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करोड़ों के मधुमेह का आयात
- लीना मेंहदले
भारत विश्वगुरू बने, नंबर वन बने।
ऐसा सपना देखने वालों की कमी नहीं है। और वाकई एक मुद्दा ऐसा है जिस पर भारत नंबर
वन बना हुआ है। वह है डायबिटीज अर्थात् मधुमेह। आज संसार में सबसे अधिक मधुमेही
मरीजों की संख्या हमारे ही देश में है। माना जाता है कि शहरी इलाकों में हर पाँच
में से एक व्यक्ति मधुमेह का शिकार है और गाँव वाले भी कोई खास पीछे नहीं। पहले यह
बीमारी प्रौढ़ावस्था की बीमारी मानी जाती थी पर अब छोटी आयु में भी यह बीमारी ग्रस
रही है।
लेकिन प्रश्न है कि मधुमेह हो जाए तो दिक्कत क्या है?
मेरे परिचित एक परिवार में पति-पत्नी दोनों को मधुमेह की बीमारी थी। पत्नी पेशे से
डॉक्टर भी थी। दोनों पहले गोलियाँ और फिर इंजेक्शन लेने लगे थे। मैं कभी चिन्ता
व्यक्त करती तो पत्नी कहती - क्या चिन्ता है? बस सुबह शाम दवाई का ध्यान रखना पड़ता
है। और तो कुछ नहीं। हाँ, ब्लड शुगर लेवल और चीनी लेवल जाँचनी पड़ती है, पर उसमें
क्या दिक्कत है। मैं तो दिन में सौ मरीजों की जाँच करती हूँ, एक अपनी भी सही। कुल
मिलाकर यही लगना था कि मधुमेह उनके लिये कोई बीमारी, परेशानी या चिंता का कारण थी
ही नहीं। दोनों का ऑफिस आना जाना, घूमना टहलना, विदेश-भ्रमण आदि आराम से होता था
लेकिन मधुमेही होने और न होने का अंतर कुछ महीने पहले समझ में आ गया जब पत्नी का
देहांत हुआ जो कि आयु में मुझसे छोटी थी।
एक दूसरा उदाहरण भी है।
करीब बीस वर्ष पूर्व मैं केंद्र सरकार के राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान
पुणे में डायरेक्टर के पद पर नियुक्त थी। तब हमने एक मधुमेह इलाज का कार्यक्रम
चलाया था। इसमें तीस से चालीस तक मधुमेहग्रस्त व्यक्ति (मरीज) प्रति बुधवार को
दोपहर से तीन घंटे का समय संस्थान में व्यतीत करते थे। मधुमेह के नियंत्रण पर आपसी
चर्चा फिर हर प्रकार की स्वास्थ्य-रक्षा-प्रणाली के डॉक्टरों द्वारा व्याख्यान,
उपाय, दिनचर्या, आहार व्यवस्थापन, नये जाँच मशीनों की जानकारी, कॉम्प्लीकेशन आदि हर
प्रकार की चर्चा होनी थी। हमारा नारा था सेल्फ कंट्रोल। और उसके सूत्र थे
आहार-विहार, आचार और विचार स्वयं-शर्करा को प्राकृतिक उपायों से अपनी नियम मर्यादा
में रखना- यही इस कार्यक्रम का लक्ष्य था जिसके लिये हमने २४ सप्ताह अर्थात छः
महीने की कालावधी निश्चित की थी। योगासन, प्राणायाम सुबह जल्दी उठना और रात को
जल्दी सोना टहलना और मौन रहकर टहलना, आहार में कच्ची हरी सागभाजी, सैलड, अंकुरित
धान, मट्ठा, फल इत्यादि का प्रयोग- यही सारे जाने माने उपाय हैं मधुमेह को काबू में
रखने के लिये। साथ ही हम उन्हें सिखाते थे कि कैसे ध्यान-अवस्था में बैठकर अपने
शरीर में रक्त शर्करा के बढ़ते हुए अनुपात के कारण होने वाली सूक्ष्म संवेदनाओं को
महसूस किया जा सकता है। इस कार्यक्रम को काफी हद तक सफलता मिली। प्रायः रोग की दवाई
की आवश्यकता आधे से कम पर आ गई थी। कुछेक की छूट भी गई थी। लेकिन हमने जो रजिस्टर
बनाकर ब्यौरे लिखे थे, उनसे यह भी जाहिर होता था कि जो बीच-बीच में अनुपस्थित थे
उनको लाभ उतना नहीं मिला जितना हर सप्ताह उपस्थित रहने वालों को। उन्होंने यह महसूस
किया कि प्रति सप्ताह अन्य संवेदना वालों के साथ बैठकर चर्चा करने का अच्छा परिणाम
मिलता था जो अनुपस्थित रहने पर बिखर जाता था। इसे मैं सत्संग-महिमा कहा करती थी।
इस कार्यक्रम में आने वाले प्रायः सभी व्याख्याताओं ने तथा खुद इलाज करवाने वालों
ने भी एक मुद्दा बार-बार उठाया था। वह था कि हमारे देश में बढ़ते हुए मधुमेह के
कारणों में तीन मुद्दों का बड़ा महत्व है। पहला है हमारा खान-पान। रासायनिक खाद पर
पुष्ट होने वाला धान्य और गोबर जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उपजाया धान्य, दोनों
हमारे शरीर पर खास कर स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। रासायनिक खाद वाला
धान्य मिलावट वाले दूध और घी, हायब्रिड वैरायटी के और खास कर समय से पहले तोड़कर
कृत्रिम उपायों द्वारा पकाये फलों जैसे शरीफा, अनार या पिछले वर्ष के कोल्ड-स्टोरेज
में रखे और इस वर्ष कृत्रिम साधनों द्वारा पका कर मौसम से पूर्व बाजार में उतारे
गये आम या अंगूर - सब का अनिष्ट प्रभाव शरीर को ही झेलना पड़ता है, वह भी मधुमेह के
रूप में। दूसरी ओर धूप में पका हुआ अनाज, फल या धूप में सुखाये हुए गेहूँ, दाल या
सब्जियाँ भी स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। केचप, जेली, जैम जैसे पदार्थों में डाले गये
प्रिजर्वेटिव भी उपयाकारक ही हैं। यह सारा ज्ञान बीस वर्ष पूर्व पुस्तकों से पढ़कर
नहीं बल्कि मरीजों के प्रत्यक्ष अनुभवों से लिया था।
यहाँ तक कि सूती कपड़ें और पॉलिस्टर या कृत्रिम धागों के कपड़ों से भी अन्तर पड़ता था।
सूती कपड़े में भी खादी के अर्थात् हाथ से बुने गये कपड़े अधिक उपयोगी थे, यह भी
हमारे मरीजों ने चर्चा के बाद पाया था।
तो मैं फिर से सोचने लगती कि वाकई मधुमेह कोई दिक्कत वाली बीमारी तो है नहीं। बस यह
ध्यान रखो कि क्या खाया, क्या पिया, क्या पहना-ओढ़ा और दिनचर्या कैसी रही। विचार
कैसे रहे? सबसे बड़ी बात की मनःशांति टिकाई या नहीं। यदि यह हो तो मधुमेह कुछ नहीं।
विचारों में भी हमने देखा कि चिंता, ईर्ष्या, स्पर्धा क्रोध आदि ऐसे थे जो मधुमेह
को बढ़ाते थे। इसके विपरीत मन को शांत रखना, शांत म्युजिक सुनना, संतोष, सादगीयुक्त
जीवन आदि मधुमेह को रोकने के लिये उपयुक्त थे। बस इतनी सी बात।
लेकिन पिछले बीस वर्षों में मधुमेही बीमारों की संख्या बढ़ती गई और सरकार में इसकी
रोकथाम चिंता का विषय माना जाने लगा, तो मैंने इसके दूसरे आयाम पर विचार किया।
वैयक्तिक आयाम अलग होता है और राष्ट्रीय आयाम अलग होता है। वैयक्तिक रोकथाम व्यक्ति
के हाथ में होती है परन्तु राष्ट्रीय आयाम पर राष्ट्रीय नीतियों का प्रभाव रहता है।
राष्ट्रीय नीति पर अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय
सत्ता-स्पर्धा, बाजार-व्यवस्थापन, आर्थिक शक्तियाँ आदि का प्रभाव रहता है। कई बार
हमारे लिए उन्हें रोकना कठिन होता है। कई बार हमारे लिये उन्हें समझना और भी कठिन
होता है। पर सबसे बुरा तब होता है जब हम उन्हें समझकर, पहचानकर उनसे हाथ मिलायें और
अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोचें। हमारे राष्ट्रीय नीति-निर्धारण में ऐसे लोग नहीं
हैं ऐसा हम डंके की चोट पर नहीं कह सकते यह भी हमारे राष्ट्रीय चरित्र में एक खोट
है। लेकिन हाँ, जो अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा को नहीं समझते, उन्हें समझाने का उपाय
हमारे हाथ में बचा रहता है। यहीं से ग्राहक-शक्ति का आरंभ होता है।
इसीलिये ग्राहक को समझना पड़ेगा कि हमारे देश में मधुमेह आयात का कारोबार कितना बड़ा
है और इसे कौन चलाता है। फिर ग्राहक अर्थात् देश की जनता स्वयं निर्णय करे कि यह
व्यापार चलने दिया जाये या इस पर रोक लगायी जाये।
देश में मधुमेह का आयात दो अलग रास्तों से होता है। उन पर व्यापार करने वाली
कंपनियाँ एक दूसरे से नितान्त भिन्न व्यवसायों में हैं लेकिन जाने-अनजाने एक दूसरे
की पूरक हैं। दोनों ही आयात अधिकतर अमरीकी कंपनियाँ चलाती हैं। पहला व्यापार है
दवाइयों का। मधुमेह पर उपाय के लिये इन्सुलिन या दूसरी गोलियाँ, यहाँ तक कि
रक्त-शर्करा की जाँच में प्रयुक्त होने वाली दवाइयाँ भी और तरह-तरह के उपकरण हम
अमरीकी कंपनियों से आयात करते हैं। मधुमेह के कारण जो अन्य प्रक्षोभ निर्माण होते
हैं जैसे हृदय की बीमारी, किडनी की बीमारी, आँखों की या लीवर की बीमारी इन सब की
दवाइयों का भी एक अन्य सुसंगठित आयात-व्यापार है। इन व्यापारों में सालों साल किस
प्रकार बढ़ोत्तरी हुई यह एक अच्छी खासी पी.एच.डी. का विषय है। मधुमेह के आयात-व्यापर
का दूसरा रास्ता है रासायनिक खाद के आयात का। शीघ्रगामी लाभ के लिये कृषि में
रासायनिक खादों का प्रचलन हुआ। NPK का नाम एक वेदमंत्र की तरह लिया जाने लगा।
महाराष्ट्र में तो सरकारी बैंक का क्षेत्र पूरी तरह से रासायनिक खाद के व्यापार पर
ही निर्भर था। देश में राष्ट्रीय केमिकल एण्ड फर्टिलाइजर नामक बड़ी कंपनी खुली। उससे
अलग भी कई सरकारी कंपनियाँ रासायनिक खाद बनाने में जुट गईं। इनके लिये बड़े पैमाने
पर P और K अर्थात् फॉस्फोरस एवं पोटाश का आयात होने लगा। इसके अलावा विदेशी
कंपनियों से सीधे तौर पर खाद भी आने लगा। आज पूरे देश में सर्वाधिक आयात की तीन
वस्तुऐं हैं- पेट्रोलियम क्रूड, सोना और रासायनिक खाद। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता
है कि खाद का व्यापार करने वाली अमरीकी कंपनियाँ हमारे देश से कितना पैसा बटोरती
हैं।
अब यदि देश को मधुमेह मुक्त करना है तो ये दोनों व्यापार खतरे में पडेंगे। इन्हें
हमारे देश में पहुँचाने वाले और अपने देश में स्वागतपूर्वक लाने वाले दोनों का
व्यवसाय ठप्प हो जायेगा। अरबों-खरबों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भूकंप आयेगा।
क्या एक राष्ट्र की हैसियत से हम अमरीका में ऐसा भूचाल लाने की क्षमता रखते हैं?
एक छोटे से विनोद एक कौतुक को देखते हैं। केजरीवाल की खाँसी से चिंतित होकर
प्रधानमंत्री ने उन्हें नागेंद्र गुरुजी के पास जाने का सुझाव दिया है। यही
नागेंद्र गुरुजी बंगलुरु में विवेकानंद केंद्र चलाते हैं और हालही में इन्होंने योग
- प्राणायम के माध्यम से देश को अगले बीस वर्षों में मधुमेह मुक्त करने का संकल्प
लिया है। लेकिन उन्हीं के केंद्र में यह भी पढ़ाया जाता है कि मनुष्य शरीर का सबसे
बाहरी आवरण अन्नमय कोष कहलाता है - अर्थात् जैसा अन्न वैसा शरीर, वैसा ही मन। मन से
प्राण, प्राण से विज्ञान और विज्ञान से आनन्द। इस प्रकार योगशास्त्र में अन्नमय
कोण, मनोमय कोण, प्राणमय कोण, विज्ञानमय कोण और आनंदमय कोण की संकल्पना की गई है।
तो जब तक रासायनिक खाद युक्त, कीटनाशक युक्त अन्न खाते रहेंगे तब तक योग और
प्राणायाम से अधिक फायदा नहीं होने वाला। लेकिन ऐसे अन्न को नकारने का अर्थ है
अमरीकी कंपनियों से पंगा लेना। उधार इन्सुलिन और दवाईयाँ बनाने वाली कंपनियाँ
मनोयोग से गुरुजी को मनाने में जुटी हैं कि आप योग प्राणायाम के साथ थोड़ी-सी हमारी
दवाइयों की भी तारीफ कर दो, थोड़ी-सी इनकी भी उपयोगिता बतलाते रहो।
मधुमेह-मुक्त भारत का सपना देखो पर मधुमेह की दवाईयों से मुक्त भारत का सपना मत
देखो।
एक ओर तो सरकार अपने देश की विदेशी मुद्राएँ इन आयातित वस्तुओं पर खर्च कर रही है-
रासायनिक खाद और इन्सुलिन व अन्य दवाईयाँ। दूसरी ओर इस आयात की भरपाई करने के लिये
जिस-जिस निर्यात का सहारा लेना चाहती है उसमें पहले नंबर पर गोमांस है। अर्थात् देश
का अलभ्य पशुधन काटा जा रहा है। मशीनीकरण के युग में खेती के लिये भी बैलों को
अनावश्यक एवं अनुपयोगी ठहराया जा चुका है। लेकिन गोबर के खाद की तुलना किसी भी अन्य
खाद से करने पर गोबर ही सर्वश्रेष्ठ पाया जाता है। तो क्या हम गोबर के लिये पशुधन
पालें (और पोसें) या गोमांस के लिये? उत्तर यदि गोबर है तो उससे रासायनिक खाद का
आयात और उसके साथ मधुमेह का आयात रोका जा सकता है। यदि उत्तर गोमांस है तो देश से
गोमांस का निर्यात बढ़ सकता है, देश में पैसा आ सकता है। फिर देश में किसी को मिट्टी
में काम करने की जरूरत नहीं रहेगी। सबको व्हाइट कॉलर जॉब मिलेंगे। "शहर में घर हो
अपना" वाला सरकारी चुनावी विज्ञापन भी सच हो जायेगा।
हाँ, संसद के भाषण में प्रधानमंत्री ने अवश्य कहा था कि सिक्किम की अर्थव्यवस्था
सुधारना बहुत सरल है वहाँ अभी तक रासायनिक खाद नहीं पहुँची है। अतः उनकी कृषि उपज
हर प्रकार के रासायनिक खाद व कीट-नाशकों से मुक्त है। अतः उन्हें अंतर्राष्ट्रीय
बाजार में निर्यात करने पर सिक्किम के किसानों की अच्छी कमाई हो सकती है। देश के
निर्यात-व्यापार में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है।
तो अब प्रश्न उठता है कि क्या ऑर्गेनिक खेती का मंत्र केवल सिक्किम के किसानों के
लिये हो या देशभर के किसानों के लिये? ऑर्गेनिक खाद के लिये देश के पशुओं को बचाया
जाय या फिर उन्हें गोमांस निर्यात के लिये कटवाकर हम दुवारा कैरगिल जैसी विदेशी
कंपनी को उनके देश से हमारे देशों में काऊडंग बेचने का ठेका दें जैसा एक बार मनमोहन
सिंह का प्रयास था। जब वे नरसिंह राव सरकार के वित्तमंत्री थे। ये और ऐसे कई प्रश्न
मधुमेह के साथ जुड़े हैं।
६ अप्रैल २०१५ |