्वज सोए पड़े हैं।
फिर क्या वजह है कि हमारे दिलों
में एक दूसरे के प्रति इतनी दूरियां आ गई . . .क्या हम वाकई
में इतने मूर्ख या भोले हैं कि साम्प्रदायिक और सामाजिक
ठेकेदार जब चाहें, जैसे चाहें हमारा इस्तेमाल कर लेते हैं .
. .या एक संघ या संगठन से चेतन या अवचेतन मन से
जुड़े रहने के कारण हम भावुक और कमजोर हो जाते हैं और
हमारी इसी कमजोरी को उकसाया और भड़काया जा सकता है?
शायद यही वजह है कि अपने देशों के बाहर तो हम एक दूसरे से
खुलकर मिलते हैं, एक दूसरे के कलाकार, संगीतज्ञ, विद्वान
और खिलाड़ियों को पसंद करते हैं, आदर सम्मान करते हैं पर
अपने देशों या संघों में पहुंचते ही पुनः साम्प्रदायिकता के
पचड़े और दंगों में पड़ जाते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में
जब अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की थी
तो वह भी सिर्फ एक मौके का ही फायदा उठा रहे थे। सौ साल से
चल रही फूट की आग में घी डाल रहे थे। उन्होंने देश की
कमजोरी को अपनी सत्ता की नींव सुदृढ़ करने के लिए इस्तेमाल
किया और भाषा के नामपर हिन्दू, मुसलमानों में फूट डाल
दी। और हिन्दुस्तानी अठारहवीं शताब्दी में दो अलगअलग रूपों,
हिन्दी और उर्दू बनकर विकसित होने लगी, दो विभाजित
समाजों का प्रतिनिधित्व करती हुई।
माना इन दोनों भाषाओं का
अपना अलगअलग अस्तित्व है पर इन्हें अलग भाषा कहना शायद
सही नहीं होगा क्योंकि इनका उद्गम मात्र एक राजनीतिक जरूरत ही
थी। साधारण हिन्दी और साधारण उर्दू में इतना फरक नहीं,
जितना कि साधारण हिन्दी और क्लिष्ट हिन्दी में, या आम उर्दू
और उर्दू जुबां में। दोनों के मूल और साधारण शब्द व क्रियाएं
जैसे मैं, तुम, हम, आप, मां, बाप, आंख, नाक,
खानासोना वगैरह आज भी एक ही हैं। और कोई भी भाषा
इन्हीं साधारण शब्दों से बनती है, क्लिष्ट अलंकरणों के इक्के
दुक्के शब्दों से नहीं। ना सिर्फ अलग तरह से लिखने से
कोई भाषा फरक हो जाती है और नाही एक ही तरह से लिखने
से दो भाषाएं एक। हिन्दुस्तान पाकिस्तान का विभाजन होने के
पहले पंजाबी मुसलमान पंजाबी को उर्दू में लिखते थे और
सिख गुरूमुखी में। मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों जगह
मलय भाषा बोली जाती हैं पर मलेशिया में अरैबिक स्क्रिप्ट
में लिखी जाती है और इंडोनेशिया में रोमन स्क्रिप्ट में।
हमें उर्दू में लिखी जमाते इस्लाम भी मिल जाएगी और
सनातनधर्म व आर्यसंघी रामायण और महाभारत भी। हिन्दी
और उर्दू दोनों के ही विद्वान कहते हैं कि हम जिस भाषा को
उर्दू के नाम से जानते हैं वह हिन्दी से ही निकली और बनी
हुई हैं।
भारतीय समाज पर हमेशा से
बाहर के असर पड़े हैं, ध्यान से देखें तो, बस
'अंतरवेदी नागरी गौड़ी पारस देस। अरू अरबी जामैं मिलैं
मिश्रित भाखा बेस।।'
यह भाषा देश की सामाजिक,
धार्मिक व राजनीतिक जरूरतों के अनुसार हमेशा खुदको ढालती
और बदलती रही है और किसी भी जीवन्त चीज की तरह इसका रूप भी
कभी स्थिर नहीं रह पाया। भारत एक बृहद देश है जिसकी प्रान्तीय
भाषाएं और उपभाषाएं भी हैं जो एक दूसरे से भिन्न तो हैं
पर सबका मूलस्रोत संस्कृत ही रहा है। फिर कई क्षेत्रीय भाषाएं
भी हैं पर पढ़ेलिखे लोगों की भाषा हमेशा खड़ी बोली ही
रही है, जो विशेषतः दिल्ली के आसपास बोली जाती रही है।
यह हमेशा ही इन सभी प्रान्तीय और क्षेत्रीय भाषाओं से
थोड़ी सी भिन्न रही है। क्षेत्रीय भाषाओं की बाह्य रूपरेखा
जैसे व्याकरण वगैरह तो हमेशा हिन्दी का ही रहा है पर शब्दावली
में दूसरी भाषा के शब्दों का भी समागम होता चला गया है
. . .विशेषतः अरबी व फारसी का। कहीं कहीं तो तुर्की और
अंग्रेजी शब्द भी आ मिले हैं और ग्रीक शब्दों की भी भरमार
रही है।
वैसे आज हम जिस हिन्दी को
हिन्दी के नाम से जानते हैं उसके प्रथम प्रचालक गोरखनाथ को
कहा जा सकता है। चूंकि इनकी संकलित किताबें उपलब्ध नहीं हैं
इसलिए इन्हें नकारना गलत होगा। यदि ऐसा है तो हमें मीरा
और कबीर को भी नकारना होगा। शेक्सपियर को नकारना होगा।
इतिहासकारों ने इनकी भाषा को साधुकारी का नाम दिया था।
वास्तव में यह पांच भाषाओं का संगम थी हिन्दी,
हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती, शायद थोड़ी
बहुत मराठी भी। कहींकहीं बृजभाषा, भोजपुरी और
बुन्देली के शब्द भी आ मिले थे। यह राजदरबार और साहित्य की
भाषा नहीं थी। इसके बोलने और सुनने वाले दोनों ही
आम भारतीय थे। हिन्दी एक परशियन शब्द है जिसका अर्थ है
हिन्दुस्तान का रहने वाला, यह मुसलमान, सिख, ईसाई कोई
भी हो सकता है अर्थात हिन्दी का मतलब हमेशा से ही सिर्फ
हिन्दुओं से न होकर हर भारतीय से रहा है और यही हिन्दी की
सही परिभाषा है। अपभ्रंश भाषा जब भाषा बनी, तो उसमें
भारत में बोली जाननेवाली हर भाषा का समन्वय था।
पाणिनी ने इसके बारे में लिखा कि इस भाषा के छह गुण हैं।
संस्कृतं, प्राकृतंचैव शौरसेनी च मगधीम
पारसीकमपभ्रंशं, भाषायाः लक्षणानि षट्।।
अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम
'हिन्दी' शब्द का प्रयोग भारतीय भाषा के लिए किया था और कहा
था कि यह किसी भी रूप में परशियन या अरैबिक से तुच्छ नहीं
है। क्योंकि परशियन बोलने वाले मुस्लिम सबसे पहले
पंजाब में आकर बसे थे इसलिए उन्होंने वहीं की जुबां को
अपनाया। जहां अमीर खुसरो ने इस जुबां को लाहौरी नाम
दिया था अब्दुल फैजी ने मुल्तानी। एक प्राचीन कवि मसूद साल
सलमान के बारे में लिखते हुए, खुसरो ने कहा कि उनके तीन
काव्य संग्रह हैं जो कि अरैबिक, परशियन और हिन्दी में हैं।
अर्थात तब तक न सिर्फ हिन्दी विकसित हो चुकी थी अपितु साहित्य
की भाषा भी बन चुकी थी। इस संदर्भ में हिन्दी के साथ
हिन्दावी शब्द का भी प्रयोग किया गया है। यह भारत की
मुगलों के आगमन के पूर्व की भाषा थी पर मुसलमानों के
आगमन से यह पिछड़ी नहीं अपितु और भी समृद्ध ही होती चली
गई। अपभ्रंश से विकसित भाषा लगभग दशवीं शताब्दी के
आसपास विकसित हो रही थी और करीबकरीब तभी आया था
मुसलमानों का साम्राज्य भी . . .संगसंग फारसी और
अरबी शब्दों की बृहद श्रृंखला भी।
गंगा की तराई में बोली
जानेवाली इस अपभ्रंश से ही पंजाबी का जन्म हुआ था और
पंजाबी व पश्चिम भारत की भाषा में ज्यादा फरक नहीं था पर
दिल्ली के आसपास कई और भी भाषाएं थीं जैसे हरियाणवी,
खड़ी बोली और बृजभाषा। बृजभाषा तत्कालीन साहित्य की
भाषा थी। शुरू से ही बाहर से आए मुसलमान साधारण
बोलचाल की भाषाओं की तरफ ही ज्यादा आकृष्ट हुए और इन्हीं के
मिश्रण से बनी बोली को इन्होंने अपनाया। यह भाषा उनकी
बोली के ज्यादा पास थी क्योंकि पहले पंजाब, उत्तरप्रदेश और
हिन्दू अफगान में एकसी ही भाषा बोली जाती थी जो कि
पंजाबी और और खड़ी बोली से मिलती जुलती थी पर सत्रहवीं
शताब्दी के अन्त और अठ्ठारहवीं की शुरूवात में मुगल दरबारियों
ने भाषा सुधार के नामपर हिन्दी से संस्कृत और रोज की
बोलचाल के शब्दों को निकालकर अरबी और फारसी शब्द डालने
शुरू कर दिए और देहलवी भाषा का जन्म हुआ जो आगे चलकर
उर्दू बनी। इस तरह से एक भाषा जो ग्यारहवीं शताब्दी के करीब
संस्कृत के अपभ्रंश, प्रकृति या पाली से निकल कर परशियन
मुसलमानों के संग भाषा बनकर भारत में गूंजी वह
पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी की सहूलियत अनुसार अपनाई
गई उर्दू से काफी फरक थी। वह भाषा आम भारतीयों की जुबां
थी और भारत की किसी की भाषा की तरह संस्कृत के शब्दों के
बिना नहीं बोली जा सकती थी। फैज की नज्मों में जो हिन्दी
के शब्द हैं वही जायसी कबीर और रहीम की कृतियों में भी।
जायसी कुतबान रहीम वगैरह सभी ने परशियन में भी लिखा
है और जानेमाने हिन्दी के कवि भी हैं। इसतरह हम हिन्दी को
चार भागों में बांट सकते हैं . . .
1 बिना मुसलमानों के संस्कृत से निकली।
2 बाहर से आए मुसलमानों के संग अरबी और परसियन से
मिलीजुली हिन्दी या हिन्दावी।
3 देहलवी या दक्कनी।
4 आधुनिक हिन्दी।
ग्रेहम बेली के अनुसार 'उर्दू'
शब्द भाषा के लिए सबसे पहले शायर मुसाफी ने 1776 में
इस्तेमाल किया था। शुरू में हिन्दी उर्दू का फर्क इस तरह से शुरू
हुआ कि बस हिन्दी फारसी में लिखी जाने लगी थी। बहुत बाद तक
उर्दू किताबों में भी इसे हिन्दी ही कहा गया है और इस मिली
जुली भाषा के शब्दों का इस्तेमाल कबीर, बिहारी आदि कवियों
ने भी वैसे ही किया जैसे कि वली सौद या मीर ने। मीर हसन
देहलवी ने इसे 'तजकिरा ए सुखन अफरीनान ए हिन्दी' यानी साफ
और सजीसंवरी हिन्दी कहा है। भाषा आलोचक ज्ञानचन्द ने
लिखा है कि वाली फिर उनके बाद हातिम व मिर्जा मजहर वगैरह
ने भाषा सुधार के नामपर न सिर्फ हिन्दी के शब्दों को फारसी
शब्दों से बदलना शुरू किया बल्कि नासिक वगैरह ने इसे
लखनऊ में एक नया ही रूप दे डाला। पंडित राम विलास शर्मा के
अनुसार उर्दू ने अपने को दुमुखे रूप में हिन्दी से अलग कर
लिया। पहले तो इसने हिन्दुस्तान की क्षेत्रीय भाषाओं, जैसे
अवधी, ब्रज, बुन्देलखंडी, भोजपुरी वगैरह से अपने को दूर
किया, फिर कठिन संस्कृत शब्द निकालने की प्रक्रिया में भारत की
अन्य भाषाओं जैसे बंगाली, गुजराती, मराठी आदि से भी
अलग कर लिया क्योंकि इन सबका सामूहिक शब्दस्रोत तो संस्कृत
ही था।
वाली जो पहले कुछ यूं लिखते
थे,
'पिरित की जो कंठा पहने उसे घरबार करना क्या
हुई जोगन जो कोई पी की उसे संसार करना क्या
जो पीवे नीर नैना का इसे क्या काम पानी सूं
अब यूं लिखने लगे,
गुनाहों के सियहनामे से क्या गम उस परीशां को
जिसे वो जुल्फ दस्त आवेज़ हो रोजे़ कयामत में।
सुविख्यात इतिहासकार व फारसी के
विद्वान ताराचन्द कहते हैं कि दिल्ली के शासक व संचालक मुख्यतः
फारसी जानते थे पर दक्कन से आए हिन्दू और मुसलमान दरबारी
भारत में पले बढ़े थे और दरबार में अपनी भाषा बोलने
में झिझक व पिछड़ापन महसूस करते थे इसलिए अपनी भाषा से
देशी शब्दों को हटातेहटाते वे उसे जनसाधारण से दूर कर
बैठे। सूफियों की सीधी व सरल भाव प्रवण दक्कनी भाषा की
जगह उर्दुएमुल्ला ने ले ली, जो सिर्फ पढ़े लिखे और
दरबारियों की भाषा ही बन कर रह गई।
अब्दुल सलाम नदवी के अनुसार
इन संशोधनों के बाद उर्दू पूरी तरह से फारसी के ढांचे में
ढल गई और ईरानी अन्दाज में लिखी जाने लगी। जब अहमदशाह
दुर्रानी के आक्रमण की वजह से दिल्ली के राजे और नवाब
लखनऊ की तरफ भागे तो एक नयी लखनवी उर्दू ने जन्म लिया
जो दिल्ली की उर्दू से फरक थी और परशियन और अरैबिक शब्दों
से भरी हुई थी। उर्दू के विद्वान अब्दुल हक के अनुसार यह भाषा
की डार्क एज़ थी जब बड़े पैमाने में अरबी और फारसी के शब्द
डाले जा रहे थे और एक बहुत ही औपचारिक, प्राणहीन उर्दू पनप
रही थी। शायरों ने अल्फाज के संग खेलना शुरू कर दिया।
कहींकहीं तो बस अरबी, फारसी शब्दों के अंत में नुक्ते
ठोक दिए जाते थे। दिल्ली की उर्दू अभी भी सीधी सरल और
हिन्दुस्तानी के करीब थी। उसका सबसे अच्छा उदाहरण मीर के कलाम
में मिलता है। चन्द शेर पेश हैं
1 छाती से एक बार लगाता जो
वो तो मीर, बरसों ये जख्म सीने का हमको न सालता।
2 क्योंकर न चुपके चुपके यूं जान से गुजरिए, कहिए बिथा
जो उससे बातों की राह निकले।
अब्दुल हक के अनुसार इसी
विभाजित भाषा की वजह से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बने।
अपनी पत्रिका अन्जुमन तरक्किये उर्दू में उन्होंने कहा जिन्हा और
इकबाल की वजह से पाकिस्तान नहीं बना, हिन्दू और
मुसलमानों को उर्दू ने अलग किया है।
इधर भारत में भी एक और सशक्त
भाषा विकसित हो रही थी। अयोध्या प्रसाद खत्री ने हिन्दी के इस
नये रूप को अलगअलग नाम से पुकारा जैसे ठेठ हिन्दी, पंडित
हिन्दी, मुंशी हिन्दी, मौलवी हिन्दी और विलायती हिन्दी। एक
बात निश्चित हो चुकी थी कि धीरेधीरे नए भारत की
राष्ट्रभाषा की जिम्मेदारी हिन्दी को ही लेनी है। हिन्दुस्तान की
बदलती राजनीतिक व धार्मिक रूपरेखा के साथ हिन्दी के महत्व को
भारतवासियों ने भी समझ लिया था और वे अपनी क्षेत्रीय
भाषाओं को राष्ट्रीय संगठन के लिए न्योछावर करने को तैयार
थे। प्रादेशिक भाषाओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।
हिन्दी भाषा और साहित्य दोनों की ही समृद्धि में इनका
महत्वपूर्ण हाथ है। प्रादेशिक भाषाओं ने दुतरफा विकास में
योगदान किया, एकतरफ तो इन्होंने प्रादेशिक जीवन को
अभिव्यक्त किया है, दूसरी तरफ उसे देश की व्यापक इकाई से भी
जोड़े रखा है।
इसी समग्र इकाई के लिए बनारस
हिन्दू संस्कृत कॉलेज ने हिन्दुओं के अधिकार, साहित्य और
धर्म की रक्षा को अपना लक्ष बनाया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा
बनाने का आन्दोलन भी बनारस से ही शुरू हुआ था। जिसने
कि बंगाल में आकर जोर पकड़ा था।
भारतेन्दू हरिश्चन्द, (जो कि
आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता माने जाते हैं) ने कभी हिन्दी में
सिर्फ संस्कृत के शब्दों के प्रयोग पर जोर नहीं दिया। और ना
ही यह कहा कि हिन्दी से फारसी और अरबी शब्द निकालो। हिन्दी के
इसी संवेदनशील, सहज लचीलेपन ने इसे हिन्द की भाषा
बनाया है और शायद यही वजह है कि हिन्दी अपने करीब हजार
साल के अस्तित्व में भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। प्रस्तुत हैं
सराहपा से लेकर आजतक के चन्द उदाहरण . . .
अक्खर बाढ़ा सअल जगु, णहि णिक्खर काइ।
तावसे अक्खर घोलिअइ, जाव णिरक्खर होई।। सराहपा 8वीं
शएडी
गगन मंडल में ऊंधा कूवा तहां अमृत का वासा।
सगुरा होइ सो भरभर पीवै निगुरा जाइ पियासा।।
गोरखनाथ 11वीं श एडी
भीतर चिलमन बाहर चिलमन बीच कलेजा धडके
अमीर खुसरो यों कहें वो दो दो अंगुल सरके।। खुसरो (12361324)
माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ
हम नहीं होते तुम नहीं होते कवनु कहां ते आइआ।। नामदेव (12701350)
दरदहि बूझै दरदबन्द, जाकि दिलि हौवे।
क्या जाणै दादू दरद की, नींद भरि सोवै।। दाउद (13701450)
प्रेम न बारी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाइ।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ लै जाइ।। कबीर
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसे निस अरू चन्द।
चंदे बिन निस सांवली, निस बिन चंदो मन्द।। जमाल (1545)
चीत मिले तो सब मिले, नहीं तो फूकट संग।
पानी पाथर येक ही ठौर, कोर न भिजे अंग।। तुकाराम (16071649)
चमचमात चंचल नयन बिच घूंघट पटझीन।
मानहु सुरसरिताबिमल जल, उछरत जग मीन।। बिहारी
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
हमेशा आदमी
मजबूर होकर लौट आता है
जहां हर मुक्ति के, हर त्याग के, हर साधना के बाद
(गुनाह का गीत धर्मवीर भारती)
कुछ दिन पहले यहां के संडे टाइम्स
में पढ़ा था कि क्या हिन्दुस्तानी हिंगलिस्तानी हो रही है जब कई
हिन्दी के शब्द लेकर भी इंग्लिश हिंग्लिश नहीं हुई तो चन्द
अंग्रेजी शब्दों से हिन्दी भी हिंगलिस्तानी नहीं हो पाएगी।
शब्दों की नन्हीं पगडंड़ियों पर चलकर ही तो भाषा नए आयाम
ढूंढ़ती है आइए हम आप भी गौर करते हैं कुछ उन शब्दों पर जो
अन्य भाषाओं से हिन्दी में आ मिले थे और जिन्हें हम आप
अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में भी खूब इस्तेमाल करते हैं सूची
अनगिनत हैं पर चन्द आपकी सुविधा और समझ के लिए प्रस्तुत हैं
अरैबिक, परशियन, तुकी .हबीब, दिल, इन्साफ, बहिस्त,
अक्ल, शहर, फकीर, जिकिर, बंदा, दौर, फौज, ख्याल, पीर,
शाह, दीदार, दर्बेश, खानाबदोश, हुकुम, खुब, ईस्म,
सूरत, आशिक, अश्क, बाग, पाक, महबूब, कदम, हुजूर,
नज़र, चश्म, बेजार, गुजारिश, वफादारी, मुहब्बत, अव्वल,
दर्जा, कुर्बान, अतर, खुशबोय, गुल, गुलदान, खुराक,
महल, जंग, शरम, जहरी, जहन, यार, नौबत, तख्त, हूर,
कमान, नकार, सिरताज, जवाहर, मैदान, मेहताब, मुल्क,
शैतान, पजामा, टोपी, हिन्दी, उर्दू वगैरह वगैरह . . .
इंग्लिश, ग्रीक, लैटिन, फ्रेन्चकोट,
स्टेशन, टेलीफोन, टेलिविजन, नियरे, कम्प्यूटर, नम्बर,
प्लास्टिक, नाइलौन, मशीन, फैक्टरी, मिल, इंजीनियर,
ड्राइवर, फिल्म, रिंच, ककून, डिवीजन, सरकस, कटपीस,
होजरी, जौर्जेट, वायल, जूट, शमीज, ब्लाउज, पेटीकोट,
जाकट, कौलर, ड्रेस, सैंडल, सूट, जेल, जेलर, हाईकोर्ट,
सुप्रीमकोर्ट, जज, जूरी, डॉक्टर, जनरल, कम्प्यूटर,
ओवरसियर वगैरह वगैरह . . .
हिन्दी की सशक्त धारा वैदिकयुग
से बौद्धयुग में होती हुई फिर मुस्लिम से आंग्लयुग के
तटों पर बहती आधुनिक युग में आ पहुंची है और अपनी
अलगथलग पहचान बनाए रखने में भी समर्थ रही है। आज
जब हिन्दी सब दासता के संदर्भों से उबर चुकी है, देश की
राष्ट्रभाषा है और इसके बोलने वाले आस्ट्रेलिया से लेकर
कनाडा तक पूरे विश्व में फैले हुए हैं तो इसे एक वर्नक्यूलर
भाषा कहकर अवहेलना करने से हम आज भी बस मात्र एक मानसिक
दासता का ही परिचय देंगे। भाषा के सहारे ही कोई संघ आपस
में जुड़ पाता है। लीपिबद्ध होकर यही वेद, कुरान और बाइबल
बनाती है। यही हमारी सभ्यता और संस्कृति की विरासत को आगे
वाली पीढ़ी तक पहुंचाएगी फलतः इसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व आज
हर भारतीय का है चाहे वह कहीं भी रहता हो। प्रादेशिक यथार्थ
और राष्ट्रीय एकता को पहचानते हुए हिन्दी को हमें बारबार
उभारना और संवारना होगा। आज जब हिन्दी भारत में रोटी
रोजी से भी जुड़ गई है तो विश्वभाषा अंग्रेजी की
अवहेलना नहीं कर सकती। ज्ञान विज्ञान और तकनीकि प्रगति
के लिए हिन्दी में इसके चन्द शब्दों का समिश्रण स्वाभाविक ही
है। वैसे भी विश्वास मानिए आज की इस स्पेस एज या
विश्वीकरण के युग में जब हम कम्प्यूटर को कम्प्यूटर कहते हैं
तो हिन्दी ही बोल रहे होते हैं कोई अन्य भाषा नहीं।
मार्च 2004
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